पिछले जन्म की क्रियाएं मनुष्य को याद नहीं रहती। यदि ये क्रियाएं उसे याद रहने लगे तो व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों को याद कर करके ही पागल हो जाए। उसे अपनी गलतियों पर शर्म आने लगे, अपने व्यवहार पर शर्म आने लगे। इसी कारण परमात्मा ने मनुष्य को भूलने की आदत दी और साथ ही वर्तमान जीवन में यह निर्देश दिया कि- यह जीवन तो तुम्हारे अपने हाथ में है, इसका निर्माण श्रेष्ठ रूप से तुम किस प्रकार कर सकते हो, यह तुम्हारे कार्यों पर निर्भर करता है।
परमात्मा ने अपनी ही शक्ति प्रदान कर मनुष्य को स्वरूप दिया और उसके साथ ही उसे शरीर रूपी ‘यंत्र’ प्रदान किया कि वह इस यंत्र का जैसा भी चाहे, जिस प्रकार से भी चाहे, उसका उपयोग कर सकता है। अपने जीवन के 60-70 साल व्यर्थ गंवा सकता है अथवा अपने जीवन के 60-70 साल में केवल आर्थिक ही नहीं, मानसिक, आध्यात्मिक, भौतिक, दैविक उन्नति कर सकता है। अपने जीवन को श्रेष्ठ कार्यों में लगा सकता है। इसके साथ ही उसे वाणी रूपी शक्ति द्वारा ‘मंत्र’ भी प्रदान किया। मंत्र का तात्पर्य संस्कृत में लिखे हुए वाक्य नहीं है अपितु जो भी शब्द हम बोलते हैं और जिन शब्दों में विशेष अर्थ निहित रहता है वे शब्द मंत्र कहलाते हैं।
यदि व्यक्ति कोई बात कहे और उस बात का कोई तात्पर्य ही नहीं हो तो वह शक्ति व्यर्थ चली जाती है और उस वाक्य का कोई प्रभाव स्वयं पर अथवा दूसरों पर नहीं पड़ता है। यह केवल ध्वनि शक्ति का ही नाश नहीं है अपितु उस ध्वनि के पीछे जो मस्तिष्क शक्ति है उसका भी नाश है। तीसरी शक्ति मनुष्य को क्रिया के रूप में प्रदान हुई और वह शक्ति कहलाती है ‘तंत्र’। तंत्र का तात्पर्य है अपनी चेतना का सही दिशा में उचित विस्तार करना। कुछ अपनी चेतना को व्यापक कर लेते हैं, कुछ अपनी चेतना को सीमित ही रहने देते हैं। यह सब उनके सामाजिक परिवेश, घर-परिवार का व्यवहार, बुद्धि इत्यादि पर निर्भर करता है।
इस प्रकार हम देखे तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का पूरा जीवन तंत्र-मंत्र-यंत्र का ही लघु स्वरूप है। इन तीनों क्रियाओं के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन प्रत्येक मनुष्य को जीवन में एक स्थान पर आकर कुछ बातों पर अवश्य ही विचार करना चाहिये।
यदि इन प्रश्नों पर विचार किया जाये तो मनुष्य को स्वयं ही जानकारी प्राप्त होगी कि उसका जीवन बाधाओं से भरा रहा है। वहां सुख के क्षण भी आये हैं, उन्नति के अवसर भी आये हैं लेकिन आने वाले समय के सम्बन्ध में उसे कोई जानकारी नहीं है। मनुष्य को उन्नत बनाने के लिये दैविक, भौतिक, आध्यात्मिक दृष्टि से सुखी और प्रसन्न रहने के लिये, मंत्र रूपी वाक् शक्ति है, यंत्र रूपी देह है, तंत्र रूपी चेतना-क्रिया शक्ति इन तीनों का भलीभांति उपयोग कर वह अपने जीवन को सुधार सकता है।
ईश्वर इन विचारों को फलीभूत करने के लिये मनुष्य को कई अवसर प्रदान करता रहता है। ये अवसर मनुष्य जीवन में विभिन्न काल समय में आते हैं, जिन्हें हम नवरात्रि, रामनवमी, हनुमान जयंती, होली, नृसिंह जयंती, गुरु पूर्णिमा, महाशिवरात्रि, रक्षा बंधन, अनन्त चतुर्दशी, दीपावली, श्राद्ध पर्व, कालाष्टमी, वंसत पंचमी इत्यादि कहते हैं।
होली पर्व पर मनुष्य ने यह समझ लिया कि इस दिन हिरण्याकश्यप का वध हुआ था, होलिका अपनी गोद में प्रहलाद को लेकर स्वयं स्वाह हो गई लेकिन प्रहलाद का कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन इसका वास्तविक अर्थ क्या है इसे समझना होगा।
हिरण्याकश्यप प्रतीक है उस आसुरी शक्ति का जो कोई वरदान प्राप्त कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन और प्रयोग दुष्कर्मों, दुष्कार्यों में करता है। अग्नि प्रतीक है उस तत्व का जो मनुष्य के भीतर और बाहर निरन्तर जलती रहती है। यदि मनुष्य में मंत्र-शक्ति या तंत्र शक्ति है और उसके स्वयं का आत्मिक यंत्र तीव्र और प्रभावशाली है तो वह अग्नि उसके भीतर का अंधकार दूर कर देती है। प्रहलाद प्रतीक है उस ज्ञान का, ईश्वर के उस अंश का, शक्ति के उस शुद्ध स्वरूप का जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है। नृसिंह स्वरूप प्रतीक है ईश्वर की उस महान शक्ति का जो किसी भी रूप में प्रकट हो सकती है। उसके लिये कोई विशेष आकार की आवश्यकता नहीं है। समय अनुरूप जैसी आवश्यकता है उस रूप में शक्ति प्रकट हो सकती है।
होली पर्व पर नृसिंह के इस विशेष स्वरूप को हम जानते अवश्य है लेकिन शक्ति के इस विशेष स्वरूप को सिद्ध और शक्ति के इस भाव को ग्रहण कैसे किया जाये इसकी जानकारी नहीं है। केवल नृसिंह मंत्र बोलने से नृसिंह साधना सम्पन्न नहीं हो जाती। नृसिंह साधना सफल हो सकती है जब वह बगलामुखी और धूमावाती की शक्ति से युक्त हो। बगलामुखी जहां शत्रुओं को, बाधाओं का स्तम्भन कर देने की महाशक्ति है, वहीं धूमावती शत्रुओं को, बाधाओं को पूर्ण रूप से समाप्त कर देने वाली महाशक्ति है।
बगलामुखी को त्रि-शक्ति कहा गया है क्योंकि यह काली, कमला और भुवनेश्वरी का संयुक्त स्वरूप है। यह पीताम्बरा देवी हैं जो दुःख, कष्ट, अनिष्ट एवं शत्रुओं से साधकों की रक्षा करती हैं। अपने विपरीत व्यक्तियों को अपने अनुरूप बना लेना, राज्य बाधा समाप्ति और घर में सुख शांति प्रदान करने वाली बगलामुखी शक्ति है।
इसी प्रकार धूमावती को भी अत्यन्त तीव्र एवं भयावह देवी माना गया है। जिसका स्वरूप ही क्रोध, मुद्रा, तीव्र नेत्र, खुले केश है, शत्रुओं के हृदय में भय पैदा करने वाली, अपने भक्त को अभय प्रदान करने वाली तथा भूत-प्रेत, चोर, राक्षस, सर्प, जंगली जानवर के साथ विरूद्ध तंत्र से रक्षा करने वाली तीव्र देवी धूमावती ही है।
धूमावती, बगलामुखी सायुज्य नृसिंह साधाना सर्व कार्य सिद्धि धूमावती-बगलामुखी सायुज्य नृसिंह साधना एक विशेष तांत्रोक्त साधना है जिसे होली की रात्रि को सम्पन्न किया जाता है। यह साधना रात्रि को सूर्यास्त के पश्चात् और सूर्य उदय से पहले सम्पन्न की जानी आवश्यक है। बगलामुखी और धूमावती से युक्त होने के कारण यह भूत-प्रेत, पिशाच, तंत्र पीड़ा समाप्त करने की साधना है। मूल रूप से नृसिंह साधना होने के कारण व्यक्ति में अपराजय शक्ति भरने की साधना है। नृसिंह शब्द का सीधा अर्थ है कि नर में सिंह अर्थात् जो व्यक्ति मनुष्यों में सिंह के समान निर्भय होकर कार्य करता हो, अपनी बाधाओं पर विजय प्राप्त करने में स्वयं समर्थ हो, उसे नृसिंह कहते हैं। जब इन तीनों शक्तियों का साधनाओं में समावेश हो जाता है तो जीवन में तंत्र की तीव्र शक्ति आ जाती है। उसके द्वारा बोले गये मंत्र सार्थक होते हैं।
साधक होली की रात्रि स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करे। अपने दोनों ओर तेल का दीपक जलाएं, सामने गोल वृत्ताकार रूप में चावल की आठ ढे़रिया बनाएं और उस पर आठ सिद्धिफल स्वरूप सुपारी स्थापित कर। कुंकुंम, केसर द्वारा नृसिंह की आठ शक्तियां- भास्वती, भास्करी, चिन्ता, द्यृति, उन्मीलिनी, रमा, कान्ति एवं रूचि का ध्यान करें।
प्रत्येक पर पुष्प अर्पित करें, इसके बाद कोने में तिल की ढे़री बनाकर उस पर एक बड़ी सुपारी रख कर भैरव का ध्यान कर पूजन करें।
जहां नृसिंह की पूजा होती है, वहां बगलामुखी और धूमावती की अवश्य ही पूजा होती है। अपने सामने मध्य में नृसिंह यंत्र स्थापित करें तथा नृसिंह यंत्र के दायीं ओर बगलामुखी रत्न और बायीं ओर धूमावती गुटिका स्थापित करें। नृसिंह यंत्र पर रक्त सिन्दूर चढ़ाएं तथा नृसिंह यंत्र, बगलामुखी एवं धूमावती गुटिका इन तीनों को रक्त सिन्दूर के एक गोले में स्थापित कर दें, यह बंधन क्रिया है। बंधन क्रिया के बाद पहले से घर में बनाई हुए खीर का प्रसाद अर्पित करें।
तत्पश्चात् साधक बगलामुखी और धूमावती का ध्यान करें। उसके पश्चात् साधक अपने जिन शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहता है, अपने जिन कार्यों को तत्काल पूर्ण करना चाहता है तथा अपने ऊपर किये गये तांत्रिक प्रयोगों का कटाक्ष चाहता है, अपनी इन समस्याओं को एक सफेद कागज या ताड़ पत्र उपलब्ध हो तो उस पर रक्त सिन्दूर से लिख कर नृसिंह यंत्र के नीचे रख दें। फिर साधक हाथ में जल लेकर संकल्प करें कि- मैं शक्ति और अभय प्राप्त करने हेतु अपनी अमुक बाधा, समस्या एवं कार्य पूर्णता हेतु यह साधना सम्पन्न कर रहा हूं।
अपनी दांयी ओर एक लोहे का चिमटा भी रखें। उस पर सिन्दूर चढ़ाएं तथा निम्न मंत्र का 21 बार मंत्र जप अपने दाएं हाथ में चिमटा जमीन पर बजाते हुए, पूरे आत्मविश्वास के साथ एकाग्र हो कर जप करें।
इसके पश्चात् साधक बगलामुखी मंत्र की 1 माला जप करें।
पश्चात् साधक धूमावती की 1 माला मंत्र जप करें।
यह सम्पूर्ण क्रिया पांच बार दोहरायें अर्थात् सर्वप्रथम नृसिंह मंत्र का 21 बार उच्चारण करें, इसके पश्चात् एक माला बगलामुखी एवं एक माला धूमावती मंत्र का जप करें तथा इसी क्रिया को पुनः दोहरायें। पांच बार इस क्रिया को दोहराने के बाद साधक चिमटे पर लगे सिन्दूर को अपने मस्तक पर लगाएं तथा खीर के प्रसाद को उसी स्थान पर बैठे-बैठे ग्रहण करें।
यह एक सिद्ध साधना है और यदि साधक की भावना प्रबल हो तो शीघ्र प्रभाव देखने को मिलता है। साधना के पश्चात् आठों सुपारियों तथा अन्य सामग्री किसी पीपल में चढ़ा दें, यदि यह संभव न हो तो घर के बाहर खड्डा खोद कर गाड़ दें तथा पीछे मुड़ कर न देखें। केवल यंत्र को 27 दिन तक अपने पूजा स्थान में रखें जब भी रात्रि को उचित मन, भाव,अथवा अपने अनुकूल कोई क्रिया करनी हो तो नृसिंह मंत्र का 21 बार जप अवश्य कर लें।
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