अर्थात् मनुष्य के मन में सोचे गये, वाणी या शरीर से किये गये सारे पाप सूर्य कृपा से नष्ट हो जाते हैं। इसी दिन षष्ठी देवी की भी पूजा होती है, पुराणों के अनुसार षष्ठी देवी को बालकों की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण इन्हें हम षष्ठी देवी के रूप में जानते हैं। मातृकाओं में ये देवसेना नाम से प्रसिद्ध हैं और स्वामी कार्तिकेय की पत्नी हैं। बच्चों का भरण-पोषण करना, रक्षा करना तथा उन्हें दीर्घायु बनाना षष्ठी देवी का स्वाभाविक गुण है।
इनकी पूजा की सामग्री बांस की खपच्ची से बनी डलिया या सूप में रखी जाती है। इसलिये यह त्यौहार डाला छठ के नाम से जाना जाता है। इस दिन स्त्रियां संतान प्राप्ति, संतान कल्याण और परिवार की सुख-समृद्धि के लिये पूजा व व्रत करती हैं। सारा दिन भजन-पूजन के बाद स्त्रियां शाम से पहले नहाकर, पीली साड़ी पहनकर पूजा की सारी सामग्री जैसे मूली, गन्ने का टुकड़ा, फल, नारियल, सिन्दूर, फूल, घी का दीया आदि सूप या डाले में रखकर नदी के घाट पर गाती-बजाती जाती हैं।
नदी में नहा कर अस्त होते सूर्य भगवान को अर्घ्य देते है। नदी में घी के दीये तैरा दिये जाते हैं। घर आकर रात भर षष्ठी देवी और सूर्य भगवान के गीत गाये जाते है, कथायें कही जाती हैं। सप्तमी को प्रातः जल्दी उठकर सूर्य देव को अर्घ्य देकर सूप में चढ़ाये प्रसाद को बांट दिया जाता है व स्वयं ग्रहण कर व्रत खोला जाता है। इस व्रत की एक और विशेषता है कि घर-घर से सामग्री मांगकर बनाये प्रसाद को और मांग कर खाये गये प्रसाद को अधिक शुभ मानते हैं। अच्छे-अच्छे धनवान भी इस दिन दूसरों से भिक्षा मांगकर अनाज, गुड़, प्रसाद घर लाते हैं। इस पर्व से जुड़ी अनेक पौराणिक कथायें हैं।
कथा- भागवत् पुराण के अनुसार प्रियव्रत नामक एक कुशल व प्रसिद्ध राजा थे। विवाह का बहुत समय बीत जाने पर भी जब उन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ तो वे चिंतित हुये। महर्षि कश्यप से उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ पूरा हो जाने पर महर्षि ने प्रियव्रत की पत्नी को यज्ञ की खीर प्रसाद रूप में दी। रानी उचित समय पर गर्भवती हुई और उन्हें एक अत्यन्त सुंदर पुत्र पैदा हुआ किन्तु उसमें श्वास नहीं थे।
शोक के कारण रानी मूर्च्छित हो गई। दुखी राजा प्रियव्रत मृत पुत्र को लेकर शमशान गये और उसे छाती से लगाकर ऊंचे स्वर में रोने लगे। तभी उन्होंने आकाश से उतरता एक विमान देखा, जिसमें अत्यन्त सौम्य मुद्र में एक देवी बैठी थी। राजा ने बच्चे के मृत शरीर को भूमि पर रखकर आदरपूर्वक देवी की स्तुति की व उनका परिचय पूछा।
देवी ने अपना नाम षष्ठी बताया और स्वयं को बच्चों की मंगलकारिणी कहा। इसके बाद देवी ने ज्यों ही मृत बालक को गोद में उठाया वह जी उठा, देवी उस बालक को अपने साथ ले जाने लगीं, तब प्रियव्रत ने पुनः देवी की स्तुति की, प्रसन्न होकर देवी ने वह बच्चा राजा प्रियव्रत को पुनः लौटा दिया, उन्होंने उसका नाम सुव्रत रखा तथा उसे सर्वगुण सम्पन्न तथा बलवान होने का आशीर्वाद भी दिया।
देवी षष्ठी के वरदान से प्राप्त बच्चे को लेकर प्रियव्रत राज्य वापस लौटे, उन्होंने सभी के समक्ष देवी के प्रभाव का वर्णन किया और प्रत्येक मास की शुक्ल षष्ठी को देवी का पूजन करना आरंभ किया, तब से यह दिन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। जिस दिन वह बालक देवी के आशीर्वाद से जीवित हुआ था, वह कार्तिक शुक्ल षष्ठी थी, अतः इस दिन देवी की विशेष पूजा का प्रचार-प्रसार हो गया। यह पर्व प्रकृति की विभिन्न शक्तियों जैसे सूर्य, नदी कल्याणकारी शक्ति के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता को प्रकट करता है, उनके साथ एक हो जाने की कामना को उजागर करता है, मन को शुभ संकल्प से भरता है और विनय, दया, सहनशीलता आदि का पाठ पढ़ाता है।
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