होली का आगमन सभी के प्राणों को झंकृत कर देता है, सभी के दिलों में उमंग, उल्लास, जोश भर देता है, सभी उमंग, उल्लासित हो नाचने-झूमने लगते हैं, सभी भंवरे की भांति फूलों का रस पी, मतवाले हो गुन-गुन कर छलिया बन गाने लगते हैं।
होली ‘राग और रंग’ का पवित्र त्यौहार है। होली के आगमन से पूर्व ही जन-जीवन में बसंत अपनी मादकता का प्रभाव दिखाने लगता है, सबके दिलों में उत्साह प्रेम का संचार होने लगता है। लोक-संस्कृति तथा गीतों की मधुमय सुगन्ध से समस्त प्रकृति मदमस्त हो उठती है।
‘होली’ शब्द सुनते ही द्वापर युग की याद हो जाती है, जब कृष्ण राधा और गोपियों के साथ यमुना तट पर होली खेला करते थे, अत्यन्त तन्मयता और मस्ती भरी होली, जब राधा और समस्त गोपियां कृष्ण के ही रंग में रंग गई थी, जब उन्होंने अपने तन-मन पर कृष्ण की ही मनमोहक छवि अंकित कर ली थी, जब उन्होंने कृष्ण के ही रंग में रंगी चादर को तन कर ओढ़ लिया था, तभी तो होली का नाम लेते ही ‘ब्रज की होली’ का स्मरण सर्वप्रथम आता है, एक ऐसा श्यामल रंग, जो कभी नहीं उतरा, और न ही कोई दूसरा रंग उस पर चढ़ सका।
इतना गहरा, इतना सुन्दर, इतना आनन्दित कर देने वाला, कि उसके आगे तो सभी रंग फीके नजर आते हैं, जिसने तन को ही नहीं, अपितु पूरे जीवन को ही रंग दिया, उस प्रेम, रस और आनन्द की फुहार से, जो तन-मन पर वर्षा बनकर बिखरा था, उन गोप-ग्वालों और गोपिकाओं को प्रेम रस में भिगो देने के लिए, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन हमें कवियों के गीतों और कविताओं में स्पष्ट झलकता है, और उनसे ही पता चलता है कि वह दृश्य, वह आनन्द, वह रंग क्या था, और कैसा था, जिसमें वे रंगे थे, जिसमें वे लीन हुए थे, जो उनके जीवन का आनन्द था? कैसा था वह रंग बसंती, जिसने उन ब्रजवासियों को बेसुध कर, असीम आनन्द की उपलब्धि प्रदान की थी?
होली का पर्व पूर्णिमा के दिन आता है और इस रात्रि से ही जिस काम महोत्सव का प्रारम्भ होता है उसका भी पूरे संसार में विशेष महत्व है क्योंकि काम शिव के तृतीय नेत्र से भस्म होकर पूरे संसार में अदृश्य रूप से व्याप्त हो गया। इस कारण उसे अपने भीतर-स्थापित कर देने की क्रिया साधना इसी दिन से प्रारम्भ की जाती है। सौन्दर्य, आकर्षण, वशीकरण, सम्मोहन, उच्चाटन आदि से सम्बन्धित विशेष साधनाएं इसी दिन सम्पन्न की जाती है। शत्रु बाधा निवारण हेतु, शत्रु को पूर्ण रूप से भस्म कर उसे राख बना देना अर्थात् अपने जीवन की बाधाओं को पूर्ण रूप से नष्ट कर देने की तीव्र साधनायें भी प्रारम्भ की जा सकती है तथा इन साधनाओं में विशेष सफलता शीघ्र प्राप्त होती है। तांत्रोक्त साधनाएं ही नहीं दस महाविद्या साधनाएं, अप्सरा या यक्षिणी साधना या फिर वीर वैताल, भैरव जैसी उग्र साधनाएं भी सम्पन्न की जाए तो सफलता एक प्रकार से सामने हाथ बांधे खड़ी हो जाती है। जिन साधनाओं में पूरे वर्ष भर सफलता न मिल पाई हों, उन्हें भी एक बार फिर इसी अवसर पर दोहरा लेना ही चाहिए।
तांत्रोक्त साधनाओं का यह तात्पर्य नहीं है कि वे साधनाएं केवल किसी को हानि पंहुचाने के लिए अथवा जीवन में शक्ति प्राप्त कर उसका दुरूपयोग करने के लिए ही हो। वास्तव में तंत्र साधना को तीन भागों में बांटा गया है जिसे आचार कहा गया है। यह तीन आचार है –
1- वामाचार 2- दक्षिणाचार 3- दिव्याचार
वाम एवं दक्षिणाचार और तंत्र परस्पर एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक ही लक्ष्य पर ले जाते हैं। केवल भेद इतना है कि वामाचार प्रकृति मूलक है। प्रकृति से निवृत्ति की ओर ले जाने वाले तंत्रचार को दिव्याचार कहते हैं। प्रकृति तो प्रत्येक व्यक्ति जीवन का सहज गुण है परन्तु निवृत्ति महाफलदायक होती है। इन दिनों तंत्रचार का निर्धारण करना चाहिए तथा गुरु भी शिष्य की प्रकृति अभिरूचि और शक्ति का विचार कर काम्य एवं निष्काम साधना उपासनाओं का ज्ञान प्रदान करते हैं।
ये जीवन विभिन्न रंगो से भरा है और गृहस्थ व्यक्ति को संसार का सबसे बड़ा योगी कहना उचित है क्योंकि वह संसार के सारे कार्यों को सम्पन्न करता हुआ गुरु एवं ईश्वर में ध्यान लगाता हुआ अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहता है।
गुरु के रंग में रंग जाने के लिए ही हमें प्रेरित करता है यह होली का त्यौहार, जो मनुष्य के समस्त विकारों को दूर कर, उन्हें प्रेम के रस में आप्लावित कर देने का पर्व है।
होली का पर्व दो महापर्वों के ठीक मध्य घटित होने वाला पर्व! होली के पन्द्रह दिन पूर्व ही सम्पन्न होता है महाशिवरात्रि का पर्व और पन्द्रह दिन बाद चैत्र नवरात्रि का। शिव और शक्ति के ठीक मध्य का पर्व और एक प्रकार से कहा जाए तो शिवत्व के शक्ति से सम्पर्क के अवसर पर ही यह पर्व आता है। जहां शिव और शक्ति का मिलन है, वहीं ऊर्जा की लहरियों का विस्फोट है और तंत्र का प्रादुर्भाव है, क्योंकि तंत्र की उत्पत्ति ही शिव और शक्ति के मिलन से हुई। यह विशेषता तो किसी भी अन्य पर्व में सम्भव नहीं और इसी से होली का पर्व वर्ष का श्रेष्ठ पर्व, साधनाओं का सिद्ध मुहूर्त, तांत्रिकों के सौभाग्य की घड़ी कहा गया है।
होली पर्व पर घर के दुख दारिद्रय रूपी कूड़े को जीवन से निकाल बाहर फेंक देने का पर्व है, दीवाली से होली तक आपने क्या-क्या कार्य किये हैं अपने जीवन में क्या-क्या लक्ष्य स्थापित किया है और उस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आपने अपनी कार्य क्षमता में कितना विकास किया है। यह सब अपने मन ही मन समझ कर अपनी गलतियों पर विचार कर उन्हें पुनः नहीं दोहराने का संकल्प दिवस है।
यदि प्रह्लाद एक राक्षस के घर उत्पन्न होकर अपने आप को इतना महान भक्त बना सकता है कि उसने भगवान नृसिंह का आह्नान कर दिया और संसार में पुनः ऋषि मुनियों की प्रतिष्ठा स्थापित की। यह ठीक है कि आप भी सड़े-गले समाज में पैदा हुए हैं जहां आपको परिवार का सहयोग नहीं है, आप कुछ भी कार्य करने से पहले आवश्यकता से अधिक घबराते हैं लेकिन साथ ही यह याद रखें कि आपके पास सक्षम गरु है, श्रेष्ठ साधनाएं हैं और आप स्वयं तंत्र क्रिया द्वारा अपने जीवन तंत्र को उत्तम बना सकते हैं।
जिस दिन आपने साधना के क्षेत्र में पहला कदम उठा दिया तो निश्चय ही दूसरा कदम आगे बढ़ेगा। अपने इस जन्म के दोषों को तो दूर कर ही देंगे पिछले जन्म के दोषों को भी दूर कर अपना भाग्य स्वयं लिखने में समर्थ हो सकेंगे। यह तांत्रोक्त महापर्व 08-09 मार्च को सम्पन्न हो रहा है। जो साधक अपने जीवन को और अपने जीवन से भी आगे बढ़कर संवारने की इच्छा रखते हैं, उन्हें पूज्य सद्गुरुदेव के सानिध्य व जोधपुर की तपोभूमि कैलाश सिद्धाश्रम में सम्पन्न हो रहे तांत्रेक्त होली महोत्सव में भागीदार बनकर जीवन की समस्त विषमताओं का शमन करना ही चाहिये। आपका हृदय से स्वागत है—-!
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