जो भगवान शंकर डाकिनी और शाकिनी समुदाय में प्रेतों के द्वारा सदैव सेवित होते है, अथवा डाकिनी नामक स्थान में प्रेतों द्वारा सेवित हैं, उन्हीं भक्त हितकारी भीमाशंकर नाम से प्रसिद्ध शिव को हम प्रणाम करते है।
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 110 किमी उत्तर की ओर भीमा नदी के तट पर सहाद्रि पर्वत की कुछ ऊँचाई पर स्थित है। मंदिर के पास दो कुण्ड है। भगवान के लिंग से भी थोड़ा-थोड़ा जल निकलता रहता है। 3250 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर का शिवलिंग काफी मोटा है, इसलिए भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से व्यक्ति को समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता है।
यह मंदिर अत्यन्त पुराना और कलात्मक है। भीमा- शंकर मंदिर नागर शैली की वास्तुकला से बनी प्राचीन एवं नई संरचनाओं का समिश्रण है। इस मंदिर से प्राचीन विश्वकर्मा वास्तु शिल्पियों की कौशल श्रेष्ठता का पता चलता है। कहा जाता है कि महान मराठा शासक शिवाजी ने इस मंदिर की पूजा के लिए कई तरह की सुविधाएं प्रदान की थी। भीमाशंकर मंदिर के समीप ही कमलजा मंदिर है। कमलजा पार्वती जी का अवतार हैं। श्रावण मास से शिवरात्रि के मध्य भक्तगण अनवरत् रूप से साधना, पूजा के लिये आते ही हैं।
भीमाशंकर मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित हनुमान झील, गुप्त भीमाशंकर, भीमा नदी की उत्पत्ति, नागफनी, बॉम्बे प्वाइंट, साक्षी विनायक जैसे देवालयों का दर्शन करना श्रेयष्कर रहता है। भीमाशंकर लाल वन क्षेत्र और वन्यजीव व अभ्यारण्य द्वारा संरक्षित है, जहां पक्षियों, जानवरों, फूलों युक्त आयुर्वेदिक पेड़-पौधे पाये जाते हैं, जिनमें तेजपत्ता प्रमुख है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भीमाशंकर मंदिर देव व असुरों के बीच हुए भीषण युद्ध की उत्पत्ति है। जब भगवान शिव ने अपने गणों की सेना और डाकिनि व शाकिनि योगिनियों के साथ मिल भीषण व विशाल स्वरूप धारण कर भीम के रूप में त्रिपुर नामक राक्षस जो कि भगवान ब्रह्मा से अपने तपोबल से वरदान प्राप्त करने के कारण सम्पूर्ण जगत में त्राहि मचा रहा था, उसी त्रिपुर राक्षस का वध किया था। यहां आसपास स्थित वन डाकिनि वन के नाम से जाने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस वन में योगिनियां निवास करती हैं और नित्य भगवान शिव का अभिषेक पूजन आदि करती हैं।
शिवपुराण में बताया गया है कि कामरूप प्रदेश में भीम नामक एक महाप्रतापी राक्षस था, जो अपनी मां के साथ वहां रहता था। वह राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण का पुत्र था। परन्तु वह अपने पिता को नहीं देख पाया था, क्योंकि उसका जन्म ठीक उसके पिता की मृत्यु के बाद हुआ था। जब वह युवावस्था को प्राप्त हुआ तब उसकी माता ने उसे सारी बात बताई कि उसके पिता कुंभकर्ण का वध भगवान विष्णु के अवतार श्री रामचंद्र जी द्वारा हुआ है। यह सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरंतर भगवान श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा। उसने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे लोक विजयी होने का वर दे दिया। राक्षस ने ब्रह्माजी के वर प्रभाव से उस राक्षस ने देवलोक पर आक्रमण कर इंद्र आदि सभी देवताओं को वहां से बाहर निकाल दिया। समस्त देवलोक पर भीम का अधिकार हो गया व श्री हरि को भी युद्ध में पराजित कर दिया।
उसने कामरूप के परम शिव भक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मंत्रियों अनुचरों सहित बंदी बना दिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। भीम के अत्याचार की भीषणता से घबराकर ऋषि-मुनि और देवतागण भगवान शिव की शरण में गए और उन्हें अपनी तथा अन्य सारे प्राणियों की व्यथा बताई। उनकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने कहा, मैं शीघ्र ही उस अत्याचारी राक्षस का संहार करूंगा। उसने मेरे प्रिय भक्त, कामरूप नरेश सुदक्षिण को भी सेवकों सहित बंदी बना लिया है। वह अत्याचारी असुर अब और अधिक जीवित रहने का अधिकारी नहीं रहा।
इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में कैद राजा सुदक्षिण भगवान शिव के ध्यान में मग्न रहे। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। किन्तु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिंग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात शंकर जी वहां प्रकट हो गए। उन्होंने अपनी हुंकार मात्र से उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया। वहीं पार्थिव शिवलिंग भीमाशंकर स्वरूप में विशाल रूप में निर्मित हुआ।
सभी ऋषि-मुनि और देवगण वहां एक होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन सभी व राजा सुदक्षिण ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि महादेव। आप लोक-कल्याणार्थ अब सदा के लिए यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जाएगा। भगवान शिव ने सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और वहां वे ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर के नाम से विख्यात हुआ। जीवन को बल, तेज, शक्ति से आपूरित करने हेतु भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के साथ-साथ पूजा, अर्चना, साधना सम्पन्न करने से जीवन में समय-समय पर उत्पन्न होने वाले असुरों का संहार निश्चिन्त रूप से होता ही है।
निधि श्रीमाली
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