जो भगवान शंकर आनन्दवन काशी क्षेत्र में आनन्द पूर्वक निवास करते है, जो परमानन्द के विधान एंव आदिकारण है और जो पाप समूह का नाश करने वाले है, ऐसे अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की शरण में हम जाते हैं।
अविमुक्त क्षेत्र रूप में प्रसिद्ध, प्रलय में भी नष्ट न होने वाली तथा शंकर के त्रिशूल पर स्थित काशी नगरी में भगवान विश्वेश्वर या विश्वनाथ जी का ज्योतिर्लिंग है। अनादिकाल से स्थित इस पूजा स्थल की पुनर्स्थापना भगवान शंकर के अवतार आद्य शंकराचार्य ने की थी। किन्तु औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ कर वहां ज्ञानवापी मस्जिद बना दी। वर्तमान मंदिर भगवान शिव की परमभक्त रानी अहिल्या बाई होल्कर के द्वारा स्थापित किया गया है। दोनों काशी विश्वनाथ और ज्ञानवापी मस्जिद आपस में सटै हुये हैं। आज भी मस्जिद की दीवारों पर मंदिर की सुंदर कलाकृतियों के अवशेष देखने को मिलते हैं। जहां गरुण और असि नदी गंगा में मिलती है, वहीं पर यह प्राचीन नगरी वाराणसी स्थिति है।
पुराने समय में काशी जनजाति के लोगों के यहां रहने के कारण इसे काशी नाम से भी जाना जाता है। इस धार्मिक स्थली पर गंगा धनुष के आकार में बहती है। ज्यातिर्लिंगों में विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्व है। इस ज्योतिर्लिंग पर पंचामृत से अभिषेक होता रहता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान शंकर यहां मरते हुये प्राणियों के कानों में तारक मंत्र बोलते हैं। जिससे प्राणी भव सागर की बाधाओं से मुक्त हो जाते हैं। पुराणों में इस स्थान को मोक्ष नगरी कहा गया है। महाराजा रंजीत सिंह ने हजार किलो सोने से मंदिर के कलश को लगवाया था। शिखर पर स्वर्ण होने के कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं।
दशाश्वमेघ घाट की ओर जाने वाली सड़क पर बाई और एक पतली गली में घूमकर पर्याप्त देर चलकर यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर आता है। यहां अहर्निश भक्तों की भीड़ लगी रहती है। चांदी के सिक्के जडि़त आंगन को पार करते ही ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। यह ज्योतिर्लिंग पृथ्वी में बने एक गढ्ढे में है जिसकी गहराई अतल कही जाती है, गड्डे में पानी भरा होता है और ऊपर से भगवान के दर्शन नहीं होते। हाथ से स्पर्श करके ही पूजा की जाती है। यहां के दर्शन जन्म जन्मांतर के पापों को नष्ट कर देते हैं। यहां निरंतर शिवकवच, रूद्राष्टक, चन्द्रशेखराष्ट तथा अन्य शिव स्तुतियों का पाठ होता रहता है। बनारस के रहने वाले भगवान विश्वनाथ को प्यार, भक्ति और आदर से बाबा कहकर ही बुलाते हैं। भगवान शिव की चिरसंगिनी भगवती अन्नपूर्णा के रूप में यहां निवास करती हैं।
पुराणों में इस ज्योलिर्लिंग के सम्बन्ध में यह कथा दी गई है। भगवान शंकर पार्वती जी से विवाह पश्चात् कैलाश पर्वत पर रह रहे थे। लेकिन वहां पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वती जी को अच्छा न लगता था। एक दिन उन्होंने भगवान शिव से कहा, आप मुझे अपने घर ले चलिये और कोई स्थान चुनिये। भगवान शिव को वाराणसी नगरी बहुत पसन्द आयी। शिव जी के निवास स्थान पर शांति रखने के लिये निकुंभ नामक शिवगण ने वाराणसी नगरी को निर्मनुष्य कर दिया। उस समय वहां राजा दिवोदास का शासन था। राजा को इस बात से बहुत दुख हुआ और उन्होंने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अपना दुख दूर करने की प्रार्थना की।
राजा दिवोदास ने कहा कि देवता देवलोक में रहें, पृथ्वी तो मनुष्यों के लिये है। ब्रह्मा जी के कहने पर भगवान शिव मंदराचल पर्वत पर आ गये। वे चले तो गये लेकिन काशी नगरी के लिये अपना मोह नहीं त्याग सके। तब भगवान विष्णु ने राजा को तपोवन में जाने का आदेश दिश। उसके बाद वाराणसी में भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिये वहीं स्थापित हो गये।
इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान शिव की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।
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