वस्तुतः कोई भी अभिभावक अपनी संतति के प्रति सदैव आशुतोष के समान शीघ्र प्रसन्न होने वाला ही रहता है। उसकी तो केवल यही स्पृहा होती है, कि उसकी संतान उससे कुछ मांगे तो सही। अपने माता-पिता से कुछ मांगना ही तो सूचक होता है उस स्नेह तंतु का, जो अभिभावक व संतान के मध्य विद्यमान होता है, मांगना किसी भी प्रकार में याचना नहीं होती, मांगना और आग्रह करना तो बस एक क्रिया होती है, जो मध्य के स्नेह तंतु को स्पन्दित कर जाती है।
ईश्वर का सर्वोच्च स्वरूप केवल भावनामय ही होता है। भक्त अथवा साधक जिस क्षण उससे कुछ मांगता है, तो प्रकारान्तर से वह यह भी सूचित कर रहा होता है, कि वह सम्बन्धित देवी अथवा देवता से अपने को किसी रूप में जुड़ा अनुभव कर रहा है। यह भावना अथवा मांगने की क्रिया जितनी अधिक प्रगाढ़ होगी, साधक अपनी प्राप्ति के भी उतना ही सन्निकट होगा।
भगवान शिव तो सम्पूर्ण रूप से भावनामय ही हैं, किसी भी देवी या देवता से कहीं अधिक। यह भावना ही तो है कि वे क्षण भर में रीझ जाते हैं। तो क्यों नहीं साधक ऐसे महादेव से अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकता है ?
भगवान शिव की अपेक्षा और कौन देवता हो सकता है जो क्षण मात्र में उसकी कामना पूर्ण कर सकता हो अथवा उसकी समस्याओं का निराकरण कर सकता हो। आवश्यकता होती है तो केवल इतनी, कि साधक को अपनी बात कहने का ढंग मालूम हो, क्योंकि हम सामान्य चेतना से किसी देवी अथवा देवता की चेतना का स्पर्श नहीं कर सकते है, इसी कारणवश तो साधना पद्धतियों का जन्म व विकास हुआ। प्रत्येक साधना पद्धति याचना के एक परिष्कृत एवं सुव्यवस्थित क्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। फिर जहां औघड़दानी शिव की बात हो, जो बेल पत्र और पुष्पों के अर्घ्य से ही रीझ जाते हों, उनके समक्ष किसी सुविस्तृत अथवा जटिल साधना विधि को सम्पन्न करने की आवश्यकता भी क्या ?
इसी चिंतन को ध्यान में रख कर आगे की पंक्तियों में लघु साधनायें प्रस्तुत की जा रहीं हैं, जिन्हें भगवान शिव के सर्वाधिक आह्लादकारी दिवस महाशिवरात्रि पर सम्पन्न कर साधकगण अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं अथवा अपनी किसी भी समस्या का निराकरण कर सकते हैं।
प्रस्तुत साधनाओं में वस्तुतः भगवान शिव के ही सम्पूर्ण वरदायक स्वरूप का समाहितीकरण किया गया है। साधक अपनी रुचि व क्षमता के अनुसार एक या एक से अधिक साधना करने के लिए स्वतंत्र है। निम्न साधनाओं को सम्पन्न करना साधक के लिए निश्चित रूप से भाग्योदयकारी सिद्ध होगा ही।
वस्तुतः जीवन में उत्साह का प्रादुर्भाव तभी हो पाता है, जब व्यक्ति विविध चिंताओं से मुक्त होता हुआ वृद्धत्व की ओर अग्रसर हो रहा हो, इस हेतु आवश्यक है, कि साधक महाशिवरात्रि के अवसर पर सदाशिव यंत्र को स्थापित कर निम्न मंत्र का 75 बार जप कर अगले दिन यंत्र को विसर्जित कर दें।
भगवान शिव की एक उपाधि कुबेराधिपति भी है, अतः यह सहज संभव है कि साधक भगवान शिव की साधना कर स्वयं भी कुबेरवत बनने में समर्थ हो सके। इस हेतु शिव यंत्र को अपने समक्ष स्थापित कर निम्न मंत्र का 60 बार जप करें –
पांच दिन मंत्र जप के पश्चात शिव यंत्र को नदी में विसर्जित कर दें।
जीवन में केवल रोग, पीड़ा की बराबर उपस्थिति ही नहीं, अनेक-अनेक समस्याओं का एक कारण किसी प्रतिस्पर्द्धी अथवा ईर्ष्यालु पड़ोसी द्वारा अथवा रिश्तेदार द्वारा किसी तांत्रिक के माध्यम से सम्पन्न कर दिया तंत्र प्रयोग, मूठ प्रयोग भी होता है, जिसके निराकरण की साधना सम्पन्न करना जीवन की प्रथम आवश्यकता होती है। किसी पात्र में शिवगौरी यंत्र रख, पन्द्रह मिनट तक निम्न मंत्र जप के साथ दुग्ध धार चढ़ा कर, कुछ दुग्ध का तो परिवार के सभी सदस्य पान कर लें और शेष दुग्ध पूरे घर में छिड़क दें।
यह प्रयोग पांच दिन तक करें, प्रयोग समाप्ति के बाद यंत्र को नदी में प्रवाहित कर दें।
मृत्यु की कल्पना किसे नहीं विचलित कर देती? किंतु उससे भी अधिक त्रासदीदायक होती है वह स्थिति, जहां व्यक्ति को किसी कारण विशेष से पल-प्रतिपल दुर्घटना का भय बना रहता हो। केवल किसी व्यक्ति रूपी शत्रु के द्वारा ही नहीं, जीवन में अनेक परिस्थितियां ऐसी भी होती हैं, जहां व्यक्ति को अपने प्राण अपनी हथेली पर रखकर, परिवार की चिंता में घुलते हुए, जीवन यापन की किसी एक शैली को अपना कर, जीने के लिए विवश होना पड़ता है। व्यक्ति के जीवन में ऐसी स्थिति न आए, वह किसी भी भावी दुर्घटना अथवा अकाल मृत्यु के भय से सर्वथा सुरक्षित एवं निश्चित रह सके, इसके लिए भगवान शिव के मृत्युंजय स्वरूप की साधना प्राचीन परम्परा रही है।
महाशिवरात्रि के पर्व पर अपने समक्ष किसी लाल रंग के वस्त्र को बिछा, उसके ऊपर ताम्रपात्र में मृत्युजंय यंत्र की स्थापना कर, निम्न मंत्र का 51 बार जप सम्पन्न कर, उस यंत्र को कुछ धनराशि के साथ किसी भी देवालय में चढ़ा दें, ऐसी समस्त दुःसाधय स्थितियों से त्राण दिलाने में यह साधना सहायक है।
जीवन की श्रेष्ठता तो तभी संभव है, जब व्यक्ति का समाज में एक वर्चस्व हो, जहां उसकी बातों को ध्यान पूर्वक सुना जाता हो, सम्मान पूर्वक ग्रहण किया जाता हो और वह सबके हृदय पर शासन करने में समर्थ हो। केवल रुपये-पैसे के ढेर से ही कोई व्यक्ति इस स्थिति को नहीं प्राप्त कर सकता। लखपति-करोड़पति तो चारों ओर बिखरे बहुत से मिल जाते हैं, किन्तु दो को छोड़ शायद तीसरे घर वाला ही उनका वास्तविक परिचय जानता हो। अतः आवश्यक है कि जीवन में ऐसे ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जिससे जीवन में सुख-शांति की प्राप्ति की जा सके।
किसी ताम्रपात्र में चावलों की ढेरी पर कमलासन रख उसका पूजन बिल्व पत्र, गुलाब के पुष्प एवं अक्षत से करें, निम्न मंत्र का 75 बार जप सम्पन्न करें-
सुयोग्य सुसंस्कावान संतान को जीवन में लक्ष्मी का ही एक स्वरूप माना गया है। प्रश्न यह नहीं मुख्य होता कि संतान बालक हो या बालिका अपितु महत्वपूर्ण यह होता है, कि वह जीवन में किस ऊंचाई तक पहुंचेगा, उसका स्वास्थ्य कैसा रहेगा, उसकी शिक्षा-दीक्षा कैसी होगी इत्यादि। साथ ही महत्वपूर्ण यह भी होता है कि यथोचित समय पर घर में संतान की किलकारियां भी गूंजें, इसमें विलम्ब न हो। इन्हीं सब स्थितियों हेतु यह साधना विधान शास्त्रों में कथित है। इस साधना को विवाहित दम्पति या पति अथवा पत्नी दोनों में से कोई भी सम्पन्न कर सकता है। इस प्रयोग को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि साधक या साधिका के पास लघु मोती शंख हो जिस पर केसर से तिलक करें, घी का दीपक लगा कर निम्न मंत्र का 68 बार मंत्र जप करें-
एक माह पश्चात मोती शंख को नदी में विसर्जित कर दें।
जिस प्रकार से प्रायः किन्हीं कारणों से व्यक्ति का अन्तर्मन जड़ हो जाता है, उसका किसी कार्य में मन नहीं लगता है, उसकी अवनति होने लगती है, उसी प्रकार अनेक कारणों से व्यापार में कुछ ऐसी बाधाएं आ जाती हैं, जिसका कारण व्यक्ति समझ तो सकता है किन्तु उसके निराकरण का कोई भी उपाय नहीं कर पाता। योग्य कर्मचारी न मिलना, कर्मचारियों में परस्पर वैमनस्यता बना रहना, हड़ताल व तालाबंदी की स्थिति आ जाना, आयकर अथवा बिक्रीकर विभाग द्वारा दबाव बना रहना, ऐसी ही कुछ स्थितियां होती हैं, जिसके समाधान हेतु किसी पात्र में कपाली गुटिका को रख निम्न मंत्र का 51 बार उच्चारण कर, उस गुटिका को अपने व्यापार स्थल या तिजोरी में रख देना लाभप्रद होता है।
व्यक्ति जहां रहता है अथवा जिस स्थान पर रहकर वह अपना व्यापार आदि करता है, उस भूमि का भी अपना दोष या गुण होता है, जिसकी रश्मियां प्रभावित करती रहती हैं। अनेक बार तो ऐसा भी देखा गया है, कि कोई व्यक्ति किसी साधना अथवा जीवनयापन में सब ओर से हार कर असफल बैठ जाने के बाद, जब अपनी भूमि का अथवा गृह या व्यापार स्थल का शोधन करवा लेता है, तो उसे आशातीत सफलता मिलने लग जाती है।
महाशिवरात्रि की रात्रि में दस बजे किसी ताम्रपात्र में शण्ड को रख उस पात्र को काले वस्त्र पर स्थापित कर, निम्न मंत्र का 91 बार मंत्र जप करने के पश्चात उसी काले वस्त्र में बांध कर घर अथवा व्यापार स्थल पर रखें।
जीवन के समस्त सुखों का उपभोग तभी संभव है जब साधक न केवल तन से अपितु मन से भी यौवनवान हो तथा प्रवाह युक्त बनकर जीवन पर्यन्त सरस बना रह सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु साधक को चाहिए कि वह चन्द्रचूड़ प्राप्त कर उसका सामान्य पूजन कर, निम्न मंत्र का 51 बार मंत्र जप सम्पन्न कर अगले दिन चंद्रचूड को विसर्जित कर दें।
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