हरतालिका तृतीया दिवस पर प्रातः काल स्नानादि करके उपवास रखने का संकल्प लिया जाता है। केले के पत्तों और स्तम्भों से मण्ड़प बनाकर उसको फूलों तथा लाल वस्त्रों से सजाते हैं। पूजा की विविध सामग्री मण्ड़प के पास रख कर शिव-पार्वती, गणेश की मिट्टी की प्रतिमा स्थापित कर विधि-विधान सहित पूजा सम्पन्न की जाती है और माँ पार्वती से अखण्ड़ सौभाग्य की याचना की जाती है। साथ ही व्रत की कथा सुनी जाती है और ब्राह्मणों, निर्धनों को यथा शक्ति दान किया जाता है। किसी-किसी स्थान पर इस दिन निर्जल उपवास रखकर स्त्रियां रात्रि में भोजन करती हैं और कहीं-कहीं पूजन के बाद केवल जल से पारण करके अगले दिन प्रातः काल पूजन सम्पन्न कर भोजन किया जाता है।
भविष्योत्तर पुराण में शिव-पार्वती के संवाद में इस का कथा का वर्णन है। दक्ष यज्ञ के समय शिव की पत्नी सती ने यज्ञ कुण्ड में कूद कर प्राण त्याग दिये थे, जिसके पश्चात् हिमालय की पुत्री के रूप में उनका अगला जन्म हुआ। इस जन्म में भी वे बाल्यकाल से ही भगवान ही आराधना, उपासना, स्तुति करती हैं, धीरे-धीरे जब वे बाल्यावस्था से युवास्था अर्थात् विवाह योग्य हो गई तब उनके माता-पिता को पार्वती के विवाह का विचार आया।
एक दिवस देवर्षि नारद हिमालय के यहां पहुँच और उन्होंने रूपवती-गुणवती पार्वती को देखा। हिमालय ने उनसे अपनी पुत्री के उपयुक्त वर पूछा तब नारद मुनि ने भगवान विष्णु को ही पार्वती के लिये उपयुक्त वर बताया और कहा कि वे स्वयं ही विष्णु से इस विवाह की सहमति ले लेंगे। पार्वती यह सारी बात जानकर घबरा गई, क्योंकि उन्होंने तो शिव को ही अपने मन से पति रूप में वरण कर लिया था। पार्वती दुःखी रहने लगी, यह देख उनकी एक सहेली ने दुःख का कारण पूछा, तब उन्होंने बताया की मैने सच्चे मन से भगवान शिव का वरण कर लिया है, किंतु मेरे पिता मेरा विवाह विष्णु जी के साथ करना चाहते हैं। मैं विचित्र धर्म संकट में हूं, अब मेरे पास प्राण त्याग देने के सिवा कोई और विकल्प नहीं।
पार्वती की सखी बहुत समझदार थी। उसने कहा-प्राण त्याग करने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय में धैर्य और संयम से निर्णय करना चाहिये। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में हैं कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवन पर्यन्त उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठता के समक्ष तो भगवान भी असहाय हैं। मैं तुम्हें तपोवन में ले चलती हूं जहां उच्चकोटि की साधनायें सम्पन्न की जाती हैं। मुझे पूर्ण विश्वास हैं कि भगवान शिव अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
पार्वती की सखी उन्हें तपोवन ले गई। वहां एक गुफा में पार्वती ने अन्न-जल का त्याग कर, रेत का शिवलिंग निर्मित किया और तपस्या करने लगीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया दिवस पर पार्वती जी ने निर्जला व्रत सम्पन्न कर विधि- विधान से भगवान शिव का पूजन किया, जिसके फल- स्वरूप भगवान शिव ने सदेह प्रकट होकर पार्वती से वर मांगने के लिये कहा।
पार्वती जी ने भगवान शिव से पति रूप में प्राप्त करने का वर मांगा। भगवान शंकर ने तथास्तु कहा और कैलाश पर्वत चले गए। अगले दिन पार्वती जी ने पूजा सामग्री नदी में प्रवाहित कर दी और अपनी सखी सहित व्रत का पारण किया। उसी समय गिरिराज हिमालय अपने बंधु-बांधव के साथ पार्वती को ढूंढते हुये वहाँ पहुँचे। वे अपनी पुत्री की दशा देख कर अत्यंत दुःखी हुये और इस तरह कठोर तप का कारण पूछा, तब पार्वती जी ने कहा- पिता जी मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी तपस्या का उद्देश्य केवल महादेव जी को पति रूप में प्राप्त करना था। आज मेरी तपस्या सफल हो चुकी है।
चूंकि आप मेरा विवाह विष्णु जी से करने का मानस बना रहे थे, इसलिए मैं अपने आराध्य स्वामी की खोज में घर से चली आयी थी। आप मुझे वचन दें कि आप मेरा विवाह महादेव जी के साथ ही करेंगे। पार्वती जी की इच्छा पूर्ण करने का वचन देकर हिमालय अपनी पुत्री को घर ले आये और शुभ नक्षत्र-तिथि में पूर्ण विधि-विधान के साथ पार्वती जी का विवाह भगवान शिव से कर दिया।
भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को माता पार्वती ने भगवान शिव की विधि-विधान स्वरूप पूजा के साथ आराधना कर साधना सम्पन्न की उसी के परिणाम स्वरूप उनका विवाह भगवान शिव से संभव हो सका। इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को भगवान शिव मनोवांछित फल स्वरूप अखण्ड सुहाग-सौभाग्य प्रदान करते हैं। इस व्रत को हरतालिका इसलिये कहा जाता है क्योंकि पार्वती जी की सखी उन्हें पिता और प्रदेश से वन में ले गई थी।
हरत अर्थात हरण करना और आलिका अर्थात सखी। कई स्थानों पर इसे केवड़ा तीज भी कहा जाता है अर्थात् गृहस्थ स्त्री की सांसारिक जीवन की न्यूनता, मलिनता, दुःख, विषाद, स्त्री-पुरुषमय भेद- भाव पूर्ण स्थितियां समाप्त हों और सौभाग्य सुखमय चेतना का विस्तार हो सके। साथ ही सम्पूर्ण परिवार सुखद और केवड़ा स्वरूप में सुगन्ध व आनन्द युक्त बन सके।
कथानुसार इस दिन पूजा करते समय पार्वती जी ने विशेषतः केवडे़ का फूल शिवलिंग पर चढ़ाती थी। साधना, पूजा, दीक्षा से ही देव शक्तियों की चैतन्यता से जीवन में अनुकूल व सुखद स्थितियों का विस्तार होता है अर्थात् सभी सुक्रियायें करने से ही श्रेष्ठता आती है।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,