मनुष्य को इसकी गंभीरता समझनी चाहिए और एक पारम्परिक विधान के रूप में नहीं बल्कि साधनात्मक ढंग से पितृ कर्म के कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। साधनात्मक ढंग से इसलिए करना महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे पितर कब से अतृप्त हैं या हमारे कुल में ऐसा कौन सा मृत प्राणी है जो अभी तक प्रेत योनि में भटक रहा है, इसका हमें कोई संज्ञान नहीं है। पितृ ऋण ही कुल ऋण की संज्ञा है अर्थात् आप उस कुल परम्परा से जुड़े हो यानि आपके कुल में जितने भी मृत प्राणी हुए हैं, उन सभी का योगदान रहा है, आपके जीवन में तब आपको यह मानव देह मिली है।
हमारे पितृ देव भी हो सकते हैं और प्रेत भी। यदि उनकी संतुष्टि का कर्म पूर्ण कर लिया जाए, तो वही शुभाशीष की वर्षा करते हैं और यदि वे असंतुष्ट हुए, तो रोग, कष्ट, बाधा, पीड़ा, समस्या आदि रूप में सामने आते हैं। यह हमारी क्रियाओं पर निर्भर है कि हम उन्हें किस रूप में अनुभव करना चाहते हैं। साथ ही अकाल मृत्यु प्राप्त व्यक्ति निश्चित रूप से प्रेत योनि में जाता है, इसमें कोई संशय नहीं, ऐसा हो सकता है कि उसके कर्म बहुत अच्छे रहें हों तो समय अवधि कम हो जाए। प्रेत योनि में गया व्यक्ति एक समय के बाद यदि वह आगे के कर्मों में प्रविष्ट ना हो पाया हो तो, सर्वाधिक कष्ट देता है और यह स्थिति अधिक भयावाह तब हो जाती है, जब उसकी अनेक इच्छाएं अधूरी रहीं हों। कहा गया है कि-
अन्त समय में जैसे विचार एवं चिन्तन होते हैं, उसी के अनुरूप व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। जब व्यक्ति विभिन्न इच्छाओं के साथ मरता है, तो कुछ देर तो उसे विश्वास ही नहीं होता, कि वह मर गया उसकी देह उसके समक्ष होती है और वह अचम्भित सा देखता रहता है, क्योंकि उसकी कई अपूर्ण इच्छायें होती हैं, जिनकी पूर्ति के लिये उसे भौतिक शरीर की आवश्यकता होती है, इसलिये वह अपनी देह के आसपास ही मंडराता रहता है और जब देह जला दी जाती है, तो हताश हो जाता है और इच्छाओं की पूर्ति हेतु भटकता रहता है।
आकस्मिक मृत्यु प्राप्त व्यक्ति की आत्मायें अत्यधिक क्षुधा पूर्ण होती हैं, क्योंकि कालखण्ड की विवशता में उनकी आकस्मिक मृत्यु तो हो जाती है, परंतु वो भटकती रहती हैं, काल बाध्यता के कारण उनका पुर्नजन्म नहीं हो पाता है, जिसके कारण उन्हें कई वर्षों तक प्रेत-योनि की पीड़ा सहनी पड़ती है। ऐसे में ये अतृप्त आत्मा मुक्ति हेतु अपने परिवार जनों की ओर आशातीत होती हैं, जिनकी पूर्ति ना होने पर उनके कोप का भी प्रभाव सहन करना पड़ता है। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने भौतिक जीवन में परिवार के प्रति कर्तव्य वहन करना पड़ता है, उसी प्रकार यह भी है कि वह अपने पितरों के मुक्ति हेतु विशेष साधनायें सम्पन्न करें। जिससे उनके पितर अपने आगे के क्रमों में प्रवेश कर सके। साधनात्मक क्रियायें ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। कर्तव्य इतिश्री हेतु ब्राह्माणों को भोजन, दान करने से पूर्णतः अनुकूलता नहीं मिलती।
सारभूत रूप में यही बताने का प्रयास है कि प्रत्येक साधक-साधिका अपने पितरों के प्रति, अकाल मृत्यु प्राप्त अपने स्वजनों के प्रति सम्मान का भाव प्रेषित करें, उनकी संतुष्टि के लिए और आगे जीवन के कर्मों में प्रवेश कर सकें, इस हेतु विशिष्ट साधनात्मक क्रियाओं को सम्पन्न करें, इससे वे स्वयं के साथ ही साथ आने वाली पीढि़यों के लिए भी अनुकूल वातावरण का निर्माण कर सकेंगे। परन्तु आप साधना द्वारा यदि उनके पुर्नजन्म में सहायक बनते हैं, तो अपनी इच्छायें पूरी करने के लिये उन्हें देह मिल जायेगी, जिससे वह नये संस्कारों के अनुसार जीवन जीने लगेगा और आप भी उनके कुप्रभावों से मुक्त हो जायेंगे। पितृ तर्पण साधना सम्पन्न कर साधक विभिन्न लाभों से आपूरित होते हैं-
आश्विन माह की प्रतिपदा से अमावस्या तक किसी भी दिवस पर इस साधना को सम्पन्न कर सकते हैं अथवा किसी महीने की जिस तिथि को माता-पिता या जिस किसी आत्मीय की मृत्यु गयी हो, उस तिथि पर यह साधना सम्पन्न कर सकते हैं।
साधना के दिन प्रातः शुद्ध पवित्र होकर भोजन बनायें और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें, उनसे यह प्रार्थना करें कि आप हमें अपना अभीष्ट आशीर्वाद् प्रदान कर जीवन के महाभारत में हमारे सहायक बने, आपकी ही कृपा से हम पृथ्वी पर जन्म लेकर मानव जीवन के कर्तव्यों का निर्वाह करने योग्य बन पाये, इसके लिये हम आपके प्रति विशेष रूप से कृतज्ञ हैं। भोजन बना लेने के बाद हाथ में जल लेकर संकल्प करे-
ऊँ विष्णु र्विष्णु र्विष्णु श्री मद्भगवते महा
पुरूषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणः
द्वितीये परार्धे श्री श्वेतवाराह कल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे
अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भारतवर्षे
जम्बूद्वीपे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मावर्तैकदेशे
श्रीमन्नृपविक्रमराज्यातीत संवत्सरे संवत द्विसहड्डाधिक
2076 संवत्सरे अमुक (अपना नाम) आश्विन मासे
कृष्ण पक्षे अमुक (दिन) वासरे अमुक तिथौ एवं
ग्रहगुणविशेषण विशिष्टायां शुभपुण्य तिथौ
ममाऽत्मनः श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थ अमुक
गोत्रणा (गोत्र) मस्मन्मातामह प्रमातामह वृद्ध
प्रमातामहानां सपत्नीकानां वसुरुद्रादित्य स्वरूपाणां,
जन्मजन्मान्तरे क्षुधा तृषादिदोष परिहारार्थ पितृलोके
अक्षय सुख स्वर्लोके सद्गति प्राप्त्यर्थ तद्दिननिमित्तं
पूजां करिष्ये।
इसके बाद भगवान विष्णु को पका हुआ भोजन और तुलसी के पत्ते एक थाली में रख भोग लगायें।
ऊँ नाभ्याऽआसीदन्तरिक्ष (गूं) शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पदभ्याम्भूमिर्द्दिशः श्रो़त्रत्तथा लोकां। अकल्पयन् ।।
पंच-ग्रास पत्तल में रख कर मन्त्र बोलते हुये प्रत्येक ग्रास पर जल चढ़ावें-
गौ ग्रास समर्पण
श्वान ग्रास समर्पण
काग ग्रास
कीट ग्रास
अतिथि ग्रास
इसके बाद सर्प ग्रास निम्न मंत्र से दें-
नागबली सर्पेभ्यो नमः
ऊँ नमोऽस्तु सर्प्पेस्यो ये के च पृथिवीमनु ।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्प्पेभ्यो नमः ।।
हाथ में जल लेकर निम्न मंत्र का उच्चारण कर जल को भूमि पर छोड़े, अमुक शब्द के स्थान पर, जिसके प्रति श्राद्ध व्यक्त करनी है उनका नाम लें-
इहाद्य संकल्पित तिथौ मम अमुक शर्मन् पितृणां
तृप्त्यर्थं ब्राह्मणा। अद्य कृतसंकल्प सिद्धिरस्तु।
इसके बाद हाथ में जल लेकर ब्रह्मार्पण करें।
ऊँ ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्मै व तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।
ऊँ तत्सत् बह्मार्पणमस्तु।
जल भूमि पर छोड़ दें।
तीन ग्रास भूमि पर रख दें, ग्रास के दक्षिण ओर एक पात्र में पितृदोष निवारण यंत्र व अकाल मृत्यु शांति महाकाल गुटिका स्थापित कर अष्टगंध से तिलक करें, धूप, दीप प्रज्ज्वलित करें, यदि माता-पिता का चित्र हो तो उसे सामने रख दक्षिणा अर्पित करें, पश्चात् ग्रास पर जल अर्पित करते हुये मंत्र उच्चारण करें-
ऊँ भूपतये नमः स्वाहा। ऊँ भुवनपतये नमः स्वाहा।
ऊँ भूतानांपतये नमः स्वाहा।
फिर जल लेकर बायें हाथ से आंखों को स्पर्श करें, पश्चात् हाथ में जल लेकर ग्रास व सभी साधना सामग्री के चारों ओर निम्न मन्त्र पढ़ते हुये जल प्रदक्षिणा दें-
अन्नं ब्रह्म रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वरः।
एवं ध्यात्वा द्विजो भुक्ते सोऽन्नदोषैर्न लिप्यते।।
अन्तश्चरति भूतेषु गुहायां विश्भतो मुखः।
त्वं ब्रह्म त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमोघड्ढारस्त्वं विष्णोः परमं पदम्।।
पश्चात् निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप ऋण मुक्ति माला से करें-
जप पश्चात् मन्त्र के साथ पांच छोटे-छोटे ग्रास स्वयं ग्रहण करें-
ऊँ प्राणाय स्वाहा। ऊँ अपानाय स्वाहा। ऊँ व्यानाय स्वाहा।
ऊँ समानाय स्वाहा। ऊँ उदानाय स्वाहा ।
साधना पूर्णता पर सभी सामग्री किसी पवित्र नदी में प्रवाहित कर दें।
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