प्यास है मनुष्य के मन में गहरी, प्रार्थना भी उठती है, लेकिन उस अनाम को पुकारें कैसे? रोना भी हो उसके चरणों में तो कहां उसके चरण खोजें? प्राणों में गूंज उठती भी हो उसके लिये, किस दिशा में जाये वह गूंज? पैर दौड़ना भी चाहते हों उसकी ओर, कहां है उसका मंदिर? कोई उसका पता-ठिकाना नहीं, कोई उसकी राह नहीं, कोई उसकी दिशा नहीं। क्योंकि सभी दिशायें उसकी हैं, सभी राहें उसकी है और इंच-इंच उसका मंदिर है।
आदमी की बड़ी कठिनाई है। क्योंकि आदमी दिशा में ही चल सकता है, अदिशा में आदमी चलेगा कैसे? और आदमी राह पर ही चल सकता है। सभी राह जिसकी हो, या कोई राहें जिसकी न हों, वहां चलना असंभव हो जाता है। और आदमी जब भी पुकारेगा तो उसे नाम चाहिये। स्मरण के लिये ही सही, उसे नाम चाहिये।
लेकिन परमात्मा का कोई नाम नहीं है। परमात्मा की तो बात दूर, इस जगत में किसी चीज का भी कोई नाम नहीं है। हम कहते हैं, हम उपयोग करते हैं, वह उपयोग भी जरूरी है। लेकिन उपयोग में खतरा भी है। क्योंकि नाम का इतना उपयोग होता है कि धीरे-धीरे वस्तु जो अनाम थी, वह गौण हो जाती है और नाम महत्वपूर्ण हो जाता है।
एक बच्चा पैदा होता है, कोई नाम लेकर आता नहीं। कोरा कागज होता है। लेकिन इस विराट जगत में उसके ऊपर कोई नाम चिपकाना ही पड़ेगा, नहीं तो उसे बुलाना भी मुश्किल हो जाये। उससे बात करनी असंभव हो जायेगी। एक झूठा नाम उस पर लगा देंगे तो सब आसान हो जायेगा। उसे बुला सकेंगे, बात कर सकेंगे, इंगित-इशारा कर सकेंगे। उससे कुछ कह सकेंगे। संवाद संभव हो जायेगा, सम्बन्ध निर्मित होगा। यह बड़े मजे की बात है कि वास्तविक बच्चे से सम्बन्ध निर्मित होना मुश्किल है, लेकिन एक नाम जो कि वास्तविक नहीं है, सब सम्बन्धों का आधार बन जायेगा।
सब नाम आदमी के दिये हुये हैं, वस्तुयें अनाम है। अस्तित्व अनाम है, खतरा शुरु हो गया उपयोगिता के साथ ही। बिना नाम के बच्चे का जीना मुश्किल होगा। और नाम के साथ जीते-जीते धीरे-धीरे यह भूल ही जायेगा वह कि मैं बिना नाम के पैदा हुआ था और बिना नाम के ही मरुंगा। और चाहे कितना ही नाम मेरे ऊपर लिख दिया गया हो, मेरे भीतर नाम का कोई प्रवेश नहीं हो सकता। अनाम ही मैं जियूंगा। दूसरे भले मुझे नाम से पुकारें, कहीं मैं भी इस भ्रांति में न पड़ जाऊं कि यह नाम ही मैं हूं। लेकिन सभी इस भ्रांति में पड़ जाते हैं।
फिर आदमी नाम के लिये जीने लगता है, मरने लगता है। लोग कहते हैं, नाम को बचाने के लिये जान दे देंगे। नाम की इज्जत, गैर-इज्जत, प्रतिष्ठा बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर आपका नाम किसी ने ठीक से न लिया तो भी पीड़ा पहुंचती है। अगर नाम में आपके किसी ने थोड़ी भूल-चूक कर दी, तो भी कष्ट होता है। नाम लिया, तो भी पीड़ा पहुंचती है। अगर नाम में आपके किसी ने थोड़ी भूल-चूक कर दी, तो भी कष्ट होता है। नाम काफी गहरे उतर गया मालूम पड़ता है। उपयोगिता तक ठीक था, लेकिन यह तो प्राण बन गया और जो प्राण था, जो अनाम है, वह भूल जायेगा।
जैसे व्यक्ति के लिये नाम की जरुरत पड़ जाती है, उसके बिना जीवन को चलाना कठिन है, वह एक उपयोगिता है, अनिवार्य उपयोगिता है, वैसे ही जब भी उस परम सत्य की खोज में कोई लगता है तो उसे लगता है कि कोई नाम हो। इन नामों के भी फायदे है, इन नामों के भी खतरे हैं।
इसलिये पहले सूत्र में कैवल्य उपनिषद के ऋषि ने शिव की चर्चा की है, वह उसका प्यारा नाम है। लेकिन तत्काल दूसरे सूत्र में वह कहता है और सब नाम भी उसी के हैं। यह भ्रांति न हो जाये कि वही एक नाम महत्वपूर्ण है। इसलिये ऋषि कहता है और सब नाम भी उसी के हैं। इसलिये ऋषि कहता उसी को जिसकी उसने चर्चा की है पहले सूत्र में, ब्रह्मा भी कहा है, शिव भी कहा है, इंद्र भी कहा है, अक्षर ब्रह्म भी कहा, परम विराट भी कहा है, विष्णु भी कहा है, प्राण भी कहा है, काल-अग्नि भी कहा है, चन्द्रमा भी कहा है। यह सभी नाम उसके हैं और भी हजार नाम हैं। लेकिन इन नामों में जो मौलिक कोटियां हो सकती हैं, वह सब सम्मिलित कर ली गयी है। जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह तीन हिन्दू चिंतन की कोटियां है। फिर हिन्दू जितने भी नाम है वह उन तीन में से किसी एक से सम्बन्धित होंगे।
तो यह तीन मूल कोटियां है और इन तीन मूल कोटियों का कारण है। हिन्दू चिंतन कई अर्थो में बहुत वैज्ञानिक है, मनोवैज्ञानिक है और जो कुछ भी निर्धारित किया है, वह किसी गहरी जरूरत को सोचकर निर्धारित किया है, मनुष्य के भीतर भी तीन प्रकार के मन हैं और मनुष्य भी तीन तरह के मनुष्य हैं और अगर हम मनुष्यों को बांटे, तो उसमें तीन तरह के मनुष्य हमें मिलेंगे। तीन की संख्या हिन्दू-चिंतन में बड़ी महत्वपूर्ण है और पहले तो ऐसा सोचा जाता था कि यह सिर्फ सांकेतिक है, लेकिन विज्ञान जितने गहरे गया वस्तुओं में, उतना ही विज्ञान को भी लगा कि तीन की इकाई महत्वपूर्ण मालूम पड़ती है। क्योंकि जब अणु का विस्फोट किया तो पता चला कि अणु के जो घटक अंग हैं, वे तीन हैं। इलेक्ट्रान, न्यूट्रान, पाजीट्रान। वह अणु के घटक-अंग है। तीन से मिलकर ही इस जगत की मौलिक इकाई निर्मित हुई है। और फिर उसी मौलिक इकाई पर सारा जगत निर्मित है। अगर इस जगत को हम तोड़ते जाये नीचे, तो तीन की संख्या उपलब्ध होती है और तीन के बाद तोड़ें तो कुछ भी उपलब्ध नहीं होता, शून्य हो जाता है। उस शून्य को हमने परम सत्य कहा है। अनाम। उस शून्य से जो पहली इकाई निर्मित होती है तीन की, उसको हमने ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा है।
और ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहना और भी अर्थों में गहरा है। यह तीन की संख्या ही की बात नहीं है। इलेक्ट्रान, पॅाजीट्रान और न्यूट्रान जिन चीजों की सूचना देते हैं, ये तीन शब्द भी उन्हीं की सूचना देते हैं। इन तीन विद्युतकण में जिनसे जगत का मौलिक आधार बना हुआ है, विज्ञान की दृष्टि में एक तत्व विधायक हैं, एक निषेधक है और एक तटस्थ। एक पॅाजीटिव है, एक निगेटिव है, एक न्यूट्रल है। और इन तीन- ब्रह्मा, विष्णु, महेश में भी एक पॅाजिटिव है, एक निगेटिव है और एक न्यूट्रल है। इसमें ब्रह्मा पॉजिटिव है, विधायक है। ब्रह्मा को हिन्दू चिंतन मानता है कि वह सृष्टि का आधार है। उससे ही सृष्टि निर्मित होती है। वह निर्माता है। वह विधान करता है, वह विधायक है। शिव विंध्वसक है। निषेधक है, वह तत्व इस सृष्टि को लीन करता है, विलीन करता है, समाप्त करता है- निगेटिव है। विष्णु इन दोनों के मध्य में तटस्थ है, वह सम्हालता है। न वह निर्माण करता है, न वह विध्वंस करता है। वह केवल बीच का सहारा है। जितनी देर सृष्टि होती है, वह तटस्थ-भाव से उसे सम्हालता है।
न तो न्यूट्रॅान, पॅाजीट्रान शब्दों का कोई मूल्य है। क्योंकि वे भी दिये गये नाम है। न ब्रह्मा, विष्णु, महेश का कोई मूल्य है। वे भी दिये गये नाम हैं। लेकिन धर्म जब नाम देता है और विज्ञान जब नाम देता है, तो एक फर्क होता है। वह फर्क होता है कि विज्ञान जब नाम देता है, तो वह नाम जो होते हैं, अवैयक्तिक होते हैं और धर्म जब कोई नाम देता है तो वे नाम वैयक्तिक होते हैं, पर्सनल होते हैं। क्योंकि धर्म का प्रयोजन इससे कम होता है कि नाम जिसके सम्बन्ध में इशारा कर रहा है उसको बतायें, इससे ज्यादा होता है कि इस इशारे पर जो चलेगा, उसका उससे सम्बन्ध हो जाये जिसके प्रति इशारा किया गया है। सम्बन्ध बनाने के लिये व्यक्ति निर्मित करना होता है।
जैसे न्यूट्रॅान से कोई सम्बन्ध निर्मित हो सकता है। आप प्रयोगशाला में उसका उपयोग कर सकते हैं, हिला-डुला सकते हैं, काट-पीट सकते हैं, गतिमान कर सकते हैं, आप उपयोग कर सकते हैं उसका, लेकिन न्यूट्रान से आपका कोई सम्बन्ध निर्मित नहीं होता। क्योंकि न्यूट्रान कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन शिव से आपका सम्बन्ध निर्मित हो सकता है, क्योंकि वह व्यक्ति है। धर्म और विज्ञान जो शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उसमें यह बुनियादी फर्क है। विज्ञान के शब्द इमपर्सनल होंगे। अवैयक्तिक होंगे। धर्म के शब्द पर्सनल होंगे, वैयक्तिक होंगे। एक व्यक्ति निर्मित होना चाहिये शब्द से। लेकिन कहीं यह भ्रांति न हो जाये कि यह तीन-तीन हैं, इसलिये हमने त्रिमूर्ति निर्मित की। ब्रह्मा, विष्णु, महेश के तीन चेहरे एक ही मूर्ति में बनाए। यह तीन-तीन तरह के फंक्शन है। लेकिन जिससे यह, जिसका यह काम कर रहे हैं, वह इन तीनों के भीतर एक है। उसका कोई चेहरा नहीं है, यह तीन चेहरे तीन प्रक्रियाओं के हैं। स्वयं अस्तित्व का कोई चेहरा नहीं है। वह फेसलेस है।
इसलिये अगर ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति आपको मिले, तीनों चेहरे अलग कर दें, फिर जो बच जाये वह अस्तित्व का सूचक है और ये तीनों चेहरे अस्तित्व की तीन अभिव्यक्तियां हैं और विज्ञान स्वीकर करता है कि अस्तित्व निर्मित नहीं हो सकता है, इन तीन शक्तियों के बिना। विधायक न हो तो अस्तित्व का जन्म नहीं होता। विध्वंसक न हो तो जो चीज जन्म हो जाये वह फिर कभी रूपांतरित नहीं हो सकती और अगर स्थापक न हो, तो जन्म भी हो जाये तो कोई चीज स्थिति को उपलब्ध नहीं हो सकती। ये तीन तो अनिवार्य हैं किसी भी वस्तु के होने के लिये।
तो धर्म के विज्ञान के ये तीन मौलिक अणु हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश। ये तीन उसके नाम हैं। फिर जगत में जितने भी देवी-देवता निर्मित हुये हैं, उन तीन में से किसी एक से सम्बन्धित होंगे। इसलिये हिन्दू कहते हैं कि फलां अवतार विष्णु का अवतार है। उसका मतलब यह है, वह विष्णु की कोटि में आता है। फलां शिव का अवतार है, तो वह शिव की कोटि में आता है। फलां अवतार ब्रह्मा का अवतार है, तो वह ब्रह्मा की कोटि में आता है। लेकिन आप देखें- सभी अवतार विष्णु के हैं। क्योंकि ब्रह्मा का काम निर्माण के साथ समाप्त हो जाता है। अवतरण की कोई जरूरत नहीं है। शिव का काम विध्वंस में पड़ेगा। अवतरण की कोई जरूरत नहीं है। विष्णु ही अवतरित होता चला जाता है जब तक सृष्टि है।
तो चाहे राम हो, चाहे कृष्ण हों, चाहे कोई भी हो, विष्णु ही अवतरित होता चला जाता है। यह विष्णु के अवतार की जो श्रृंखला है, कहती है कि स्थापक जो है उसको ही आना पड़ेगा बार-बार। निर्माता एक बार इशारा करेगा, निर्माण हो जायेगा। विध्वंसक एक बार विध्वंस करेगा, समाप्त हो जायेगा। लेकिन जो सम्हालेगा पूरे समय, उसे ही बार-बार आना पड़ेगा। इसलिये अवतरण सिर्फ विष्णु का है।
ये तीन हिन्दू दृष्टि से ऋषि ने विचार में ले लिये हैं। लेकिन और की भी गणना की है। इंद्र को भी गिना है। इंद्र परम शक्ति का नाम नहीं है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की कोटि का नाम नहीं है। लेकिन व्यक्तियों पर अगर हम ध्यान दें, तो इन परम कोटि तक पहुंचने वाले व्यक्तियों की दृष्टि—–ऐसे व्यक्ति खोजना जिनकी इतनी गहराई तक दृष्टि पहुंचती हो कि वह ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रति प्रेम से भर जायें, कठिन है। क्योंकि इन तीनों का जो उपयोग है, वह अत्यंत वैज्ञानिक है। ब्रह्मा से आप क्या मांग सकते हैं। इनका जो उपयोग है वह अस्तित्व के मूल आधार में है। लेकिन आदमी कमजोर है। बहुत कमजोर है। उसकी कमजोरी इतनी गहन है कि वह इतने मौलिक आधारों तक तो उसका कोई सम्बन्ध निर्मित नहीं हो पायेगा। इसलिये सारे जगत के धर्मों के ईश्वर की भी धारणा की और देवताओं की भी धारणा की। देवता की धारणा उनके लिये है जो ईश्वर की धारणा तक न जा सके। तो तीन हम बातें समझ लें।
एक तो परम अस्तित्व है निराकार। बुद्ध जैसे लोग उससे सम्बन्धित होते हैं। इसलिये वह ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश सबको कह देते हैं बेकार। यह जानकर मजा होगा कि जब बुद्ध को निर्वाण, समाधि उपलब्ध हुई, जब पहली बार वह ज्ञान को उपलब्ध हुये तो बौद्ध कथायें बड़ी मधुर हैं। हिन्दुओ को उससे चोट भी बहुत पहुंची। उन सबको चोट पहुंची जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश को परम मानते थे। जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी हाथ जोड़कर बुद्ध के चरणों में सिर रखकर उपस्थित हुये। यह कथा बड़ी मधुर है। यह कथा यह कहती है कि परम अस्तित्व ब्रह्म, विष्णु, महेश से भी पार है और जब किसी व्यक्ति को परम अस्तित्व में प्रवेश मिले तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उसे नमस्कार करेंगे ही।
बुद्ध को ज्ञान हो गया, लेकिन बुद्ध चुप रह गये। क्योंकि बुद्ध को लगा, जो मैं कहना चाहता हूं, उसे कहना मुश्किल है और अगर कह भी दूं तो उसे समझेगा कौन? सात दिन तक बुद्ध बैठे रहे। कथा कहती है कि देवताओं में बड़ी हलचल मच गयी। देवताओं में! आदमियों को तो खबर ही नहीं थी। देवताओं में बहुत हलचल मच गयी। वह बड़े उदास होने लगे, क्योंकि बुद्ध जैसी घटना कभी-कभी कल्पों में घटती है और अगर बुद्ध चुप रह गये तो उनका होना, न होना इस विराट चेतन जगत के लिये किसी सम्बन्ध का न रह जायेगा।
पर सात दिन उन्होंने प्रतीक्षा की। क्योंकि बुद्ध उस परम अवस्था में थे जहां देवता भी मौजूद हो तो बाधा पड़े। इसलिये वे दूर खड़े हुये सात दिन तक प्रतीक्षा किये कि बुद्ध बोलें। वे भी आतुर थे कि जानें उस परम अस्तित्व के सम्बन्ध में।
यह बहुत मजे की बात है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी आतुर थे कि जाने उस परम घटना के सम्बन्ध में, जिसको बुद्ध उपलब्ध हुये। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी उसके बाहरी चेहरे हैं। वह जो तीनों चेहरों के भीतर छिपा है, बुद्ध वहां प्रवेश कर गये। उनसे पूछें कि क्या है वहां? सात दिन बुद्ध चुप रहे, तब फिर उन्हें बाधा डालनी पड़ी। तब उन्होंने चरणों में जाकर बुद्ध से निवेदन किया कि आप बोलें। बुद्ध ने कहा जो मै बोलूंगा, जो मैंने जाना उसे कहा नहीं जा सकता। अगर कहूं भी तो उसे समझेगा कौन? ब्रह्मा, विष्णु, महेश यह भी न कह सके कि कम से कम हम समझ लेंगे। क्योंकि वे भी बाहरी चेहरे हैं अस्तित्व के। अंतरात्मा नहीं, द्वारपाल हैं।
उदास हो गये, रोने लगे, प्रार्थना करने लगे, फिर उन तीनों ने मिल कर विचार किया और बुद्ध को कहा कि हम आपकी बात समझते हैं कि जो आप कहना चाहते हैं, वह नहीं कहा जा सकता। कभी नहीं कहा गया। सदा से हमने सुना है कि वह कहा नहीं जा सकता और यह भी हम मानते हैं कि आप कहेंगे भी तो कोई समझ न पायेगा। कोई समझ भी लेगा तो आचरण कठिन है। लेकिन फिर भी हम प्रार्थना करते हैं कि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बिलकुल सीमांत पर खड़े हैं। सीमांत पर खड़े है। संसार में ही हैं, लेकिन आखिरी सीमा पर खड़े हैं और आपका बोलना मात्र कि बुद्ध बोलें- यह नहीं कि क्या बोलें- आपका बोलना मात्र, आपका होना मात्र उनके लिये धक्का हो जायेगा और वह छलांग लगा लेंगे और अगर आप सौ लोगो से बोलें और एक भी छलांग लगाया तो भी बड़ी अनुकम्पा है। इसलिये बुद्ध राजी हुये।
इससे हिन्दू मन को चोट पहुंची। जिस हिन्दू मन को चोट पहुंची, वह समझ नहीं पाया। उसे चोट पहुंची कि बुद्ध के सामने और देवताओं को ब्रह्मा, विष्णु, महेश को खड़ा करना, यह कथा अच्छी नहीं है। लेकिन यह कथा बड़ी मूल्यवान है और हिन्दू विचार के अत्यंत अनुकूल है। क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को हमने केवल एक संसार का निर्माता, सम्हालने वाला, मिटाने वाला माना है। वे इस संसार के ही हिस्से हैं। फंक्शरीज है, जिस दिन संसार विलीन हो जाता है, वे भी विलीन हो जाते हैं उनका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता है। तब जो शेष रह जाता है, उसमें प्रवेश है समाधि में। लेकिन उस परम तक जाना तो बहुत मुश्किल! ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक भी जाना बहुत मुश्किल है। आदमी को और भी नीचे की हैसियत के देवता चाहिये, जिनसे उसका सम्बन्ध निर्मित हो सके। तो आदमी ने ऐसे देवता निर्मित किये। इंद्र उनका प्रतीक है।
इस सूत्र में इंद्र उन सब देवताओं का प्रतीक है, जो मनुष्य की कामनाओं से निर्मित हुये हैं, मनुष्य की वासनाओं से निर्मित हुये हैं। आदमी मांगता है जिनसे कुछ। इसलिये अगर हम वेद को पढ़े, तो वेद में सौ में से निन्यानबे सूत्र इंद्र आदि देवताओं के लिये प्रयुक्त हुये हैं और जितने सूत्रें में इंद्र आदि देवताओं की प्रार्थना की गयी है, वे सब प्रार्थनाएं मनुष्य के मन की अत्यंत साधारण वासनायें हैं। किसी की गाय ने दूध देना बंद कर दिया है तो वह प्रार्थना करता है, हे इंद्र, मेरी गाय का दूध वापिस लौट आये। किसी के खेत में वर्षा नहीं हुई है, वह प्रार्थना करता है- हे इंद्र, मेरे खेत में वर्षा हो जाये।
इस सम्बन्ध में दो-तीन बाते खयाल लेनी जरूरी है- कि हिन्दू चिंतन सब तरह के मनुष्यों को मार्ग मिल सके, इसकी चेष्टा है। अब जिसकी गाय का दूध खो गया है, जिसके खेत में वर्षा नहीं हुई है, जिसकी पत्नी बीमार हो गयी है, जिसका बच्चा अपंग हो गया है, यह परम विराट से क्या प्रार्थना करें? उस परम विराट के समक्ष तो वाणी चुप हो जायेगी और प्रार्थना नहीं की जा सकती। यह ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी क्या कहे। क्योंकि इतने छोटे काम उनके काम नहीं है। यह पूरे जगत को बनाना, मिटाना, यह उनकी व्यवस्था है। यह कमजोर आदमी कहां जाये? इसके मन को कहां संतोष होगा? यह कहां अपने बोझ को रख सकेगा? वह विराट इतना बड़ा है कि उस पर बोझ रखने का उपाय नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इतने दूर की क्रियाओं में संलग्न हैं, जिससे इन व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं- कि जगत बने, कि जगत मिटे, कि जगत संभले। यह इसकी कल्पना के भी बाहर है।
इसका अपना एक छोटा-सा जगत है, जहां इसका बच्चा बीमार है, जहां घर का छप्पर गिर गया है, जहां गाय को दूध नहीं आया है, यह इसका छोटा-सा जगत है। इस छोटे से जगत में ब्रह्मा, विष्णु का उपयोग करना ऐसे ही है, जहां सुई की जरूरत हो वहां तलवार का उपयोग करना। उससे और कपड़ा फट जायेगा। तो इसके लिये और एक कोटि हिन्दू चिंतन ने निर्मित की, जो इंद्रादि देवताओं की है। इसलिये बुद्ध का या महावीर का वेद के प्रति कोई अच्छा भाव नहीं है। उससे भी हिन्दू मन को बहुत चोट लगी है। उपनिषदों का भी वेद के प्रति बहुत अच्छा भाव नहीं है। कृष्ण का भी वेद के प्रति बहुत अच्छा भाव नहीं है। हो नहीं सकता। वह कारण यह नहीं है कि वेद के प्रति बुरा भाव है, वह कारण कुल इतना है कि वेद निन्यानबे मौकों पर अति साधारण आदमी के जगत की चिंता में संलग्न है।
एक दृष्टि से देखा जाये तो वेद परम ग्रंथ नहीं रह जाते हैं। पर एक दृष्टि से देखा जाये तो परम मानवीय ग्रंथ हो जाते है। टू हृामेन और आदमी के निकट परमात्मा को लाना पड़ेगा, तो ही आदमी परमात्मा के निकट जा सकता है। एक तो उपाय है कि आदमी उठे, उठे और परमात्मा के निकट जाये। ऐसे बहुत कम आदमी है जो इतना उठे, इतना उठें और परमात्मा के निकट जायें। एक उपाय यह है कि परमात्मा को हम उतारे, उतारें, उतारें और आदमी के निकट लायें। तो इंद्र उस उतारने की प्रक्रिया की आखिरी कड़ी है। इसलिये इस सूत्र में इंद्र आदि देवताओं की भी गणना की है।
फिर कुछ और शब्दों का भी प्रयोग किया है। अक्षरब्रह्म कुछ लोग है, विशेषकर दार्शनिक चिंतन के लोग, उनके लिये सभी शब्द अर्थहीन है। जैसा मैंने कहा कि सामन्यतया अगर व्यक्ति न हो परमात्मा, तो हमारा सम्बन्ध नहीं बन पाता। ऐसे ही जो दार्शनिक चिंतन के लोग हैं, अगर व्यक्ति हो परमात्मा तो उनका सम्बन्ध नहीं बन पाता। व्यक्ति होते ही से उन्हें बेचैनी शुरु हो जाती है। उन्हें निराकार, निर्व्यक्ति चाहिये।
जैसे शंकर है, तो ब्रह्मा से नीचे की कोई भी बात शंकर के लिये खटकेगी। इसका कारण नीचे की बात नहीं है। इसका कारण शंकर की अपनी ऊंचाई है। शंकर को ब्रह्मा, विष्णु, महेश अपने से भी नीचे मालूम पड़ेगे। तो शंकर के लिये, या शंकर के जैसे व्यक्तित्व के लिये अक्षर ब्रह्मा- यह एक प्रतीक है। इसके भीतर वे सब नाम आ जाते हैं, चाहे हीगल ने दिये हों, चाहे कांट ने दिये हों, चाहे दुनिया के और किसी कोने के अलग चिंतकों ने दिये हो, एब्सोल्यूट कहा हो, कोई और नाम दिया हो, वे सब नाम अक्षरब्रह्मा में समा जाते हैं।
अक्षरब्रह्मा का अर्थ है, वह आत्यंतिक ऊर्जा जो कभी क्षय को उपलब्ध नहीं होती। जो सदा बनी रहती है। सब परिवर्तनों के बीच। विनाश, सृजन, सबके बीच जो ऊर्जा बनी रही रहती है- अक्षरब्रह्मा है। परम विराट है, अक्षर ब्रह्म में उस ऊर्जा का तो संकेत है, जो सदा बनी रहती है, लेकिन विस्तार का कोई संकेत नहीं है। उसकी विराटता का कोई संकेत नहीं है। कुछ लोग है, जिनके लिये परमात्मा विराट की तरह अवतरित होता है। कुछ लोग हैं, जहां भी विराट होता है, उन्हें परमात्मा की झलक मिलती है। विराट सागर को देखकर, विराट आकाश को देखकर। जहां भी फैलाव है अंतहीन। शाश्वत ऊर्जा में एक तरह का फैलाव है। विराट आकाश में दूसरे तरह का फैलाव है। दोनों को समझ लें।
शाश्वत ऊर्जा में जो फैलाव है वह समय की धारा का है। जो पहले भी थी, अभी भी है, आगे भी होगी। टाइम डायमेन्सन, काल में हुआ है। आकाश, अभी फैला हुआ है, इसी वक्त फैला हुआ हैं, सब दिशाओं में। तो आकाश का फैलाव स्पेस डायमेन्सन है। तो कुछ लोग है जो काल-फैलाव को अनुभव कर पाते हैं। कुछ लोग हैं, जो इसी क्षण जो आकाश का, स्थान का, स्पेस का फैलाव है, उसको अनुभव कर पाते हैं। व्यक्तियों पर निर्भर करेगा। जैसे विचारक आदमी होगा तो काल-फैलाव को अनुभव कर सकेगा। ध्यान होगा तो अभी, इसी क्षण आकाश के फैलाव को अनुभव कर सकेगा।
तो अक्षरब्रह्म कहा है विचारकों के लिये। वह उनकी कोटि है। फिर जितने विचारकों ने नाम दिये हों, वह उस कोटि के भीतर आते हैं और परम विराट कहा है ध्यानियों के लिये, क्योंकि ध्यानी के लिये समय मिट जाता है, ध्यानी के लिये समय बचता ही नहीं। टाइमलेसनेस में कालातीत में प्रवेश हो जाता है। तो इसी क्षण वह विराट की तरह अनुभव होता है। खयाल ले लें। आकाश का विराट अभी मौजूद है। एक नदी का विराट पीछे फैला हुआ है, आगे फैला हुआ है। कितनी ही लम्बी नदी हो, आगे और पीछे की तरफ फैली हुई है। आकाश अभी, यहीं, सब तरफ फैला है। ध्यान में विराट, परम विराट का अनुभव होता है। तो ध्यानियों ने जो शब्द चुने हैं, वह परम विराट जैसे है। विचारकों ने जो शब्द चुने हैं, वह अक्षर ब्रह्म जैसे है।
लेकिन इतने से ही बात समाप्त नहीं होती। कुछ और धारायें भी मनुष्य की चेतना में उतरती हैं। जैसे, प्राण। योगियों ने उसे प्राण की तरह जाना है। योग की जो परमात्मा के लिये शब्दावली है, उसमें महाप्राण, विराट प्राण, प्राण, इस शब्द का प्रयोग है। क्योंकि योगी का जो मार्ग है, वह अपने शरीर के भीतर छिपे हुये प्राण के अनुभव का है। वह अनुभव जब गहन होने लगता है, तो वहीं प्राण अपने बाहर भी सब तरफ अनुभव होने लगता है। एक घड़ी आती है कि सारा जगत प्राण-ऊर्जा से भर जाता है।
बर्गसों ने अभी-अभी इसी सदी में जो शब्द उपयोग किया है, वह है इलान वाइटल। उसका मतलब है, प्राण परमात्मा के लिये, योगी प्राण पर ही सारा काम कर रहा है। इसलिये योग की मौलिक प्रक्रिया प्राणायाम है। प्राणायाम का अर्थ है, प्राण का विस्तार। प्राण का फैलाव, प्राण का अंतहीन फैलाव। ऐसी अवस्था ले आनी है, जब मेरा प्राण सारे जगत के प्राण में फैल जाये। तब जिसका अनुभव होगा, उसे महाप्राण कहो, प्राण कहो, कोई भी नाम दो। योग को ईश्वर के दूसरे नाम कभी प्रीतिकर नहीं रहे हैं, क्योंकि योग तो एक बड़ी वैज्ञानिक प्रक्रिया है प्राण के संशोधन की।
यह प्राण शब्द एक अर्थ में वैज्ञानिक है। जैसे मैं कहूं कि हमेशा ऐसा होता है, जिस दिशा से आदमी खोजता है उसी दिशा का शब्द अंतत जैसे कि विज्ञान ने खोज की, खोज की तो विद्युत-कण या विद्युत-ऊर्जा आखिरी शक्ति मिली। क्योंकि सारी खोज ही विद्युत की थी।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,