मां भगवती दुर्गा की यह स्वरूप शक्ति का साकार स्वरूप है, जहां मां भगवती की आराधना होती है, वहां शक्ति चैतन्य रूप से स्थायी रहती है। शक्ति का तात्पर्य केवल बल ही नहीं है, शक्ति की जो व्याख्या मार्कण्डेय ऋषि ने की है, वह शक्ति का सर्वरूप है। शक्ति का तात्पर्य है- वृद्धि, सिद्धि, सौम्यता, रौद्राता, जगतप्रतिष्ठा, चैतन्यता, बुद्धि, तृष्णा, नम्रता, शान्ति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, स्मृति, दया, तुष्टि एवं इच्छा है।
शक्ति साधना के द्वारा ही जीवन में इन सभी शक्तियों की प्राप्ति हो सकती है। इन में से एक शक्ति की भी कमी रहती है तो जीवन अपूर्ण सा होने लगता है। केवल एक रूप में साधना करने से ही शक्ति की पूर्ण सिद्धि संभव नहीं है, जीवन में रौद्रता के साथ-साथ अर्थात् उग्रता के साथ शांति हो। शत्रुओं के लिये उग्रता, मित्रों के लिये शांति, परिवार के लिये लक्ष्मी, ज्ञान के लिये स्मृति, मन के लिये तुष्टि, निर्बल के लिये दया, स्वभाव में नम्रता, क्योंकि नम्र वही हो सकता है, जो शक्ति से परिपूर्ण हो। निर्बल भिक्षुक हो सकता है, याचक हो सकता है।
नवरात्रि ही नहीं, जीवन का प्रत्येक दिन साधनाओं के लिये विशेष सिद्धिदायक माना गया है। शक्ति के इन हजारों स्वरूपों में प्रुमख है- जीवन में अभय शक्ति, शत्रु बाधा अर्थात् विवाद, मुकदमा, षड़यंत्र इत्यादि में विजय, जीवन में प्रेम और रस में निरन्तर अभिवृद्धि। इन तीनों स्थितियों का जीवन में पूर्ण समावेश होना आवश्यक है।
भगवती दुर्गा की साधना प्रत्येक साधक उनके शक्ति प्रदायिनी स्वरूप की प्राप्ति के लिये करता है, क्योंकि दुर्गा शक्ति स्वरूपा कही गई हैं और साधक दुर्गा की शक्ति को स्वयं में समाहित कर समस्याओं से लड़ने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। भगवती दुर्गा का शक्ति स्वरूप अत्यन्त तेजस्विता युक्त है, उनके तेज को आत्मसात कर पाना प्रत्येक मनुष्य के वश की बात नहीं है। एक साधारण मनुष्य उनके भजन तो गा सकता है, उनकी भक्ति तो कर सकता है, लेकिन साधना करने की क्षमता सिर्फ साधकों में होती है, जो पूर्णता के साथ भगवती दुर्गा के शक्ति स्वरूप को स्वयं में समाहित कर सकते हैं।
भगवती दुर्गा की तेजस्विता यदि साधक समाहित करने में सक्षम हो जाये, तो साधक के जीवन का सौभाग्योदय होता है और ऐसा सौभाग्यवर्द्धक क्षण उपस्थित हो रहा है, माघी नवरात्रि पर जब साधक नवरात्रि में दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की साधना कर अपने जीवन को सभी दृष्टियों से पूर्णता प्रदान कर सकता है।
पौराणिक कथाओं में तो बस रक्तबीज की कथा मिलती है, किन्तु आज व्यक्ति के जीवन में चारों और समस्या रूपी अनेक रक्तबीज खड़े हैं, उनके संहार में छिन्नमस्ता साधना एक पृथक व विशिष्ट स्थान रखती है।
पग-पग पर व्यक्ति अनुभव करता है, कि उसने अपनी किसी समस्या के लिये जो समाधान प्राप्त किया है, वह वास्तव में चार नई समस्याओं को जन्म देने वाला बनता जा रहा है और इस ऊहापोह में व्यक्ति इस तरह से किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है कि उसके जीवन की गति, हृदय की उमंग, ओठों की मुस्कराहट सब कुछ खो जाती है। ऐसे में वह कोई चार्तुय कार्य नहीं करता है और लड़ते-लड़ते व्यक्ति उस स्थिति में पहुंच जाता है, कि उसके अन्दर चार्तुय प्रयोग करने की क्षमता भी नहीं रह जाती है।
अन्त में वह हारे को हरिनाम या हरि इच्छा, प्रभु इच्छा का मनत सलबरा ओढ़ एक घुटन में घिर कर रह जाता है। दस महाविद्याओं में छिन्नमस्ता साधना को सर्वाधिक प्रमुखता दी गई है। चित्रों में यदि छिन्नमस्ता को देखा जाये तो उसका अत्यन्त भयानक रूप दिखाई देता है, नृत्य करती हुई देवी जिसके एक हाथ में खड्ग और दूसरे हाथ में तलवार है, जिसका कटा हुआ सिर तीसरे हाथ में है और चौथे हाथ में पाश है। सिर से खून के फव्वारे निकल रहे हैं और पास खड़ी हुई दो योगिनियां उस छलकते हुए खून को अपने मुंह में पी रही हैं। परन्तु यह अपने आपमें एक महत्वपूर्ण साधना है और प्राचीन काल से ही इस साधना को दस महाविद्याओं में सर्वाधिक प्रमुखता दी गई है क्योंकि यही एक मात्र ऐसी साधना है जो शत्रु संहार की श्रेष्ठतम साधना है।
वास्तव में छिन्नमस्ता साधना की आज के भौतिक युग में नितांत आवश्यकता प्रतीत होती है। क्योंकि आज के आधुनिक युग में प्रतिस्पर्धा की लड़ाई शीर्ष पर है। हर व्यक्ति एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। जिसके लिये वे नीच से नीच क्रिया करने से भी नहीं चूकते। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षात्मक कवच के साथ ही साथ भौतिकता के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्णता चाहिये। जिसके लिये यह साधना वज्र के समान फल देने में पूर्णता समर्थ है। वहीं इस साधना के द्वारा आध्यात्मिक उच्चता भी प्राप्त होती है।
नवरात्रि दिवसों में पूर्णरूपेण सभी ग्रह नव शक्तियों स्वरूप में सक्रिय हो जाते हैं और शुक्ल पक्ष की भाव स्थिति के कारण ये दिवस साधना पर्व कहलाते हैं और पूर्ण मनोभाव से विधि-विधान स्वरूप साधना करने से जीवन की मलिनता समाप्त होती ही है, अतः रात्रि काल में साधना सम्पन्न करना श्रेयष्कर रहता है।
पूजा स्थान में तांबे की बड़ी प्लेट में सिन्दूर से स्वस्तिक बनाएं तथा प्लेट के बाहर चारों दिशाओं में सिन्दूर से चार त्रिशूल के निशान बनायें, फिर छिन्नमस्ता यंत्र मध्य में स्थापित कर दें तथा नीलांक्ष को दक्षिण दिशा की ओर बने त्रिशूल पर स्थापित करें और शेष तीनों त्रिशूलों पर एक-एक लौंग रख दें, इन सभी वस्तुओं पर लाल पुष्प तथा कुंकुम से रंगे हुए चावल चढ़ायें। फिर एक माला गुरु मंत्र का जप कर सद्गुरु को साधना सफलता के लिये आवाहित करें। विरोचिनी माला से निम्न मंत्र का 11 माला जप करें।
जप समाप्ति के पश्चात् यंत्र, नीलांक्ष और माला एक साथ नीले रंग के वस्त्र में बांधकर किसी पवित्र सरोवर में विसर्जित कर दें। इस साधना के माध्यम से प्रबल से प्रबल शत्रुओं का भी पूर्ण रूप से नाश होता है साथ ही यदि कारोबार, रोजगार विपन्न अवस्था में चल रहा हो तो इस साधना के बाद धन की सुदृढ़ता होती ही है और आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं। धन का आगमन बराबर बना रहता है।
पराशक्ति की शिव-शक्ति के विग्रह के रूप में प्रथम कल्पना काली के रूप में है, इसलिये इन्हें आद्या भी कहते हैं, तारा द्वितीया और त्रिपुरा तृतीया हैं। ये ही महाविद्या त्रिपुरा, बाला, षोड़शी, राज-राजेश्वरी, त्रिपुर सुन्दरी, श्री विद्या आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। श्री विद्या के नाम से सम्पूर्ण भारत में इनकी उपासना होती है।
अर्थात् पराशक्ति से प्रकट होकर त्रिमूर्ति की सृष्टि करने के कारण, परादेवी के त्रयीमय होने के कारण, प्रलय के बाद तीनों लोकों को पूर्ण कर देने के कारण, प्रायः अम्बिका का नाम त्रिपुरा है।
अर्थात् पुराकाल में ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवों ने इनकी अर्चना की, इसलिये देवताओं ने इन्हें त्रिपुरा नाम दिया।
अर्थात ब्राह्मी, रौद्री, वैष्णवी ये तीनों शक्तियां ही जिसका पुर अर्थात् शरीर हैं, उसे त्रिपुरा कहते हैं। हरितायन संहिता के त्रिुपरा रहस्य महात्म्य खंड के चतुर्थ अध्याय में महामुनि संवर्त ने परशुराम जी से यह प्रश्न किया, कि संसार भय पीडि़तों के लिये शुभ मार्ग कौन सा है? इस प्रश्न का समाधान करते हुये मुनिवर ने कहा है-
गुरोपदिष्ट मार्ग से स्वात्म शक्ति महेश्वरी त्रिपुरा की आराधना कर उनकी कृपा के लेश को प्राप्त करते हुये सर्व साम्य आश्रयात्मक स्वात्मभाव को प्राप्त करो। दृश्यमान सब कुछ आभास मात्र सार शक्ति विलास ही है, त्रिपुरा ही श्रीविद्या, ललिता, कामेश्वरी और महात्रिपुर सुन्दरी हैं।
भगवान परशुराम का नाम तंत्र क्षेत्र में एक माना हुआ नाम है, क्योंकि परशुराम ने तंत्र साधना के क्षेत्र में कई नये आयाम दिये, जिससे संपुष्ट होकर तंत्र सामान्य गृहस्थ व्यक्तियों के लिये अत्यधिक उपयोगी हो गया। परुशराम द्वारा सम्पन्न की गई साधनाओं का वर्णन हरितायन संहिता तथा अन्य विविध शास्त्रों में उद्धृत है, कि परशुराम ने महामुनि संवर्त से संसार भय का नाश कर पूर्ण अभय प्राप्ति तथा सम्पन्नता व प्रभुत्व युक्त होने के लिये महाविद्या त्रिपुरा की साधना प्राप्त की थी।
जिस त्रिपुरा की साधना उन्होंने सम्पन्न कर विशिष्ट स्थान प्राप्त किया, उसी राज-राजेश्वरी त्रिपुरा की साधना पद्धति आप सभी के लिये प्रस्तुत है, जिससे कि आप लोगों के जीवन से भय का नाश हो सके और आप अभय प्राप्त कर निर्द्वन्द्व विचरण करते हुये इस संसार में पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पन्नता और प्रभुता प्राप्त कर सकें।
साधक माहेश्वरी मंत्रों से अभिसिक्त त्रिपुरा यंत्र तथा त्रिशक्ति गुटिका प्राप्त कर लें। नवरात्रि दिवसों अथवा किसी भी माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को प्रातः काल 7 बजे स्नानादि से निवृत्त हो कर पीली धोती तथा गुरु पीताम्बर धारण कर पीले आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठें। किसी ताम्र पात्र में यंत्र स्थापित करें तथा संक्षिप्त पूजन पुष्प, अक्षत व कुंकुम से करें।
गुटिका को यंत्र के ऊपर रख दें। धूप-दीप दिखाकर गुटिका को एकटक देखते हुये 15 मिनट तक निम्न मंत्र का जप करें।
जप समाप्ति पर गुटिका तथा यंत्र को किसी कपड़े में लपेट लें और उसी दिन किसी देवी मंदिर में चढ़ा दें।
कामदेव को पुरुष शक्ति का स्वरूप तथा रति को स्त्री शक्ति का स्वरूप माना गया है और इस सम्बन्ध में जितने ग्रन्थ, काव्य रचनायें लिखी गई हैं, उतनी रचनायें शायद ही किसी अन्य विषय के सम्बन्ध में लिखी गई हों। संस्कृत के काव्य हों अथवा तंत्र के ग्रंथ, उनमें विवरण तो बहुत अधिक दिया गया है लेकिन यह साधना सिद्ध रूप से कैसे की जा सकती है, इसका वास्तविक स्वरूप क्या है और इसे जीवन में कैसे उतारा जाये, इसका वर्णन बहुत कम दिया गया है।
भारतीय संस्कृति में सौन्दर्य को ही जीवन का श्र्रंगार कहा गया है। सौन्दर्य का तात्पर्य ही होता है, जो सभी गुणों से युक्त हो, जिसमें आनन्द, प्रेम, मधुरता, बाहरी और आन्तरिक सुन्दरता का समावेश हो साथ ही श्रेष्ठ संस्कारों से परिपूर्ण भी हो, वही जीवन को सुचारू रूप से जी सकेगा।
जो असंभव है, अप्राप्त है, उसे ही तो संभव करना, प्राप्त करना साधना सिद्धि है और कामदेव अनंग साधना तो आधार है जीवन का। जीवन से काम को अलग कर देने का तात्पर्य है- पुष्प में से उसकी सुगन्ध, उसकी बहार को हटा देना, उसके बिना फिर पुष्प का तात्पर्य ही क्या है? सुगन्ध और ताजगी ही तो आधार है। इसी प्रकार काम जीवन की सुगन्ध है, जिसे गलत समझना जीवन के मूलभूत आधार का निरादर करना है।
कामदेव रति साधाना कौन करें?
इन सब स्थितियों में कामदेव अनंग साधना सम्पन्न करनी चाहिये। यह आनन्द पर्व साधना है, इसमे किसी प्रकार का संकोच नहीं करना चाहिये, क्योंकि तन, मन और हृदय सबका सम्पूर्ण मिलन, समन्वय आधार है कामदेव साधना में सिद्धि का।
पति-पत्नी का माधुर्य सम्बन्ध, प्रेमी-प्रेमिका का एक-दूसरे के प्रति सम्मान व अटूट विश्वास, आपसी सामंजस्य युक्त परिवार, आज्ञाकारी संतान, अपने कार्य क्षेत्र में सम्मानित पद और प्रभावशाली व्यक्तित्व ही जीवन का मूल सौन्दर्य है, इन सभी रसों से आप्लावित होने हेतु कामना पूर्ति कामदेव रति अनंग साधना अवश्य ही सम्पन्न करें, जिससे कामनाओं की पूर्ति और गृहस्थ जीवन को सुचारू रूप से गतिशील करने में पूर्णतः समर्थ हो सकेंगे।
नवरात्रि अथवा किसी भी सोमवार को साधक स्नानादि से निवृत्त होकर अपने सामने चावल की ढ़ेरी बना कर उस पर रति अनंग यंत्र स्थापित कर, अष्ट कामों की प्राप्ति हेतु निम्न मंत्र का उच्चारण कर आठ बार तिलक करें- ऊँ कामायै नमः, ऊँ अनंगाय नमः, ऊँ मन्मथाय नमः, ऊँ बसन्त सखाय नमः, ऊँ स्मराय नमः, ऊँ इक्षुधनुर्धराय नमः, ऊँ पुष्पबाणाय नमः, ऊँ तेजसशरीरायः नमः,।
इसके साथ प्रसाद और सुगन्धित पुष्प अर्पित करें तथा घी का दीपक जला कर दायीं ओर रख दें। पश्चात् कामना पूर्ति सम्मोहन माला से निम्न मंत्र की पांच माला मंत्र जप करें-
मंत्र जप के पश्चात् कामदेव तथा रति को पुष्पांजलि अर्पित करते हुये प्रार्थना करें कि जगत को रति-प्रीति प्रदान करने वाले, जगत को आनन्द कार्य प्रदान करने वाले देव, आपको प्रणाम करता हूं तथा आप मेरे शरीर में स्थायी वास करें एवं मेरी वांछित इच्छाओं की पूर्ति करें। साधना के पश्चात् साधक यंत्र-माला को जलाशय में विसर्जित कर दें।
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