अर्थात् जो भगवान शंकर पर्वतराज हिमालय के समीप मन्दाकिनी के तट पर स्थित केदारखण्ड नामक श्रृंग में निवास करते हैं तथा मुनीश्वरों के द्वारा हमेशा पूजित हैं, देवता, असुर, यक्ष, किन्न्र व नाग आदि भी जिनकी हमेशा पूजा किया करते हैं। उन्हीं अद्वितीय कल्याणकारी केदारनाथ नामक शिव की हम स्तुति करते हैं।
हिमालय पर्वत के बर्फ से ढ़के शुभ्र-धवल शिखरों में केदार शिखर पर भगवान भोलेनाथ की पूजा श्री केदारेश्वर रूप में होती है। अत्यन्त पवित्र एवं प्रसिद्ध केदारनाथ धाम अनादि काल से ही तपोभूमि रही है। सतयुग में उपमन्यु ने यही भगवान शंकर की आराधना की थी। केदार पर्वत में सर्वत्र पवित्र तीर्थ है। यहां भोलेनाथ का नित्य सानिध्य है। इस पुण्य फलदायी ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में पुराणों में कथा वर्णित है कि हिमालय के केदार नामक अत्यन्त शोभाशाली श्रृंग पर महातपस्वी श्री नर और नारायण ने कई वर्षो तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये बड़ी कठिन तपस्या की। कई हजार वर्षों तक वे निराहर एक पैर पर खड़े रहकर शिव नाम जप करते रहे। इस तपस्या के कारण सभी लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, गन्धर्व सभी उनकी साधना संयम की प्रशंसा करने लगे। चराचर जगत के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन- पोषण करने वाले भगवान विष्णु भी महातपस्वी नर-नारायण के तप की प्रशंसा करने लगे। अंत में भगवान शिव भी उनकी उस कठिन तपस्या से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिये। नर और नारायण ने भोलेनाथ के दर्शन से भाव विह्नल और आनंद-विभोर होकर ऋषित्व वाणीमय भाव से पवित्र स्तुतियों और मंत्रों से उनकी पूजा-अर्चना की।
शिवजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। दोनों ऋषियों ने कहा हे देवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न होकर भक्तों के कल्याण के लिये आप सदा के लिये अपने स्वरूप को यहां स्थापित करने की कृपा करें। आपके यहां निवास करने से यह स्थान सर्व स्वरूप में देवमय निर्मित होगा। यहां आपका दर्शन पूजन करने वाले मनुष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभु! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिये अपने स्वरूप को यहां स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें। उनकी यही प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहां वास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय श्रृंग पर स्थित होने से इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है और हम इसे केदारनाथ के नाम से भी जानते हैं। 12 ज्योतिर्लिंगों में यह अद्वितीय देव स्थान है।
अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका।
पुरी, द्वारावतिश्चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
जिस तरह से मोक्षदायिनी स्वरूप में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, वाराणसी, कांचीपुरम, उज्जयिनी, द्वारका पुरी तारण स्वरूप में है, वैसा ही धर्म, अर्थ, काम की चेतनाओं से पूर्णता प्रदान करने में केदारनाथ ज्योतिर्लिंग है। ऐसा कहा जाता है कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। पुराणों के अनुसार केदार महिष अर्थात् जो भैंसे का पिछला अंग है। यहां भगवान शिव भूमि में समा गये थे। स्कन्द पुराण में भगवान शंकर माता पार्वती से कहते हैं- हे प्राणेश्वरी! यह क्षेत्र उतना ही प्राचीन है, जितना की मैं हूं। मैंने इसी स्थान पर सृष्टि की रचना के लिये ब्रह्मा के रूप में परब्रह्मत्व को प्राप्त किया, तभी से यह स्थान मेरा चिर-परिचित आवास है। यह केदारखंड मेरा चिर निवास होने के कारण भू-स्वर्ग के समान है।
पंचकेदार की कथा अनुसार पांडवों द्वारा महाभारत युद्ध में विजयी होने के पश्चात कौरव रूपी भ्रातहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिये भगवान शंकर को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद आवश्यक था। लेकिन भगवान शंकर उन लोगों से रूष्ट थे। इसलिये भगवान शंकर अंतर्ध्यान होकर केदार में जा बसे। पांडव भी ध्यान-चिंतन करते हुये केदार पहुंच गये।
भगवान शंकर ने तब तक भैसें का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। भगवान को ढूंढने के लिये भीम ने अपनी देह को विशाल रूप में दो पहाड़ो पर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल और भैसें तो निकल गये पर शिव जी रूपी भैंसे पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुये। भीम बल पूर्वक भैसे पर झपटे, लेकिन भैंसा भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा।
तब भीम ने भैंसे की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों के दृढ़ संकल्प और भक्ति को देखकर प्रसन्न हो गये। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर भैंस की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। केदारनाथ ज्योतिर्मंय चेतना शक्ति आत्मसात करने से शिव-गौरी अखण्ड सौभाग्य शक्ति की प्राप्ति होती है और जीवन सुख-सम्पदा चिर-स्थिर बना रहता है।
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