प्यासा था नकुल, भाई भी प्यासे थे। तो उसने कहा, मैं राजी हूं जवाब देने को। लेकिन जवाब दे न पाया। गिर पड़ा, दूसरा भाई आया, तीसरा भाई, चार भाई लौटे नहीं झील से, तो युधिष्ठर खोजने आये। चारों की लाशें पड़ी हैं किनारे पर, हैरान हुये कि क्या हुआ? आवाज आई, जैसे ही झुके पानी पीने लेने, कि ठहरो। जो तुम्हारे भाईयों के साथ हुआ, वही तुम्हारे साथ हो जायेगा। चुनौती है, तीन सवाल हैं, जवाब दे दो। क्योंकि इन तीन सवालों के जब मुझे जवाब मिल जाएंगे तो मैं यक्ष की योनी से मुक्त हो जाऊंगा। यह मेरे लिए अभिशाप है। तो मैं खोज रहा हूं जवाब और जब तक मुझे जवाब न मिलेगा, मैं पानी पीने नहीं दूंगा। पानी पीया तो मरोगे। बिना जवाब दिये भागने की कोशिश की तो मरोगे। जवाब तो चाहिए ही। जवाब गलत हुआ तो मरोगे। युधिष्ठर ने कहा, तुम पूछो—! उसने पहला सबसे महत्वपूर्ण सवाल पूछा, कि मनुष्य के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात तुम्हें क्या अनुभव हुई? युधिष्ठिर ने कहा, कि मनुष्य जान कर भी जानता नहीं, सीख कर भी सीखता नहीं। मनुष्य सीखता ही नहीं।
कहते हैं, यक्ष ने स्वीकार कर लिया कि यह मनुष्य के जीवन में सबसे अनूठी घटना है। कितना ही अनुभव हो, अनुभव का सार- नवनीत इकठ्ठा नहीं होता। कितनी बार तुमने सपना देखा, फिर भी तुम धोखा खाओगे? आज रात फिर सपना देखोगे और जब सपना देखोगे तो झूठ सच मालूम होने लगता है। जिसको झूठ सच मालूम होता हो, हजारों बार जान कर भी वह प्रगाढ़ रूप से बेहोश है। सपना बेहोशी का लक्षण है। गहनतम बेहोशी का लक्षण है। सिर्फ मन पर बनी लकीरें और चित्र वास्तविक मालूम होने लगते हैं। असंगत घटनाएं भी सपने में सही मालूम पड़ती हैं।
एक मित्र चला आ रहा है- सपने में, तुम देखते हो, अचानक वह घोड़ा कैसे हो गया। तो भी तुम्हारे मन में यह संदेह पैदा नही होता, कि जो अभी तक आदमी था, अचानक घोड़ा कैसे हो गया? सपने में संदेह पैदा ही नहीं होता। बड़े से बड़े संदेहवादी भी सपने में संदेह नहीं करते और जिसने सपने में संदेह कर लिया, उसका सपना टूट जाता है, वह सपने के बाहर हो जाता है। सत्य के लिये चाहिये श्रद्धा और सपने के लिये चाहिये संदेह। सत्य उसे मिलता है, जो श्रद्धा करता है। सपना उसका छूटता है, जो संदेह करता है। तुम उल्टा ही कर रहे हो। सत्य पर संदेह करते हो, सपने पर श्रद्धा करते हो, तुम शीर्षासन कर रहे हो।
पैर पर खड़े हो जाओ। सपने पर करो संदेह और जिस दिन तुम सपने पर संदेह कर लोगे, उसी दिन तुम पाओगे, सत्य पर श्रद्धा करना आसान हो गया। एकदम आसान हो गया। तुम अपने पैर पर खड़े हो गये। सपने पर संदेह आते ही सपना टूट जाता है। इतना भी तुम्हें खयाल आ जाये रात नींद में कि यह सपना है, उसी वक्त टूट जायेगा। क्योंकि इतना होश भी पर्याप्त है सपने की मौत के लिये। सपना तो झूठ है। मूर्च्छित व्यक्ति की दूसरी अवस्था है- स्वप्न और तीसरी अवस्था है- निद्रा। तुम्हारी जागृति भी झूठी। सपने में तो जरा भी नहीं रह जाती। जागने में थोड़ी सी रहती मालूम पड़ती है। एक आभास, एक छाया, एक प्रतिध्वनि, लेकिन सपने में बिलकुल नहीं रह जाती। तो निद्रा में तो क्या रह जायेगी, जब सपना भी नहीं रह जाता? तब तो तुम ऐसे हो जाते हो जैसे सड़क पर पड़ी हुई चट्टान, तुम होते ही नहीं।
निद्रा का अर्थ है, स्वप्न शून्य निद्रा। तब तुम होते ही नहीं। तुम्हारा होना बिलकुल ही विलुप्त हो जाता है। दीया बिलकुल ही बुझ गया। अब जुगनू भी नहीं टिमटिमाती। जागने में जुगनू टिमटिमाती थी। सपने में जुगनू थी, पंख बंद थे। टिमटिमाती नहीं थी। निद्रा में समाप्त ही हो गई, बंद पंख की जुगनू भी नहीं है। अमूर्च्छित व्यक्ति कभी सपना नहीं देखता। अमूर्च्छित चित्त की कोई अवस्थाएं नहीं है। अमूर्च्छित व्यक्ति को सपना हो ही नहीं सकता। क्योंकि जिसको होश है, उसे सपना कैसे धोखा दे पाएगा। कैसे झूठ सच मालूम होगा? जैसे प्रकाश के जलने पर अंधेरा खो जाता है, ऐसे ही होश आने पर सपने खो जाते हैं। अमूर्च्छित व्यक्ति, जागा हुआ प्रबुद्ध व्यक्ति सपने से मुक्त हो जाता है और निद्रा से भी।
इसका यह अर्थ नहीं, कि वह सोता नहीं। सोता है, लेकिन जागा हुआ सोता है। जैसे तुम जागे हुये भी सोते हो, वैसे वह सोया हुआ जागता है। कृष्ण ने गीता में कहा है कि- योगी उस समय भी जागता है, जब भोगी सोता है। इसका यह अर्थ नहीं, कि कृष्ण सोते नहीं थे। शरीर तो विश्राम करेगा, शरीर तो यंत्र है, थकेगा और विश्राम करेगा और शरीर के पुनर्जीवन के लिये विश्राम जरुरी है। बस, शरीर ही सोता है लेकिन, भीतर का दीया जलता ही रहता है। शरीर सोया रहता है, भीतर का पुरुष जागा रहता है।
जागृत व्यक्ति की कोई अवस्थाएं नहीं है। जागृति ही उसकी अवस्था है। वह जागे में भी जागता, सोने में भी जागता है। जागना उसका स्वभाव है और इसलिये समस्त योग एक ही कुंजी में भरोसा करता है और वह कुंजी है, जाग जाना। जिस दिन जागने की कुंजी तुम्हारे नींद के ताले पर लग जाती है, खुल गए द्वार। कबीर के इन वचनों में उसी कुंजी की चर्चा है। मन रे जागत रहिये भाई! बड़ी गहरी नींद है। जागते-जागते ही टूटेगी, निरंतर-निरंतर अभ्यास करने से ही मिटेगी। लड़ते रहने से ही कटेगी, चेष्टा जारी रहे, कितनी ही छोटी हो, तो भी एक दिन बूंद-बूंद गिर कर यह चट्टान टूट जायेगी। रहीम ने कहा है- रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान। रस्सी की ताकत क्या? लेकिन चलती रहती है कुएं पर, भरती रहती है पानी को और मजबूत से मजबूत चट्टान पर निशान बन जाता है। अगर तुम्हारे बोध की रसरी सरकती ही रहे तुम्हारे जीवन के घाट पर, तो कितनी ही हो, गहरी तंद्रा, आज नहीं कल निशान छूट जायेगा। मन रे जागत रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई। असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश जीओगे, नशे में जीओगे तो वह जो भीतर बसता है, वह जो भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी भी पता न चलेगा। संस्कृत में, सांख्य और वैशेषिक शास्त्रों में आत्मा को पुरुष कहा गया है। पुरुष शब्द बड़ा प्यारा है। पुरुष शब्द उसी धातु से बनता है, जिससे पुर बनता है। पुर यानी नगर। कानपुर, नागपुर-पुर यानी नगर। और पुरुष यानी जो उस नगर के भीतर रहता है- निवासी। कबीर उसको कहते है ‘बसत’ वह जो बस है। हम कहते हैं न गांव कोः बस्ती- वह जो भीतर बसा है। गाफिल होइ बसत मति खोवै।
अगर बेहोश चले, तो वह जो भीतर बसा है, उसकी जो प्रतिभा है, उसकी जो चमक है, जो आभा है, वह खो जायेगी। उसकी मीत धूमिल हो जायेगी। उसके ऊपर धूल जम जायेगी। दर्पण पर धूल जम जाती है, तो दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। ऐसे तुम्हारे भीतर जो बसा है, अगर नींद की पर्त ही पर्त तुम जमाते गये, तो उसकी मति, उसकी प्रतिभा, उसकी चमक खो जाएगी। गाफिल होइ, बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई। और जब भीतर का पुरुष, भीतर का दीया अंधेरे से ढंक जाये, गहन रात में खो जाये, भीतर की प्रतिभा सो जाये, जागी न हो तो फिर चोर घर में घुसना शुरु हो जाता है।
बुद्ध ने कहा है, घर में कोई न भी हो और सिर्फ दीया जलता हो तो भी चोर डरते हैं। घर में कोई न भी हो लेकिन दीया जलता हो, तो भी चोर दूर दूर चलते हैं। क्योंकि दीये के जलने की खबर, शायद घर में कोई हो! जिस दिन भीतर का दीया जलता है, उस दिन चोर प्रवेश नहीं करते। चोर कौन है? जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं। किसी ने गाली दी और तुम प्रभावित हो गये, चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुंचायेगा। यह बड़े मजे की बात है, गाली देने वाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाता था, न पहुंचा सकता था। उसमें कोई सामर्थ्य न थी। चोर बाहर था। क्या करेगा? लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गये। अब नुकसान होगा।
एक सुंदर स्त्री गुजरी। उसे पता भी न होगा, कि आप वहां मंदिर के सामने खड़े क्या कर रहे थे या मंदिर के भीतर आप तो पूजा कर रहे थे और एक स्त्री भी आकर झुकी। स्त्री को कुछ पता भी न हो, स्त्री का कुछ हाथ भी न हो, चोर आपके भीतर घुस गया। किसी ने गाली दी, तब तो हमें यह भी लगता है कि कम से कम इसने गाली तो दी। कुछ तो इसका हाथ है। लेकिन एक सुंदर स्त्री पास से गुजरी, उसने आपकी तरफ देखा भी नहीं, लेकिन चोर भीतर घुस गया। आपने चोर खुद ही बुला लिया। काम जग गया। वासना जग गई। आप गाफिल हो गए। मुश्किल में पड़ गये। बेचैनी हो गई। एक उत्तप्तता ने घेर लिया। खो दिया केन्द्र अपना। सपना जग गया। नींद आ गई। जैसे ही तुम गाफिल हुये, वैसे ही चोर भीतर घुस जाता है। तो तुम्हारी गफलता ही असली कारण है।
बुद्ध एक गांव के पास से गुजरे। लोगों ने गालियां दीं, अपमान किया। बुद्ध ने कहा, क्या मैं जाऊं, अगर बात पूरी हो गई हो? क्योंकि दूसरे गांव मुझे जल्दी पहुंचना है। लोगों ने कहा, यह कोई बात न थी। हमने भद्दे से भद्दे शब्दों का प्रयोग किया है, क्या तुम बहरे हो गये? क्या तुमने सुना नहीं? बुद्ध ने कहा कि सुन रहा हूं। पूरे गौर से सुन रहा हूं। इस तरह सुन रहा हूं, जैसा पहले मैंने कभी सुना ही न था, लेकिन तुम देर से आये हो। दस साल पहले आना था। अब मैं जाग गया हूं। अब चोरों को भीतर घुसने का मौका न रहा। तुम गाली देते हो, मैं देखता हूं, गाली मेरे तक आती है और लौट जाती है।
ग्राहक मौजूद नहीं है। तुम दुकानदार हो, तुम्हें जो बेचना है, तुम ले आये हो। लेकिन ग्राहक मौजूद नहीं है। ग्राहक दस साल हुये मर गया। पीछे के गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाये थे। मेरा पेट भरा था, तो मैंने उससे कहा, वापिस ले जाओ। मैं तुमसे पूछता हूं, वे क्या करेंगे? किसी ने भीड़ में से कहा, जाकर गांव में बांट देंगे, खा लेंगे। बुद्ध ने कहा, तुम क्या करोगे? तुम गालियों के थाल सजा कर ले आये। मेरा पेट भरा है। दस साल से भर गया। तुम जरा देर कर के आये। अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को वापस ले जाओगे, बांटोगे या खुद खाओगे? मैं नहीं लेता। तुम गलत आदमी के पास आ गये और जब तक मैं न लूं, तुम कैसे गाली दे सकते हो? देना तुम्हारे हाथ में है, लेने की मालकियत तो सदा मेरे हाथ में है। देने से ही तो काम पूरा नहीं हो जाता। वह अधूरी प्रक्रिया है।
अगर तुम लेने को तत्पर हो, तो बिना दिये भी मिल जाता है। कोइ आदमी हंस रहा है। वह किसी और कारण से हंस रहा है, तुमको चोट लग गई। तुम समझे, तुम्हारे कारण हंस रहा है। तुम्हारी अकड़ ऐसी है कि तुम सोचते हो, दुनिया में जो भी हो रहा है, तुम्हारे कारण हो रहा है। लोग हंस रह हैं, तो तुम्हारी वजह से हंस रहे हैं? लोग धीरे-धीरे घुस-पुस करके बाते कर रहे हैं, तो तुम्हारी निंदा कर रहे है। अन्यथा घुस-पुस करके क्यों बाते करेंगे? जैसे तुम केन्द्र हो सारे संसार के, कि जो भी यहां हो रहा है, वह तुम्हारी वजह से हो रहा है? फूल खिल रहे हैं, तो तुम्हारे लिये? चांद-तारे उग रहे हैं तो तुम्हारे लिये। तुमने सारी दुनिया को अपने सिर पर उठा रखा है। जो तुम्हें नहीं दिया गया है, वह भी तुम ले लेते हो।
होशपूर्ण व्यक्ति, बुद्ध जैसा व्यक्ति वही लेता है, जो लेना है। तुम्हारे देने का सवाल नहीं है, तुम्हारे न देने का सवाल नहीं है। बुद्ध मालिक है। गुलामी के दिन होते दस साल पहले, तो पता भी न चलता और गालियां ले ली होतीं। षटचक्र की कनक कोठरी, बस्त भाव है सोई। योग छह चक्रों को मानता है, जिनके भीतर छिपी है तुम्हारी चेतना। ये छह षटचक्र तुम्हारे इस शरीर के हिस्से नहीं हैं। इस शरीर के भीतर जो छिपा है, सूक्ष्म शरीर, उस सूक्ष्म शरीर के हिस्से है। यह छह चक्र ऊर्जा के चक्र हैं। इन छह चक्रों के कारण ही तुम ऊर्जावान हो। तुम्हें जो जीवन में शक्ति मालूम पड़ती है- उठते हो, बैठते हो, चलते हो, काम करते हो, फिर थक जाते हो फिर शक्ति वापस लौट आती है, यह इन छह चक्रों से तुम्हारे भीतर ऊर्जा पैदा हो रही है।
जैसे डायनेमों पैदा करता है विद्युत को। जैसे तुम पानी से विद्युत को पैदा होते देखो? पानी में विद्युत छिपी पड़ी है। लेकिन उसे निकालने के लिये यंत्र चाहिये। पानी में विद्युत का प्रगाढ़ रूप छिपा है। लेकिन यंत्र चाहिये, जिनसे विद्युत बाहर आ जाये और उपयोग मे आ जाये। तुम्हारी आत्मा प्रगाढ़ ऊर्जा है, अनंत ऊर्जा है। जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा स्वयं परमात्मा से जुड़ी है। अनंत, अक्षय उसकी शक्ति है। लेकिन उस शक्ति को सक्रिय बनाने के लिये भीतर छह चक्र हैं। उन चक्रों के घूमने से, निरंतर घूमने से आत्मा की शक्ति शरीर तक प्रवाहित होती है। योग उन छह चक्रों को जगाने की बड़ी चेष्टा करती है। जब वे छह चक्र ठीक-ठाक सक्रिय हो जाते हैं, तब जीवन में बड़ी ऊर्जा का आविर्भाव आता है। तब तुम अनथके जीते हो।
तब तुम्हारे भीतर एक बाढ़ आ जाती है ऊर्जा की। तुम कितना ही बांटो, घटता नहीं। तुम कितना ही लुटाओ, लुटता नहीं। तुम देते चले जाओ और बहता चला आता है। तब तुममें अपार क्षमता आ जाती है। तब तुम्हारा दान कोई सीमा नहीं जानता। तुम प्रेम बांटो, प्रेम बढ़ता है। तुम ज्ञान बांटो, ज्ञान बढ़ता है। एक बार ये छह चक्र ठीक चलने लगे, तुम्हारा यंत्र सुनियोजित व्यवस्था से चलने लगे, तो तुम्हारे भीतर कभी भी बाढ़ की कमी नहीं आती। तब तुम कभी कृपण नहीं होते। इसलिये आज तक कोई भी व्यक्ति, जिसने भीतर की थोड़ी सी गंध पाई हो, कृपण नहीं पाया गया है।
सारी मनुष्यता कृपण है। कृपणता का कारण है, क्योंकि तुम्हें लगता है, चूक जायेगा। जो तुम्हारे पास है, वह इतना थोड़ा है, कि तुम डरे हो। उसे बचाते हो और बड़ी जटिल बात यह है कि जितना तुम बचाते हो, उतना ही तुम्हारी षटचक्रों की प्रक्रिया कम हो जाती है। क्योंकि तब जरुरत ही नहीं रहती, क्योंकि तुम बांटते नहीं। जब जरुरत पैदा होती है तो ही चक्र घूमते हैं। ज्यादा ऊर्जा को लाते हैं। जब जरुरत ही नही रहती, चक्र स्थिर हो जाते है, जंग खा जाते हैं, चलते ही नहीं। कृपण आदमी कमजोर हो जाता है। कृपण से ज्यादा कमजोर कोई भी नहीं। लोभी कमजोर हो जाता है। दानी फैलता है, लोभी सिकुड़ जाता है, ऐसे ही जैसे एक कुंआ है, तुम उसमें पानी लेते हो रोज, तो कुंए के नीचे झरने हैं, उन झरनों से पानी चला आता है। नया पानी, नये जल के स्रोत खुल जाते हैं। तुम रोज पानी उलीचते हो। नया पानी कुएं में आता जाता है। लेकिन कुंए का तल हमेशा वही रहता है। खींच लो कितना ही पानी, फिर कुंए में पानी भर जाता है और यह पानी नया होगा और नये झरने खुल जायेंगे। जितनी जरुरत होगी, उतनी ऊर्जा बहेगी।
लेकिन किसी कुंए में कंजूसी आ जाये या किसी कुंए के मालिक को कृपणता आ जाये, कि इतना सा तो पानी है कुल। इसको खींचकर लुटा दिया, तो कुंआ खाली हो जायेगा, कुंआ कोई घड़ा नहीं है, कि तुमने लिया तो खाली हो जायेगा। कुंआ कोई मुर्दा नहीं है। जीवंत धारा है उसकी। वह नीचे सागर से जुड़ा है। कंजूसी मत करो, नहीं तो कुंआ सड़ेगा उसका पानी पीने योग्य नहीं रह जायेगा और बढ़ेगा तो नहीं, उसके झरने धीरे-धीरे बन्द हो जायेंगे। उनकी जरुरत न रहेगी। उन पर मिट्टी जम जायेगी। कंकड बैठ जायेंगे। कुंए का पानी सड़ेगा और झरने बंद हो जायेंगे। ऐसा ही होता है कृपण आदमी के जीवन में। जिस आदमी के जीवन में थोड़ी सी भी जागृती आती है, वह बांटना शुरु करता है। वह अपने को बांटता है, जितना बांटता है, उतना बढ़ता है। जितना बांटता है, उतने नये स्रोत उपलब्ध होते हैं। जितना बांटता है, उतना ही पाता है, अनंत शक्ति उपलब्ध है, अनंत ऊर्जा उपलब्ध है, षटचक्र की कनक कोठरी में।
तुम स्वर्ण के अंबार हो, तुम्हारी सम्पदा की कोई सीमा नहीं- इसलिये तुम कनक कोठरी हो। तुम स्वर्ण के खजाने हो। वह खजाना भी कोई मरा हुआ स्वर्ण नहीं है। जीवंत ऊर्जा है परमात्मा की। लेकिन वह छह चक्रों के द्वारा जुड़ा है। षटचक्र की कनक कोठरी, बस्त भाव है सोई और उस कोठरी के भीतर ही, उस अनंत सम्पदा के भीतर ही बसा हुआ है पुरुष, तुम्हारी आत्मा। ये छह चक्र सक्रिय होने चाहिये। जितने सक्रिय होंगे, उतना ही भीतर प्रवेश होगा और ठीक अंतरतम में, ठीक मध्य बिन्दु पर, तुम्हारे होने के ठीक केन्द्र में परमात्मा छिपा है। वही है असली बसने वाला। शरीर घर है, मन घर है और मन से भी गहरा घर षट्चक्र है। ताला कुंजी कुलफ के लागै, उघड़त बार न होई।
बस, ठीक कुंजी तुम्हें मिल जाए, ताले में लग जाये, तो कुंडलिनी जागृत हो जाती है। ऊर्जा जग जाती है, उन छहो चक्रों में एक ही ऊर्जा का प्रवाह हो जाता है। छह चक्रों को जोड़ने वाली ऊर्जा का नाम कुंडलिनी है। चक्र अलग-अलग चलते हैं, तो तुम संसार के काम के योग्य शक्ति पैदा कर पाते हो। जब छहों चक्र इकठ्ठे एक सूत्र में आबद्ध हो जाते हैं, जैसे कि माला के मनके एक ही धागे में बंध जाते हैं। अलग-अलग मनके हैं, लेकिन माला नहीं। अलग-अलग चक्र भी चक्र हैं और उनसे शक्ति पैदा होती है, लेकिन माला नहीं है अभी। जब छहों चक्र जुड़ जाते हैं एक धारा में, एक लयबद्धता में, छहों एक साथ सक्रिय होते हैं और उन छहों के बीच एक संगीत निर्मित हो जाता है, एक माला अनुस्यूत हो जाती है, तो उसी का नाम कुडलिनी है और जिस दिन कुंडलिनी जग जाती है- उघड़त बार न होई। फिर तुम्हारे परमात्मा स्वरूप के उघड़ने में क्षण भर की भी देर नहीं होती। पंच पहिरवा सोई गये है, बसतैं जागण लागी।
और जैसे ही तुम जागते हो, पांचों इंद्रिया सो जाती हैं। जब तक पांचों इंद्रियां जागती हैं, तब तक तुम सोये रहते हो। जैसे-जैसे इंद्रियां सोती जाती है, शांत होती जाती हैं, वही ऊर्जा, जो इंद्रियों से प्रवाहित होकर बाहर जा रही थी, वही ऊर्जा अंतर्यात्र पर निकल जाती है। उसी से तुम जागने लगते हो। पंच पहिरवा सोई गये हैं, बसतैं जागण लागी। वह जो भीतर बसा है, वह जाग गया। वे पांच पहरेदार सो गये। जरा मरण व्यापै कछु नाहीं, गगन मंडल लै लागी। और अब न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह कभी जन्मा नहीं, कभी मरा नहीं। मरना और जन्मना उसके बाहर की घटना है। तुम्हारा शरीर मरा है, जन्मा है, तुम्हारा मन, तुम्हारे रूप, नाम, अनंत-अनंत बार बदले हैं। लेकिन वह जो भीतर छिपा है अविनाशी, वह सदा वही का वही रहा है। वह कभी बदला नहीं। न पैदा हुआ, न मरेगा। न वह बनाया गया है और न मिटेगा।
जरा मरण व्यापै कछु नाही—– और जिसने उसकी साक्षात अनुभूति कर ली, उसके लिये मृत्यु का भय मिट जाता है और जीवन की अभीप्सा मिट जाती है। वह जीवन की जो जिजीविषा है- लस्ट फार लाइफ, वह भी मिट जाती है। गगन मंडल लै लागी। अब उसकी तो सारी ज्योति, लौ, लगन शून्य की तरफ लग जाती है। गगन यानी शून्य, आकाश, निराकर। ब्रह्म कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो। अब तो उसकी सारी ज्योति शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है।
तुम्हारी जीवन ज्योति सदा वस्तुओं की तरफ प्रवाहित होती है। आकृति की तरफ, रूप की तरफ, धन की तरफ, शरीर की तरफ, मकान की तरफ, लेकिन सदा वस्तुओं की तरफ। इंद्रियां वस्तुओं की तरफ प्रवाहमान है। चेतना सदा निर्विकार, निराकार, शून्य की तरफ प्रवाहमान है। पंच पहिरवा सोई गये हैं, बसतैं जागण लागी।
जरा मरण व्यापै कछु नाही, गगन मंडल लै लागी। करत विचार मन ही मन उपजी, ना कहीं गया न आया। कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया। करत विचार- यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। कबीर के एक-एक सूत्र में एक-एक उपनिषद समा जाये। कबीर जिसे विचार कहते हैं, वह तुम्हारा विचार नहीं है। तुमने जो कभी विचार किया ही नहीं। तुम्हारे भीतर विचार तो बहुत हैं, लेकिन तुमने विचार कभी नहीं किया। इस भेद को ठीक से समझ लेना। थाट्स- विचारों की तो तुम्हारे भीतर भीड़ है, लेकिन थिंकिग- विचार की तुम्हारे भीतर बिलकुल संभावना नहीं। विचार तुम्हारे भीतर बहुत हैं, लेकिन तुम्हारा उसमें कौन सा विचार है? सब उधार है। तुमने क्या विचारा है? बाहर से आ गया है। जो बाहर से आ जाए, उसे क्या विचार कहना! दूसरे का है, बासी है, जूठन है, उच्छिष्ठ है, त्याज्य है। तुम्हारा अपना कोई विचार है?
जिसको तुम अपना भी कहते हो, वह भी गौर करोगे तो पाओगे किसी और से, कहीं से पा लिया है। ज्यादा से ज्यादा तुम इतना ही कर पाए होगे, कि किसी एक के विचार की टांग और किसी दूसरे के विचार का सिर और किसी तीसरे के विचार के हाथ जोड़ कर तुमने एक प्रतिमा बना ली हो। जो नई लगती हो, लेकिन वह नई है नहीं। वह भी दूसरों के विचारों का जोड़ है। संयोग नया होगा, लेकिन विचार पुराना है। उसमें कुछ भी नया नहीं है। मौलिक विचार तो तुम्हें तभी हो पायेगा, जब ध्यान लग जाए। ध्यान का अर्थ है जब विचारों की भीड़ चली जाए। इसलिये असली विचार की क्षमता तो तब आती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। जब भीतर मन का खुला आकाश रह जाता है, जिसमें एक भी बादल विचार का नहीं। तब विचार की क्षमता उपजती है। तब तुम विचार करते नहीं। तब तुम सोचते नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब विचार दर्शन हो जाता है।
करत विचार मन ही मन उपजी कबीर उसी विचार की बात कर रहे है। कि ऐसे बैठे ध्यान में- शांत! कोई विचार की भीड़ नहीं, शून्य में लगन लगी, शून्य की तरफ भागती लौ जीवन की, ऐसे विचार के क्षण में- मन ही मन उपजी। भीतर यह भाव उठा। भीतर आविर्भूत हुआ यह भाव। यह धारणा जन्मी। न कहीं गया न आया। न तो कहीं गया अब तक और न कहीं आया अब तक। न कोई जन्म हुआ, न कोई मृत्यु हुई।
सब सपना था। जन्म और मरना और सारा व्यापार दोनों के बीच- सब सपना था। इसलिये हिन्दू इस संसार को माया कहते हैं। माया का अर्थ है, जो वस्तुतः जागते हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है। कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह भी सपना था। न कहीं गया, न आया। सदा से वहीं हूं, जहां था। शाश्वत, सनातन, नित्य! जरा भी अंतर नहीं पड़ा।
तुम आते हो, जाते हो। थोड़ा समझो, घर से तुम उठे, यहां चले आये। यहां से उठोगे, घर जाओंगे, दुकान, दफ्तर जाओगे। लेकिन तुम्हारे भीतर जो है, वह कहीं आया? कहीं गया? वह तो वहीं के वहीं हैं। शरीर डांवाडोला, उठ कर यहां चले आये। शरीर डांवाडोला, उठकर वापस चले गये। लेकिन तुम्हारे भीतर जो चित्स्वरूप है तुम्हारा, वह कहीं आया? कहीं गया? वह तो वहीं का वहीं हैं। तुम चाहे लन्दन जाओ, चाहे कलकत्ता, चाहे मास्को शरीर ही जायेगा, आयेगा। मन जायेगा, आयेगा, तुम तो वहीं के वहीं रहोगे। तुम कहां जाओगे? तुम कैसे जाओगे? उस परमचित, उस परम चेतना का कोई आवागनम नहीं है।
इसलिये कबीर अनूठी बात कह रहे हैं——- करत विचार मन ही मन उपजी ऐसे शांत शून्य के क्षण में उठी यह बात। न कहीं गया न आया। और जैसे ही यह प्रतीति हुई, कि न कहीं गया न आया कहै कबीर संसार सब छूटा उसी क्षण सब संशय छूट गये। राम रतन धन पाया। उसी क्षण मिल गई वह सम्पदा, जो परमात्मा की है, ब्रह्म की है- पाइबो रे पाइबो रे ब्रह्मम ज्ञान। राम रतन धन पाया।
और जब तक राम रतन का धन न मिल जाए, तब तक जानना कि तुम मूर्च्छित हो। वह कसौटी है। जैसे सोने को कसते हैं, निकष पर, कसौटी पर, ऐसे ही अमूर्च्छा पर कसे जाओगे तुम। अगर मूर्च्छित हो, तो तुम मिट्टी हो। अमूर्च्छित हो, तो तुम परमात्मा हो। मूर्च्छित, तो तुम मृण्मय। अमूर्च्छित, तो तुम चिन्मय। मूर्च्छा ही तुम्हारे जीवन की टूट जाये तो कुछ और तोड़ना नहीं है।
ज्ञानियों ने नहीं कहा, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, हिंसा मत करो। नहीं, ज्ञानियों ने तो इतना ही कहा है, कि मूर्च्छा मत करो और जिसने मूर्च्छा न की, वह बेईमानी करेगा नहीं। कर नहीं सकता। चोरी करेगा नहीं, चोरी हो नहीं सकती। हिंसा असंभव है। महावीर से कोई पूछता है साधु कौन? असाधु कौन? तो महावीर ने बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र दिया है। महावीर ने कहा, कि जो सोया है, वह असाधु। जो जागा है, वह साधु। असुत्ता मुनि। सुत्ता अमुनि। महावीर जाग्रत पुरुष हैं, इसलिये उन्होंने कुंजी की बात की। सारसूत्र कहा- सुत्ता अमुनि। जो सोया, वह असाधु। असुत्ता मुनिः जो जागा वह साधु।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
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