होली का नाम आते ही रंगों से सराबोर लोगों की आकृति दिमाग में घूमने लगती है। होली को रंगो का त्योहार भी कहा जाता है। होली का त्योहार कब और क्यों शुरु हुआ, इस बारे में धार्मिक ग्रन्थों में जो कथा बतायी गयी है, उसके अनुसार भक्त प्रहलाद को होलिका द्वारा जलाने की कोशिश में प्रहलाद तो बच जाते हैं लेकिन होलिका जल जाती है। अब होली के सारे तथ्यों को विज्ञान के ताने-बाने में बुनकर देखें। मौसम के अनुसार सर्दी के मौसम के जाने और गर्मी के मौसम के आने के समय होली का त्योहार मनाया जाता है। गर्मी के मौसम में तापक्रम बढ़ता है और इस बढ़े ताप का बुरा असर त्वचा पर पड़ता है। नतीजतन त्वचा में रोग होने की संभावना बढ़ती है।
होली पारम्परिक रूप से प्राकृतिक रंगो से खेलना है और ये प्राकृतिक रंग ऊष्मीय ताप कम करते हुये त्वचा की सुरक्षा करते हैं। हम इस बात को जानते है कि सूर्य के प्रकाश के विचलन से नौ रंग प्राप्त होते हैं। ये सारे रंग धात्विक रंगों का आधार भी होते हैं। प्राकृतिक रंग इनका समन्वय करके सूर्य के प्रकाश की रासायनिक क्रिया को नियंत्रित कर देते हैं। यदि कोई रंगों का प्रयोग नहीं करता है तो उसका ऊष्मीय ताप सालभर तक अधिक रहने से इससे जुड़े शारीरिक या मानसिक रोग होने की आशंका बन सकती है।
होली के समय सूर्य उत्तरायण की ओर गति करता है। प्रकाश और ऊष्मा इस काल में भारत एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में तेजी लिये हुये रहते हैं। होली के विभिन्न रंगो के आवरण की वजह से भावी उष्मीय प्रभाव शरीर पर कुप्रभाव नहीं डाल पाता। जैसे लाल प्रकाश और हरा प्रकाश मिलकर पीले प्रकाश की स्थिति को दर्शाता है और यह प्रकाश सूर्य प्रकाश की सामंजस्य प्रक्रिया अपनाता है। होलिका को अग्नि का साक्षात स्वरूप माना गया है। प्रहलाद का बचना एक भौतिक एवं रासायनिक प्रकाश ऊष्मीय प्रभाव को दर्शाता है। जब लैंस को फोकस करने पर ऊष्मीययान बढ़ाने से प्रकाश का केन्द्रीयकरण होता है तथा प्रकाश और ऊष्मा के वस्तु जलने लगती है। उसी प्रकाशीय मार्ग में से उससे बढ़ी फोकस वाली वस्तु उसी मार्ग से वापस की जाये तो लैंस भी प्रभावित हो सकता है। वैसे यह तो सिद्धान्त ही है कि यदि प्रकाशीय किरणों के प्रभाव को रोकना है तो उसके कोणीय आधार पर प्रकाश डाला जाना चाहिये। अतः होलिका अपने ऊष्मीय मान से ज्यादा ताप उत्पन्न करने में सक्षम नहीं थी तथा उधर प्रहलाद के ओरा से निकले प्रकाशीय मान के रंग तापीय शमन में सक्षम थे, लिहाजा प्रहलाद तो बच गये लेकिन होलिका जलकर राख हो गयी।
सूक्ष्मतम खोज के बावजूद आज भी विज्ञान रंगो की उपयोगिता को ठीक तरह से समझ नहीं पाया है। उधर हमारे पूर्वजों ने यह खोजें प्राचीन काल में ही कर ली थीं कि सूर्य प्रकाश से आने वाली पराबैंगनी किरणों को ओजोन परत पूरी तरह सोख नहीं पाती और इनकी कुछ मात्र पृथ्वी पर आ ही जाती है।
गरमी के मौसम में जब ताप बढ़ता है इन किरणों का प्रभाव हानिकारक हो सकता है। यदि होली के अवसर पर रंग शरीर पर डाले जाते हैं तो त्वचा से मिलकर बैंगनी रंग की आवृत्ति में बदल जाते हैं और फिर सूर्य से निकली पराबैंगनी किरणों का पड़ने वाला बुरा असर समाप्त हो जाता है। रेडियो एक्टिव विकिरण के नुकसानदेय असर से मुक्ति भी रंगों से सम्भव है। क्योंकि प्राकृतिक रंग में अपना एक प्रकाशकीय विस्फुटन होता है। साधना में साधु-महात्माओं द्वारा शरीर पर लगाई जाने वाली राख या मिट्टी विकिरण के नुकसानदेय प्रभावों को रोक देते हैं।
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