जीवन की इस लम्बी, अनुभव प्रदायी यात्रा में हर किसी की अपनी आकांक्षाएं एवं इच्छाएं होती हैं——हर कोई कुछ विशेष करना चाहता, कुछ विशेष बनना चाहता है, कुछ विशेष प्राप्त करना चाहता है—-!
पर क्या नदी की ही भांति उनमें दृढ़ता है, नदी की ही भांति उनमें अटूट विश्वास, श्रद्धा और खुद को मिटाने का जुनून है—–अगर नहीं, तो फिर किस बलबूते पर कुछ प्राप्त करना चाहते हो, क्योंकि जो कुछ खोने को तैयार नहीं, वह प्राप्त ही क्या कर सकेगा, जो विसर्जित होने की क्रिया से अनभिज्ञ है, वह अपने अस्तित्व को बचा भी कैसे सकेगा?
मिटना तो एक दिन है ही, जाना तो एक दिन है ही, फिर चाहे तुम कितना ही अपने ऊपर पहरा बिठा दो, अपने आप को कमरे में बंद कर लो——पर एक दिन तुम समाप्त होगे जरूर– —यह सुनिश्चित है——और जब ऐसा होता है तो फिर पछताने के सिवा जीवन में और कुछ नहीं रह जाता।
तो तुम किस अहं में अपने आपको बचाते फिर रहे हो, क्यों अपने आपको धोखा दे रहे हो—–क्या सोचते हो, कि कभी मिटोगे नहीं? यह मात्र तुम्हारा भ्रम है, मिटना तो तुम्हें है ही, आज नहीं तो कल—–!
और स्वेच्छा से आज अपने आपको मिटा दोगे, तो उसी क्षण तुम्हारा नया जन्म होगा, तुम्हारा नया अस्तित्व उभर कर सामने आयेगा, तुम दिव्य तत्व को प्राप्त कर सकोगे और यही बात जीसस कहते हैं-
unless a man is born again, he cannot see the kingdom of god.
अर्थात जब तक व्यक्ति खुद को मिटा कर दूसरा जन्म नहीं ले लेता, वह दिव्य तत्व को प्राप्त नहीं कर सकता, वह गुरुत्व को समझ नहीं सकता, गुरु में खुद को समाहित नहीं कर सकता।
गुरु शब्द बड़ा ही प्यारा है। यूनानी भाषा में इसका अर्थ है शून्य और सही अर्थों में देखा जाये, तो शून्य से अधिक विस्तार लिये हुये कोई चीज होती भी नहीं—-इसीलिये तो ऋषियों ने ब्रह्माण्ड को शून्य कहकर सम्बोधित किया है।
और वास्तव में गुरु वह होता है, जो समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अन्दर समाहित किये होता है, जो सत्य स्वरूप होता है, सत्, चित् आनन्द स्वरूप होता है, पूर्ण ब्रह्म स्वरूप होता है। गुरु वह होता है, जो व्यक्ति को प्रबोधित करता है, उसको प्रबोध देता है, उसके झूठे सामान्य व्यक्तित्व को नष्ट कर उसे उसके वास्तविक दिव्य अस्तित्व से परिचित कराता है। इसलिये उसे प्रबोधक भी कहा जाता है। और यह प्रबोधक अपनी दोनों बाहें फैलायें आतुरता से व्यक्ति को उसकी समस्त न्यूनताओं समेत अपने में समाहित करने के लिये तत्पर रहता है।
ध्यान रहे, सागर कभी यह नहीं कहता, कि यह नदी बड़ी गंदी है, बड़ी प्रदूषित है, मैं इसको नहीं अपनाऊंगा, मैं इसे अपने में नहीं समेटूंगा। और गुरु भी व्यक्ति की न्यूनताओं, उसकी तुच्छता के विष को पीते हुये भी उसे अपने अंक में समेट लेते हैं—–तभी तो कुरान कहता है-
यह गुरु की अपार करुणा ही है कि वह ब्रह्मात्व की उच्चतम, आनन्दप्रद स्थिति से नीचे उतर कर तुम्हारे स्तर पर खड़ा होकर, बीच के सभी फासलों को मिटा कर तुम्हें प्रबोध देने की चेष्ठा करता है। एक भिखारी किसी भी हालत में सम्राट के सामने जाकर अपने मन की बात नहीं कह सकता, क्योंकि उन दोनों में फासला इतना है, कि भिखारी तो हतप्रभ हो जायेगा, हकलाने लग जाएगा और अगर हिम्मत करके कुछ कहे भी, तो वे शब्द आधे-अधूरे ही रहेंगे।
इसीलिए एक बड़ा ही सुन्दर नियम बना रखा था, सम्राटों ने, रात को सामान्य आदमी की वेशभूषा में अकेले राज्य के दौरे पर निकलते थे, बिल्कुल सामान्य व्यक्ति की तरह—-इस तरह से वे लोगों से बात कर पाते थे और लोग भी, बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी व्यथा उन्हें बता देते थे, क्योंकि वह उन्हीं के स्तर का व्यक्ति होता था, वहां कोई फासला नहीं दिखता था और इस तरह सम्राट उनकी दुविधाएं, परेशानियां समझ कर उन्हें दूर करने की चेष्टा करता था।
इस प्रकार गुरु भी सभी फासलों को मिटा कर सामान्य व्यक्ति की तरह ही जीवन जीता हुआ लोगों के बीच आता है, ताकि वे बिना किसी हिचकिचाहट के उससे सम्पर्कित हो सकें और उससे जुड़ सकें।
इस जुड़ने की ही क्रिया में गुरु उस व्यक्ति को समाप्त कर देता है, उसके झूठे व्यक्तित्व को बुरी तरह से झकझोर देता है, उसके नकली अस्तित्व को उखाड़ कर फेंक देता है, उसे बिल्कुल खत्म कर देता है, नदीं का स्वरूप और इधर-उधर बिना दिशा के बोध हुए बहना तो एक स्वप्न, एक भ्रम मात्र था, उसका वास्तविक स्वरूप तो समुद्र ही था और वह समुद्र ही है।
ठीक इसी प्रकार झूठा व्यक्तित्व गिरने के बाद व्यक्ति को, उस शिष्य को पहली बार बोध होता है, कि वह तो गुरु से अभिन्न कभी था ही नहीं, उसका भटकाव तो मात्र उसका अज्ञान था, मात्र एक छलावा था———क्योंकि गुरु तत्व से वह कभी अलग था ही नहीं———–और तब गुरु और शिष्य में कोई अन्तर नहीं रह जाता और स्वतः ही प्रबोधित शिष्य के कण-कण में अहं ब्रह्मास्मि का भाव नृत्य करने लग जाता है—–
और स्मरण रहे, जो नदी समुद्र में, सागर में पूर्णतः विलीन हो जाती है, वहीं बाद में वाष्पीकरण क्रिया के फलस्वरूप स्वच्छ, शीतल फुहारों के रूप में लपलपाती धरती और उजाड़ स्थानों पर बरसती है और उसे पुनः हरियाली एवं सौन्दर्य से युक्त करने में सक्षम होती है। चारों तरफ एक मनोहारी सुगन्ध फैल जाती है और सारा वातावरण नृत्यमय हो जाता है जो शिष्य गुरु में पूर्णतः लीन है, वही भविष्य में शीतल बयार बन पाता है, शीतल फुहार बन पाता है, युग पुरुष बन पाता है और चतुर्दिक एक प्रकाश युक्त वातावरण का सृजन कर पाता है। यह एक अद्भुत क्रिया है, कोयले से हीरे होने की, मूढ़ से प्रबोधित होने की और केवल मात्र गुरु ही इसके जानकार हैं।
गुरु माला से निम्न मंत्र का जप 11 माला जप करें-
मंत्र जप समाप्त होने पर माला यंत्र पर रख दें तथा गुरु आरती समपन्न करें, अगले दिन सभी सामग्री नदी में प्रवाहित कर दें।
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