श्रीकृष्ण सारथी नहीं थे, इस भूल में मत रहना। सारथी रूप में सद्गुरु थे, जो अपने शिष्य को पूर्णता तक पहुंचाने के लिये सभी तरह के उपाय करते रहे और अन्ततः उसे वहां प्रतिष्ठित किया।
श्रीकृष्ण-अर्जुन का सम्बन्ध गुरु का शिष्य के प्रति स्नेह, प्रेम, समर्पण का जीवन्त उदाहरण है। सद्गुरु अपने शिष्य को विजयी बनाने के लिये कितने उपाय करते हैं, यह गीता का अध्ययन कर उन भावों को आत्मसात कर जाना जा सकता है।
भगवान श्री कृष्ण लौकिक- अलौकिक दोनों स्वरूपों में अर्जुन के लिये संघर्ष करते रहें। लौकिक रूप में शांतिदूत, मित्र, सखा, सम्बन्धी और सारथी तक की यात्रा उन्होंने की, पग -पग पर अर्जुन का मार्गदर्शन करते रहे, उसे समझाते रहे। अर्जुन के चित्त पर पड़ी मोह की मलिनता दूर करने के लिये अलौकिक रूप में ना चाहते हुये भी विराट स्वरूप में दर्शन दिये। महाभारत के अंत में संजय ने धृतराष्ट्र से कहा कि- महाराज! इस युद्ध में कृष्ण ही लड़े, कृष्ण ही जीते, कृष्ण ही हारे और कृष्ण ही आहत हुये।
सद्गुरु अन्तिम छोर तक शिष्य की रक्षा करते हैं, उसे पूर्णता प्रदान करते हैं। परन्तु वह केवल और केवल अर्जुन के लिये ही ऐसा करते हैं और अर्जुन का तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष से नहीं है। अर्जुन केवल एक प्रतीक है और जो भी अर्जुन बन जाता है, सद्गुरु उस पर अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिये तत्पर रहते हैं।
अर्जुन का तात्पर्य अनुराग से है, अर्जुन का अर्थ है समर्पण, श्रद्धा, विश्वास है और जब कोई अर्जुन जीवन के महासंघर्ष में अपना गांडीव रख देता है, कायरों की तरह पीछे भागना चाहता है, मोह-पाश में बंधकर उचित-अनुचित को अपने ज्ञान, बुद्धि से परखना चाहता है। सम्बन्धी, मित्र, सखा के बीच संतुलन बनाने में असफल होता है, अपनी पंच इन्द्रियों के वशीभूत केवल सांसारिक सम्बन्धों को ही पूर्णता का पर्याय समझने लगता है, अपने कर्तव्य पालन से विमुख होने का विचार करने लगता है, तब सद्गुरु उसे कर्मयोग का सिद्धांत समझाते हैं। उसे गीता के मूल मंतव्य का ज्ञान देते हैं। लेकिन इस हेतु अर्जुन के स्तर को प्राप्त करना होता है। पूरे महाभारत में केवल दो व्यक्ति ही ऐसे थे जो उस स्तर पर थे, जिन्हें योगेश्वर श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का दर्शन प्राप्त हुआ, संजय और अर्जुन और यदि सद्गुरु अपनी विराटता के दर्शन किसी सामान्य व्यक्ति को दें भी दे तो भी वह उनकी महत्ता और विराटता समझ नहीं सकेगा। धृतराष्ट्र की सभा में जब श्रीकृष्ण पांडव के शांतिदूत बनकर गये तो उन्हें वहां अपमानित किया गया और दुर्योधन उन्हें पक्षपाती शांतिदूत कहकर बन्दी बनाने का प्रयास करने लगा, उस समय भगवान कृष्ण ने दम्भी, अहंकारी दुर्योधन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराये। वह भयभीत अवश्य हुआ परन्तु उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सका। यही कारण है कि उचित पात्र शिष्य को ही सद्गुरु अपनी विराटता का दर्शन कराते हैं, जिससे उनकी क्रियायें सार्थक हो सकें।
जब शिष्य उस स्तर की प्राप्ति कर लेता है, जब उसमें गूढ़ता समझने की क्षमता विकसित हो जाती है और वह आज्ञापालक की चेतना से आप्लावित हो जाता है। तब सद्गुरु उसे अपनी विराटता का ज्ञान देते हैं। अर्जुन की क्रियायें एक आज्ञापालक शिष्य की ही भांति हैं, सम्पूर्ण महाभारत में वह श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में क्रियायें करता रहा, वह शंका ग्रस्त भी होता था। उचित-अनुचित में उलझा भी रहा, मनुष्य की बुद्धि होती ही ऐसी है, वह हर समय अपने विचार, चिंतन, तर्क से संघर्ष कर रहा होता है। अर्जुन के साथ भी ये सब स्थितियां थी, परन्तु वह प्रश्न का उत्तर श्रीकृष्ण द्वारा प्राप्त होने पर संतुष्ट भी हो जाता था और उनके द्वारा निर्देशित क्रियाओं में निरन्तर अग्रसर रहता था।
शिष्य को भी सद्गुरु द्वारा बताये उपाय पूरी श्रद्धा, विश्वास और अनुरागी बनकर करना चाहिये, उनके द्वारा बताया मार्ग कभी भी अहितकर हो ही नहीं सकता, क्षणिक सांसारिक मोह-माया में यह भान हो सकता है कि इससे क्या लाभ परन्तु कल्याण उसी मार्ग पर होगा जो उनके द्वारा निर्देशित है। श्रीकृष्ण-अर्जुन को आप सद्गुरु और शिष्य के रूप मे देखें तो आपको एहसास होगा कि जगद्गुरु श्रीकृष्ण ने कितने त्याग, परिश्रम, धैर्य, संयम और बुद्धिमता के साथ अर्जुन का मार्ग प्रशस्त करते रहे, कितनी कठिनाईयों-उलझनों के बीच कृष्ण अर्जुन के लिये जूझते रहे। महाभारत के ये दोनों पात्र गुरु-शिष्य के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के प्रतीक हैं। सद्गुरु सखा, मित्र भी होता है और कृष्ण-अर्जुन के मध्य जो सखा, मित्र का भाव दर्शाया गया है, इसी भावना से प्रेरित है। मूलतः उनके मध्य सद्गुरु-शिष्य का भाव ही विद्यमान था।
इसलिये जब कोई शिष्य अर्जुन रूपी अनुराग को प्राप्त कर लेता है, तो स्वतः ही सद्गुरु उसके हृदय में स्थापित होकर उसे मार्गदर्शन देते हैं और उसके हृदय स्थल में ही उनकी विराटता शनैः शनैः समाहित होने लगती है। शिष्य उस विराट आभा के माध्यम से अपने जीवन की अनेक विषमताओं से निजात पाता हुआ निरन्तर उच्चता के पथ को आत्मसात करता है।
ऐसे ही शिष्यता की उच्चतम भावों से आप युक्त हो सकें इसी हेतु श्रीकृष्णमय गुरु की शरण में जायें और अपने आपको पांडव रूपी अर्जुन निर्मित कर अपने जीवन के महासंग्राम में पूर्ण विजयश्री की प्राप्ति करें——-यही आशीर्वाद है—————— ——————कल्याण हो—–!!
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