अधिकांश लोग यह नहीं जानते कि खुशी क्या है? वे समझते हैं कि खुशी मिलती है बहुत सारे पैसे से, बड़े से घर से, लेकिन वास्तव में सच यह है कि कई लोग यह सब कुछ होते हुये भी खुश नहीं है, चेहरे पर चमक नहीं है जबकि बहुत से लोग इन सबके बिना भी बहुत खुश हैं और जिन्दगी का भरपूर सुख उठाते रहते हैं।
वे लोग दुखी रहने में सबसे आगे हैं, जो नकारात्मक चीजों पर अधिक ध्यान देते हैं, जैसे जीवन में क्या-क्या गलत है या उन्हें क्या-क्या अभी तक नहीं मिल पाया। इसके विपरीत वे लोग कम से कम में भी सुखी हैं, जिन्हें जो कुछ भी मिला है, वे उसी से संतुष्ट हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार नकारात्मक तत्व हमारे जीवन में दुःख, असंतोष एवं अशान्ति का संचार करते हैं, जबकि सकारात्मक तत्व हमें आन्तरिक खुशी, संतोष एवं शान्ति देते हैं।
खुशी बाजार से मिलने वाली कोई वस्तु नहीं है, जिसे पैसे देकर खरीदा जा सके। इसका आकार नहीं होता और न ही इसे चुराया जा सकता है। खुशी छोटी या बड़ी नहीं होती और न ही यह बड़ी चीजों को हासिल करने से बनी रहती है। यह तो जिन्दगी की छोटी-छोटी चीजों से मिलती रहती है। बस! हमें उन्हें देखने तथा समझने का तरीका नहीं आता। जिन्हें जीवन की बड़ी खुशी समझा जाता है, जैसे- नयी कार खरीदना, अच्छी नौकरी हासिल करना, सैलरी बढ़ना आदि। एक तो ये जीवन में बहुत कम आती है और दूसरा इन्हें महत्व देकर हम स्वयं को भुला देते हैं और स्वयं से दूर हो जाते हैं, सच तो यह है कि जीवन में बड़ी उपलब्धि एवं बड़ी खुशी पाने के लिये हम इन ढ़ेर सारी छोटी-छोटी खुशियों की निरर्थक बलि देते रहते हैं और इस तरह न तो हम वर्तमान में खुश रह पाते हैं और न ही भविष्य को सुखद कर पाते हैं। इसका कारण यह भी है कि निरन्तर नकारात्मक चिन्तन से और इस सोच से कि जो हमे मिला है, वह कम है, हमारा स्वभाव ही कुछ इस तरह का बन जाता है कि हम जाने-अनजाने मिलने वाली इन खुशियों की परवाह ही नहीं करते और सदा दुखी रहने को अपना स्वभाव बना लेते हैं। खुशी तो देने की चीज है, जिसे जितना बांटो, वह उतनी ही बढ़ती है। यह जितना चाहो, उतनी मिल सकती है। बस, हमें केवल इसे देखने एवं समझने का नजरिया बदलने की आवश्यकता है।
ऐसा ही एक उपाय है कि हम सदा स्वयं से प्रेम करें। जब हम स्वयं को चाहते हैं, पसन्द करते हैं, तब ही दूसरों से प्रेम कर पाने में और उन्हें आत्मीयता दे पाने में समर्थ हो पाते हैं। जो स्वयं से असन्तुष्ट होते है और सदा अपने व्यक्तित्व में कमियां देखते रहते हैं, उनके आत्मविश्वास में कमी बनी रहती है और वे दूसरों का भी प्रोत्साहन नहीं कर पाते। उनकी अपनी असुरक्षा उन्हें दूसरों को भी संरक्षण और सुरक्षा देने में नाकामयाब बना देती है।
एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म अर्थात् ईश्वर की खोज में अपने समय का सद्पयोग करें, राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर गुरु को अपनी समस्यायें बताते हुये कहा कि- उसे राज्य का कोई योग्य वारिस नहीं मिल पा रहा है और राजा का बच्चा छोटा है, इसलिये वह राजा बनने योग्य नहीं है। जब भी कोई योग्य पात्र मिलेगा, जिसमें राज्य संभालने के सारे गुण हों तो वह राज-पाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिये समर्पित कर देगा। गुरु ने कहा राज्य की बागडोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते, क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है? राजा ने कहा मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभाल सकता है। लीजिये मैं इसी समय राज्य की बागडोर आपके हाथों में सौंपता हूं, गुरु ने पूछा अब तुम क्या करोगे? राजा बोला- मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूंगा जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाये। गुरु ने कहा मगर अब खजाना तो मेरा है, मैं तुम्हें एक पैसा भी नहीं लेने दूंगा। राजा बोला- फिर ठीक है मैं कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर लूंगा, उससे जो भी मिलेगा, गुजारा कर लूंगा व ईश्वर उपासना भी करता रहूंगा, गुरु ने कहा- अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहां एक नौकरी खाली है, क्या तुम मेरे यहां नौकरी करना चाहोगे, राजा ने बोला कोई भी नौकरी हो मैं करने को तैयार हूं, गुरु ने कहा- मेरे यहां राजा की नौकरी खाली है, मैं चाहता हूं कि तुम मेरे लिये यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना।
एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था, अब तो दोनों ही काम हो रहे थे, जिस अध्यात्म के लिये राजा राज-पाठ छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य संभालने का काम भी अच्छी तरह से चल रहा था। अब उसे कोई चिन्ता नहीं थी। इस कहानी से समझ में आयेगा कि वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ कुछ भी तो नहीं, राज्य वही, राजा वही, काम वही, केवल दृष्टिकोण बदल गया, इसी तरह हम भी अपने जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें, कि- मैं संसार में मालिक बनकर नहीं आया, बल्कि यह सोचकर सांसारिक कार्य करें कि मैं ईश्वर की नौकरी कर रहा हूं। अब ईश्वर ही जाने सबकुछ गुरु रूपी ईश्वर पर छोड़ देंगे तो फिर आप हर समस्या और परिस्थितियों में भी खुशहाल रहेंगे।
परमात्मा ने हर मनुष्य को कोई न कोई खास गुण दिया है, जिसे हम पहचानें, खोजें और निखारने का प्रयास करें। हर व्यक्ति अपने आपमें विलक्षण एवं खास है और परमात्मा ने उसके जैसा दुनिया में किसी दूसरे को नहीं बनाया है। इसलिये यदि हम यही दृष्टिकोण रखकर अपने व्यक्तित्व की विशेषताओं पर ध्यान देते हुये उनको विकसित करने का प्रयास करें तो शनैः शनैः व्यक्तित्व ऐसी अनगिनत विशेषताओं से परिपूर्ण हो जायेगा और हम अपनी एक विशेष पहचान बना पाने में सफल हो जायेंगे। अपनी विशेषताओं पर ध्यान देने का अर्थ दूसरे के व्यक्तित्व में कमियां निकालना या दूसरों से अपनी तुलना करना नहीं है। इसका अर्थ मात्र अपने जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना और उसे उसी अनुरुप विकसित करना है।
सकारात्मक दृष्टिकोण रखने का उपाय यह भी है कि जिन कार्यों को अतीत में नहीं किया जा सकता, उन्हें वर्तमान में करने का प्रयास करें और इस तरह प्राप्त उपलब्धियों से हमारे आत्मविश्वास में जो बढ़ोत्तरी होगी, वह हमें भविष्य में बड़े कार्यों को नूतन संकल्प के साथ करने का साहस भी प्रदान करेगी। बढ़ा हुआ आत्मविश्वास न केवल सन्तुष्टि का आधार बनेगा, बल्कि स्वतः ही हमें वह खुशी प्रदान करेगा, जिसे प्राप्त करने का स्वप्न हम सदा देखते हैं। मन में आत्म विश्वास पैदा करने एवं अपनी खुशी को बढ़ाने का एक अच्छा उपाय यह भी है कि हम विगत अतीत में अपने द्वारा प्राप्त की गयी सफलताओं को याद करें। अतीत में मिली कामयाबियों एवं जटिल संघर्षों को याद करने से मन में यह आत्म विश्वास स्वतः पैदा होता है कि हम भविष्य में भी इस तरह के अच्छे कार्य कर सकते हैं।
जीवन में फालतू की संख्याओं को दूर फेंकने का कार्य करें- जैसे उम्र, वजन, लम्बाई इसकी चिंता डॅाक्टर को करने दीजिये, केवल हंसमुख लोगो से दोस्ती रखिये, खडूस और चिड़चिडे लोग तो आपको नीचे गिरा देंगे, सरल व साधारण चीजों का आनन्द लीजिये। अपने अर्न्तमन को निरन्तर पठन-पाठन व ज्ञान के माध्यम से श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करें और इसके लिये हमें यथा सम्भव प्रयास करना चाहिये। नियमित स्वाध्याय, सत्संग, पीडि़तों की सेवा, सुनी एवं पढ़ी गयी अच्छी बातों पर चिन्तन, मनन एवं उन्हें जीवन में उतारने के लिये किये गये प्रयत्न ही वे सब माध्यम है, जो मनुष्य को सुखी बनाते हैं।
अपनी नकारात्म्क सोच से मुक्ति पाने के लिये सकारात्मक सोच को अपनाना जरुरी है और इसे अपनाने के लिये जरूरी है कि हम न केवल दिये गये उपायों को अपनी सोच में सम्मिलित करें वरन उनका निरन्तर प्रयोग भी करे, तभी व्यक्तित्व में स्थायी परिर्वतन ला पाना संभव होगा, जो हमारे सुख को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा।
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