इसलिये शास्त्रों में कहा गया है कि- रात्रि के समय, अंधेरे कमरे में भी बुरे विचार मत आने दो, क्योंकि इनका प्रभाव दूर तक पहुंचता है और किसी अन्य तक पहुंचे या न पहुंचे, लेकिन आप पर तो इसका प्रभाव होगा ही। यह ईर्ष्या, द्वेष, दूसरे का बुरा चाहने की भावना- ये दूसरों को भले ही न जलायें, लेकिन आपको जलाये बिना छोडे़गी नहीं। कोई हाथ में उठाकर कीचड़ किसी सज्जन पर फेंके, उनके वस्त्र मैले करने का प्रयास करे। लेकिन वह सज्जन व्यक्ति आगे बढ़ जाये, उस पर कीचड़ ना गिरे, उसका वस्त्र मैला हो ना हो, परन्तु आपका हाथ मैला अवश्य होगा।
छः प्रकार का मैल मन, बुद्धि, चित्त और हृदय का होता है- राग, द्वेष, ईर्ष्या, परापकार- चिकीर्षा, असूया और आमर्ष।
राग का अर्थ है मोह-ममता में फंस जाना, यह मेरा है, यह मेरा नहीं, इस भावना को लेकर बैठ जाना। द्वेष का अर्थ है शत्रुता, व्यर्थ ही यह समझ लेना कि अमुक व्यक्ति मेरा शत्रु है, उसको नष्ट किये बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी। ईर्ष्या का अर्थ है जलन- किसी दूसरे की उन्नति देखकर जलना।
उसका कुछ बिगड़ता नहीं, अपने मन में ज्वालामुखी जलाये रखना। परापकार का अर्थ है दूसरे का बुरा सोचना कि कैसे इसको गिरायें, कैसे इसे कलंकित करें- इसकी योजना बनाते रहना। आज कल प्रत्येक कार्य योजना से होता है, इसके लिये भी प्लान बनाते रहना। असूया का तात्पर्य है कि श्रेष्ठ व्यक्ति में भी बुराई ढूंढने का प्रयत्न करना, उसके गुणों को नहीं देखना, उससे लाभ उठाने का प्रयत्न न करना, उसकी त्रुटियों को खोजते रहना। अमर्ष का अर्थ है क्रोध, यह छः प्रकार का मैल मन में चिपक जाता है।
अथर्ववेद में एक मन्त्र आता है- मन को समझाने के लिये।
दूर हट जा ऐ मन के पाप! क्यों तू मुझे पापकर्म सिखाने आया है? मैं तुझे चाहता नहीं, मुझसे मत चिपक, चिपकना ही चाहता है तो तू वन के वृक्षों से जाकर चिपक, मैं तो अपने मन के घर को स्वच्छ करने, सजाने में लगा हूं।
अर्थर्ववेद में यह उपाय, यह विचार बताया गया है, मन को समझाने के लिये और कहा गया है, कि विचार को बार-बार दोहराते रहें। तो कुछ लोग कहते हैं कि यह तो शास्त्रों की बातें हुई, कोई क्रियात्मक उपाय बताईये कि मन को किस प्रकार ठीक मार्ग पर ले जायें।
मन को ठीक रखने के लिए सबसे आवश्यक यह है कि इसे किसी केन्द्र पर टिका दीजिये। सूर्य की किरणें हैं न, इनमें कितने ही रंग हैं, इनमें प्रकाश भी है परन्तु ये आग नहीं लगाती। लेकिन इन्हें शीशे द्वारा एक केन्द्र पर एकत्रित कर दीजिये तो यही किरणें आग भी लगा देती हैं। मन भी सूर्य की भांति है, इसमें अनन्त रंग है, अनन्त किरणें हैं, हर ओर यह दौड़ता-फिरता है, परन्तु ध्यान के आतशी शीशे द्वारा इसे केन्द्रित कर दीजिये तो एक महान प्रकाश जाग उठता है- एक ज्योति, जिसके समक्ष प्रत्येक ज्योति तुच्छ है।
किसी शान्त-एकान्त स्थान में हाथ-मुंह धोकर बैठ जायें। बाहर की आंखे बन्द कर, मन की आंख से नाक की नोक पर ध्यान लगायें, हृदय में ओम का जाप करते रहें। मन इधर-उधर भटकने लगे तो फिर नाक की नोक पर ध्यान लायें, तत्काल तो नहीं, दो-तीन सप्ताह पश्चात् अथवा कुछ और समय बाद आपको एक भीनी-भीनी सुगन्ध आने लगेगी जैसे कोई अत्यन्त सुगन्ध वाला इत्र आपकी नाक में लगा हो, इसे दिव्य गन्ध कहते हैं। ऐसे ही कान में ध्यान एकाग्र करें, पहले घूं-घूं की आवाज सुनाई देगी, फिर ऐसा प्रतीत होगा कि गड़-गड़ करती हुई पहाड़ी नदी भागी जाती है, फिर भांति-भांति के वाद्यों की आवाजें आयेंगी। बंशी की आवाजें भी सुनाई देंगी। इस ध्वनि को अनहद नाद कहते हैं। ऐसे जिह्ना की नोक पर ध्यान स्थिर करें तो अत्यधिक आनन्ददायक रस आने लगेगा।
परन्तु ये आरम्भ की बातें हैं, इस सुगन्धि से, इन वाद्यों से आगे बढ़ो। यह सब प्रकृति है, माया है। यह वास्तविक वस्तु तो नहीं, वास्तविक वस्तु अभी दूर है। वास्तविक वस्तु तक पहुंचने के लिए योग की आठ मंजिलों को पूर्ण करना पड़ता है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठ मंजिलों से गुजर कर वास्तविक मंजिल आती है, परन्तु आज का दौर जल्दी का है, लोग कहते हैं कि इन आठ मंजिलों को पूर्ण करने में तो बहुत समय लगता है। भला इतना समय है कहां? एक सज्जन मेरे पास आये, बोले- मन को वश में करने का कोई ऐसा साधन बतायें कि अभी यकायक वश में हो जाये। मैंने कहा- मेरे पास तो कोई ऐसा साधन है नहीं, मेरे पास सस्ते का सौदा होता नहीं, महंगे में कोई टिकता नहीं और यह भी स्मरण रखो! सस्ता रोये बार-बार, महंगा रोये एक बार। फिर भी एक रास्ता आपको बताता हूं जो योग की आठ मंजिलों से सरल है, तीन बातें इसके लिये आवश्यक है- इन तीन साधनों को अपनाने से मन टिक जाता है। ये तीन साधन है- ज्ञान, प्राण और ध्यान। ज्ञान के द्वारा भागते हुये मन को समझाओ, यह मन है- भागता बहुत है। आप यहां बैठे हैं, यह कनॅाट प्लेस की दुकानों में घूम रहा है, कहीं पर्वतीय दृश्य देख रहा है, किसी दुकान पर फल खरीद रहा है। इसे ज्ञान के द्वारा समझायें कि ये सब प्रकृति के रूप हैं, इनकी ओर से हट! उस आनन्द की ओर चल जिससे महान अन्य कोई आनन्द नहीं। अपने सौन्दर्य पर मगरूर होना——–!!
सौन्दर्य का तात्पर्य केवल शरीर की सुन्दरता नहीं, धन की, सम्पत्ति की, बुद्धि की, शक्ति की, सत्ता की सुन्दरता- ये सभी सौन्दर्य के रूप ही हैं। और यह सब समाप्त होने वाला है, आज है, कल रहेगा नहीं, इस प्रकार मन को समझाना, इसे ज्ञान कहते हैं। भगवद् गीता की भाषा में इसी को वैराग्य कहा जाता है। जिस धन-सम्पत्ति को कमाने के लिए तुम पागल हुये फिरते हो, जिसके लिए अपना स्वास्थ्य बिगाड़ते हो, मन-बुद्धि और चित्त को बिगाड़ते हो, यह साथ जाने वाला है नहीं। आज तक इसे कोई साथ लेकर नहीं गया। सुना है क्या कभी! किसी ऐसे का नाम जो जाते समय अपने सोफे, अपने कोच, अपनी कुर्सियां साथ ले गया हो? जब से संसार बना, कहीं भी किसी समय भी कोई कुछ नहीं ले गया। सिकन्दर भी खाली हाथ चला गया। मरते समय उसने कहा- मेरे दोनों हाथ मृत-चैल (कफन) से बाहर रखना, ताकि लोग देखें कि इतने युद्धों के बाद, इतने रक्त-पात के पश्चात् जो कुछ मैंने प्राप्त किया वह सब यहीं रह गया है, सिकन्दर तो खाली हाथ ही जा रहा है।
श्री गुरु नानक देव एक बार प्रभु के गीत गाते, स्थान-स्थान पर घूमते लाहौर पहुंचे। वहां एक सेठ रहता था दुनीचन्द। जब भी उसके पास एक लाख रूपया एकत्र हो जाता, वह अपने घर पर एक नया झण्डा लगा देता था। ऐसे कितने ही झण्डे उसके घर पर लगे हुये थे। वह नानक देव को अपने घर पर ले गया, उनका स्वागत किया। नानक जी ने झण्डों के सम्बन्ध में पूछा तो उसने बताया कि उनका तात्पर्य क्या है? नानक देव मुस्कराये, परन्तु बोले नहीं। खाना खाकर चलने लगे तो दुनीचन्द उन्हें बाहर तक छोड़ने आया। उन्हें प्रणाम करके वह वापस जाने लगा तो नानक जी ने उसे एक सुई देकर कहा- दुनीचन्द! यह सुई संभालकर रखना। अगले जन्म में मैं तुम्हें फिर मिलूंगा, तब मेरी सुई मुझे वापस दे देना। दुनीचन्द सुई लेकर वापस आया तो घर में पत्नी से बोला- इसे संभाल कर रख दे। यह नानक देव जी का है, अगले जन्म में वापस देनी है।
पत्नी ने आश्चर्य से कहा- तुम्हारी बुद्धि को क्या हुआ? अगले जन्म में तो कोई भी अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता। दुनीचन्द ने सुई वापस ले ली, नानकदेव के पीछे भागा। दौड़ता-हाफता उनके पास जाकर बोला- महाराज जी! यह सुई अगले जन्म में मैं अपने साथ नहीं ले जा सकता। नानकदेव बोले अरे भाई! जैसे अपने लाखों रूपये ले जायेगा वैसे ही मेरी सुई भी ले जाना। दुनीचन्द ने कहा महाराज! अगले जन्म में तो यह सब-कुछ साथ जाता नहीं।
नानकदेव ने कहा- भोले आदमी! यह सब- कुछ यदि साथ जाने वाला नहीं तो इसके लिए इतनी दौड़-धूप क्यों करता है? यदि एक सुई भी साथ नहीं जा सकती तो फिर यह लाखों रूपया किस लिये एकत्र कर रहा है? तब उसकी आंखें खुली। जीवन में धन कमाना बुरी बात नहीं है, लेकिन जो तुमने लूट-पाट मचा रखी है। ऐसा नहीं होना चाहिये, निष्ठा, ईमानदारी से कमाया धन ही सही दिशा में फलीभूत होता है अन्यथा बीमारी, कष्ट, मुकदमा, बाधा में ही अधिकांश अनैतिक रूप से कमाया धन समाप्त हो जाता है। इसीलिए वेद ने धन कमाने के लिए मना नहीं किया, परन्तु इसमें लिप्त होने से मना किया है।
उपनिषदों ने मन की उपमा विद्युत से दी है परन्तु इसके साथ ही यह भी कहा है कि- विद्युत को बांधना जितना सरल है, मन को बांधना उतना सरल नहीं। बिजली को बांधकर आप तारों के द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। इससे अग्नि प्रदीप्त करते हैं, प्रकाश करते हैं, पंखे चलाते हैं, मोटरें चलाते हैं। परन्तु मन को बांधना तो इतना सरल नहीं।
एक भारतीय था, अमेरिका गया एक दिन उसे भूख लगी, विलम्ब हो गया, भोजन मिला नहीं इसलिए एक भोजनालय (रेस्तरां) चला गया। अन्दर गया, द्वार खुल गया, भोजनालय में जाकर देखा तो वहां पर मेजें लगी हैं, उन पर प्लेटें रखी हैं परन्तु मनुष्य कोई नहीं है। उसने इधर-उधर देखा, मेज खट-खटाया परन्तु कोई आया नहीं। तंग होकर वह बाहर आने लगा तो दीवार पर लिखा था- मेज पर बटन लगे हैं, चाय के लिए अमुक संख्या के बटन दबाओं, टोस्ट के लिए अमुक बटन, मक्खन के लिए अमुक बटन, इसी प्रकार अन्य वस्तुओं के नाम और बटन भी लिखे थे। वह आदमी फिर से मेज पर बैठ गया, चाय का बटन दबाया, र्घर की ध्वनि हुई और गर्म चाय का प्याला उसके समक्ष मेज पर आ गया। टोस्ट वाला बटन दबाया तो टोस्ट आ गया, मक्खन वाला बटन दबाने से मख्खन आ गया। इस प्रकार कुछ मिठाइयां मंगायी, खा-पीकर उठने लगा तो कुर्सी ने छोड़ा नहीं। तनिक जोर लगाया तो फिर घर्र की आवाज हुई। एक चिट सामने आ गई। चिट पर लिखा था, आपका बिल तैयार हो रहा है। इसका भुगतान करके जाये तभी बिल आ गया। उसने पैसे प्लेट पर रखें तो प्लेट आगे चली गई, थोड़ी देर के पश्चात् कुर्सी ने उसे छोड़ दिया और वह होटल से बाहर आ गया।
ऐसा है इस बिजली को बांधने का कमाल! इसे बांधकर इसके द्वारा कितने ही कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। मन को बांधना इतना सरल नहीं, क्योंकि मन विद्युत की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली वस्तु है, विद्युत से बहुत अधिक गतिशील है। विद्युत एक सैकण्ड में एक लाख छियासी सहस्त्र मील चलती है। सूर्य के प्रकाश को हमारे पास पहुंचने में लगभग नौ मिनट लगते हैं, परन्तु यह मन अभी यहां हैं, पलक झपकने से पूर्व सूर्य तक जा पहुंचते हैं, पल भर में सूर्य से दूर उन नक्षत्रों में पहुंच जाते हैं जो सूर्य से सहस्त्र मील दूर और लाखों गुणा बड़ा है।, पल भर में यह मन वापस भी आ जाता है। इस मन को कोई बांध ले तो समझ लो संसार को जीत लिया और यह मन बांधा जाता है बुद्धि से, ज्ञान से।
ज्ञान की ज्योति जागृत हो जाय तो मन इसके समक्ष सिर झुका कर खड़ा हो जाता है। यह मन संस्कृत का शब्द है। संस्कृत में प्रत्येक शब्द का लिंग निश्चित है। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक शब्द के सम्बन्ध में यह निर्णय कर दिया है कि वह स्त्रीलिंग है या पुलि्ंलग। संस्कृत-व्याकरण के आचार्यो ने मन को स्त्रीलिंग या पुल्लिंग में नहीं, अपितु नपुंसक लिंग में रखा है। यह पुरुष नहीं, स्त्री नहीं, दोनों से भिन्न है। यह स्त्रियों में जाने लगे तो इसे समझाओं- अरे मूर्ख, क्यों अपनी हंसी उड़वाता है? तू स्त्री है नहीं, स्त्रियों में मत जा! और यदि यह पुरुषों में जाने लगे तो इसे कहो, कैसा है तू? क्या मर्दो में जाकर अपनी हंसी करायेगा? तब यह नपुंसक जाये कहां? संस्कृत भाषा में जिस प्रकार मन नपुंसक लिंग है, उसी प्रकार ब्रह्म भी नपुंसक लिंग है। इसे कहो कि ब्रह्म के पास जाये। वह भी स्त्री-पुरुष कुछ नहीं, तू भी स्त्री-पुरुष कुछ नहीं, ब्रह्म का तात्पर्य ज्ञान से और ज्ञान को ही पुरुष या स्त्री की बपौती नहीं वह तो सभी में व्याप्त होने की क्रिया का भाव है। इस प्रकार ज्ञान के द्वारा, वैराग्य के द्वारा मन को समझाया जा सकता है। मन का साथी केवल ब्रह्म ही है, यह मन वहीं स्थायी रूप से टिक सकता है, बाकी जगह यह केवल भटकेगा ही।
दूसरा साधन है प्राणायाम, हम जो श्वास लेते हैं, जो हमारे शरीर से बाहर आता, फिर अन्दर जाता है, फिर बाहर आता है, इसका मन के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है। जहां प्राण है वहां मन पहुंच जाता है। दोनो के सम्बन्ध का कभी परीक्षण करना हो तो कोई वजनी वस्तु, कोई संदूक जिसमें पुस्तके रखी हों, लोहे पीतल के बहुत से बर्तन रखें हों, उसे उठाने का प्रयत्न करो। जब आप इसे उठाने में पूरी शक्ति से संलग्न हों तो श्वास रूक जायेगा, क्योंकि आपका मन उस वस्तु को उठाने में लग गया है, उसकी सारी शक्ति उधर ही चली गई है। ऐसे ही कभी मन बहुत चंचल हो, क्रोध में हो, उसमे ईर्ष्या की अग्नि जल उठी हो, शत्रुता की भावना जागृत हो गई हो तो आप देखेंगे कि स्वास की गति भी तीव्र हो गई है। दोनों का परस्पर गहरा सम्बन्ध है। हमारे पूर्वजों ने देखा कि मन चंचल और अधिक सूक्ष्म है। इसकी अपेक्षा प्राण कुछ कम सूक्ष्म और चंचल है। इसलिए उन्होंने प्राण के द्वारा मन को बांधने की विधि निकाली जिसे प्राणायाम कहते हैं। यदि कोई मनुष्य साढ़े पांच मिनट तक प्राण को अपने पेट में भरकर वहीं रोक सके तो उसका मन मर जाता है, लय हो जाता है। इसे योगी भाषा में आन्तरिक कुम्भक कहते हैं।
कुछ लोगों ने यह भ्रामक विचार फैला दिया कि प्राणायाम तो केवल साधु-महात्माओं, वह में बैठें सन्यासियों और योगियों के लिए है। यह बात बिल्कुल गलत है। प्राणायाम से जिस प्रकार साधु, महात्मा, संन्यासी, योगी प्राणायाम से मन की चंचलता को नियंत्रित करते हैं, ठीक उसी तरह से सांसारिक मनुष्य भी निरन्तर प्रयास से प्राणायाम को साधते हुये आन्तरिक कुम्भक की चेतना से युक्त हो सकते हैं। परन्तु जैसे बताया कि मन की गति विद्युत और सूर्य से भी तीव्र है और यही मन केवल और केवल अपनी बुद्धि को तीव्रतम मानने लग जाता है।
एक बार बुद्धि और भाग्य में झगडा़ हुआ। बुद्धि ने कहा, मेरी शक्ति अधिक है। मैं जिसे चाहूँ सुखी कर दूँ। मेरे बिना कोई बड़ा नही हो सकता। भाग्य ने कहा, मेरी शक्ति अधिक है। मैं तेरे बिना काम कर सकता हूँ। तू मेरे बिना काम नही कर सकती, इस तरह दोनो ने अपनी अपनी तरफ की दलीलें जोर सोर से दीं। जब झगड़ा दलीलों से समाप्त नही हुआ तो बुद्धि ने भाग्य से कहा कि यदि तुम उस गड़रिये को जो जंगल में भेडे़ चरा रहा है, मेरी सहायता के बिना राजा बना दो तो समझूँ कि तुम बड़े हो। यह सुनकर भाग्य ने उसके राजा बनाने का प्रयत्न करना आरम्भ कर दिया। उसने एक बहुत कीमती खड़ाऊँ की जोड़ी, जिसमें लाखों रूपए के नग लगे थे, लाकर गड़रिये के सामने रख दी। गड़रिया उनको पहनकर चलने फिरने लगा। फिर भाग्य ने एक व्यापारी को वहाँ पहुँचा दिया। व्यापारी उन खड़ाउँओं को देखकर विस्मित हो गया। उसने गड़रिये से कहा। तुम ये खडाऊँ बेच दो। गड़रिये ने कहा, ले लीजिये। व्यापारी ने उनका मूल्य पूछा। गडरिये ने कहा, क्या बतलाऊँ मुझे रोटी खाने रोज गाँव जाना पड़ता हैं। यदि तुम मुझे दो मन भुने चने दे दो तो मैं यहाँ बैठ-बैठे चने चबाकर भेड़ो का दूध पी लिया करूगाँ। इस भांति गांव में जाने के कष्ट से बच जाऊँगा और आपको भी खडाऊ मिल जायेगी। सारांश यह कि उस गडरिये ने वो अनमोल खडाऊँ, जिनमें एक-एक हीरा करोडों का था, दो मन चना के बदले में बेच डालीं। यह देखकर भाग्य ने और प्रयत्न किया। अब उस व्यापारी ने वे खडाऊँ राजा को भेंट कर दी, तो राजा देखकर हैरान हो गया। उसने व्यापारी से पूछा तुमने ये खडाऊँ कहां से पाया? व्यापारी ने कहा महाराज एक राजा मेरा मित्र हैं उसने ये मुझे दी।
तब राजा ने पूछा, क्या उस राजा के पास ऐसी और खडाऊँ हैं? व्यापारी ने कहां हाँ हैं। सुनकर राजा ने कहा, अच्छा जाओं, मेरी लड़की की सगाई उसके लड़के से करा दो। व्यापारी जब भाग्यदेव की प्रेरणा से सब बातें कह चुका, तब राजा की अंतिम बात सुनकर बहुत घबराया और सोचने लगा कि खडाऊँ तो उसने गडरिये से ली हैं, न कोई राजा हैं, न कोई राजा का लड़का हैं। किंतु इन झूठी बातों को कह चुकने के कारण व्यापारी ने सोचा कि यदि मैं इस कथन को अस्वीकार करता हूँ तो न मालूम राजा मुझे दंड़ दें। यह सोचकर उसने तय कर लिया कि जैसे भी हो, इस राजा के नगर से निकल जाना चाहिए। अतः उसने राजा से कहा, ठीक हैं, तो अब मैं आपकी लड़की की सगाई पक्की करने जाता हूँ’’ यह कहकर वह जिस ओर से आया था उसी ओर को चल दिया और जब उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह गडरिये से मिला था, तो क्या देखता हैं कि गडरिया उससे भी मूल्यवान खडाऊँ पहने हैं।
व्यापारी यह देखकर हैरान हो गया और उसने सोचा कि हो ना हो, यह सिद्ध महात्मा है। तभी तो ऐसी वस्तुएँ उसे स्वयं मिल जाती हैं। उसने निश्चय किया कि यहाँ रहकर इसका पता लगाना चाहिए। सोच कर उसने वही डेरा लगा दिया और अपना बहुत सा ताँबा लदा सब समान एक ओर पेड़ के नीचे रख दिया। जब दोपहर हुई तो गडरिया धूप से व्याकुल हो उस पेड़ के नीचे आया, जहाँ ताँबे के ढ़ेर पड़े हुए थे। वह ढेर के सहारे सिर रख के सो गया। भाग्य ने उस ताँबे के ढेर को सोना कर दिया। जब व्यापारी ने देखा तो सोचा कि जिस व्यक्ति के छू जाने से ताँबा सोना हो जाता हैं, उसको राजा बनाना कोई बड़ी बात नही। यह सोचकर उस व्यापारी ने वहां जमीन खरीदी और किला बनवाना आरम्भ कर दिया। सेना भर्ती की जाने लगी जब सब सामान तैयार हो गया तो व्यापारी गड़रिये को पकडकर किले में ले गया, उसको अच्छे-अच्छे मूल्यवान वस्त्र पहनवाये, मंत्री, सेवक इत्यादि कर्मचारी नौकर रखें और फिर उस लडकी वाले राजा को पत्र लिखा कि हमारे राजा जी ने सगाई स्वीकार कर ली है। अतः जो तिथि विवाह की निश्चय करो, उसी दिन बारात आ जाएगी। पत्रोत्तर में राजा ने तिथि लिख दी। इस पर विवाह का प्रबंध होने लगा।
एक दिन जब राज सभा हो रही थी, सब मंत्री बैठे हुये थे और गड़रिया राज सिंहासन पर तकिया लगाए राजा बना बैठ था, तब गडरिये ने व्यापारी से कहा- भाई देखो, तुम मुझे छोड़ दो, मेरी भेडें किसी खेत में न चली जाएँ, कही मैं मारा न जाऊँ। यह सुनकर सब हंस पड़े। व्यापारी भी बड़ा हैरान हुआ। उसने सोचा की इसका क्या प्रबंध किया जाए? कही इसने राजा के सामने भी ऐसा ही कह दिया तो मैं तो उसी समय मारा जाऊँगा उसने गडरिये से कहा, यदि तुम फिर कभी ऐसी बात कहोगे तो मैं तुम्हे उसी समय तलवार से मार डालूँगा। जो कुछ कहना हो, चुपके से मेरे कान में कहा करों। कुछ समय बाद विवाह की तिथि आ गई। व्यापारी बारात लेकर चल दिया। जब लड़की वाले राजा के नगर निकट आ गया और उधर से मंत्री, बहुत से नौकर चाकर सेना अस्त्र-शस्त्र हाथी-घोड़े इत्यादि राजा की अगवानी के लिए आए तो गड़रिये ने विचार किया कि कदाचित् मेरी भेड़े इनके खेत में चली गई हैं और ये मेरे कपड़े-लत्ते छीनने के लिए आ रहें हैं। चूँकि यह बात कान में कही गई थी, अतः उस व्यापारी के सिवा और किसी को मालूम नही हुई थी, लोगो ने व्यापारी से पूछा कुँवर जी क्या आज्ञा दे रहें हैं? व्यापारी ने कहा, कुँवर जी कहते हैं कि जितने आदमी स्वागत में आये हैं, प्रत्येक को पाँच-पाँच लाख रूपया पुरस्कार में दिया जाए। फिर क्या था, बात की बात में यह फैल गया कि किसी बड़े भारी सम्राट के कुँवर की बारात आई हैं, जो एक-एक आदमी को पाँच-पाँच लाख रूपया पुरस्कार में देता हैं। नगर निवासी ही नही, लड़की वाला राजा भी घबराया कि मैंने बड़े भारी राजा से नाता जोड़ने का यत्न किया हैं। अब ईश्वर ही लाज रखें। अंततः उसी दिन राजा की कन्या का विवाह उस गडरिये से हो गया। विवाह के पश्चात् जब राजकुमारी गडरिये के पास आई, तब गड़रिये ने गहनो की आवाज सुनकर सोचा, हो न हो, कोई चुडैल मुझे मारने के लिए आ रही है। यह सोचकर वह झटपट एक दरवाजे के ओट में छिप गया राजकुमारी ने जब देखा कि कुँवर वहाँ नही हैं तो वह दूसरे कमरे में चली गई। कन्या के जाते ही गड़रिये को विचार आया कि अभी एक चुडैल से तो मुश्किल से बचा हूँ, न मालूम यहाँ कितनी और चुडैल आयें, अतः यहाँ से भाग चलना चाहिए। वह यह सोच ही रहा था कि उसे एक जीना दिखाई पड़ा। वह झट ऊपर चढ़ गया और वहाँ एक छेद में हाथ डालकर कूदकर भागने का विचार करने लगा।
उसी समय बुद्धि ने भाग्य से कहा, देख तेरे बनाने से भी यह राजा न बना। अब यह जल्दी ही गिरकर मृत्यु के मुख में जाना चाहता है। इस उदाहरण से आपको भली-भाँति विदित हो गया होगा कि यदि संसार की समस्त उपलब्धियाँ भी एकत्रित हो, तो भी जब तक मनुष्य को बुद्धि न आए, वह अपने उद्देश्य को पूर्णतया सिद्ध नहीं कर सकता।
इस प्रकार राग, द्वेष, ईर्ष्या, परापकार- चिकीर्षा, असूया और आमर्ष, ये सभी स्थितियां मन, बुद्धि, चित्त और हृदय से उत्पन्न होती है और जब तक उक्त विकारों का निरन्तर निवृत्त का भाव नहीं बनेगा, तब तक जीवन में किसी भी स्वरूप में उच्चता, श्रेष्ठता की प्राप्ति संभव नहीं है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,