आचार्य निर्मि के अनुसार रात्रि स्वभावशीतला तमोमूला होती है, जिससे कफ़ का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। मार्ग में रुकावट होने से वायु बढ़ती है, इसीलिये सिर में सुबह के समय दर्द होता है। दोपहर में सूर्य की गर्मी प्रबल होने से कफ़ पिघल जाता है, जिससे वायु के रास्ते की रुकावट दूर होकर वायु अपने मार्ग में आ जाती है, अतः सूर्यावर्त रोग में होने वाली सिर की पीड़ा शाम के समय शांत हो जाती है।
सूर्यावर्त सिर में होने वाला ऐसा दर्द है, जो सूर्योदय के साथ धीरे-धीरे शुरु होकर सूर्य की गति के साथ धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। इसमें आंखों और भौहों में विशेष रूप से दर्द होता है। दोपहर में सूर्य के प्रखर होने पर बहुत तेज हो जाता है तथा सूर्य की रोशनी के मंद होने के साथ कम होने लगता है तथा सूर्य के अस्त होने (डूबने) पर बिलकुल बंद हो जाता है। इस प्रकार के सिर के दर्द को आयुर्वेद के आचार्यों ने सूर्यावर्त नाम दिया है। यह अत्यंत कष्ट देने वाला त्रिदोषज रोग है।
इस रोग में सूर्य की तरह आवर्त (भ्रमण या चक्कर) पाया जाता है अर्थात रोगी को चक्कर आते हैं। इसीलिए इसे सूर्यावर्त कहते हैं। इस प्रकार का चक्कर आना इस रोग की विशेषता है, जिसका कारण यह है कि रात्रि (रात) उसके स्वभाव अनुसार प्रधान रूप से ठंडी एवं अंधेरे से युक्त होती है।
इसलिए रात में कफ के जम जाने के कारण मार्ग रुक जाता है तथा मार्ग की रूकावट से वायु प्रकुपित होती है, जिससे प्रातःकाल दर्द शुरु हो जाता है, जो क्रमशः दोपहर तक बढ़ता चला जाता है, तब मार्ग में रुकावट करने वाला कफ पिघल जाता है, जिससे वायु के मार्ग का आवरण दूर हो जाता है तथा वायु अपने स्थान पर स्थित होने लगती है, जिसके कारण सिर का दर्द शांत होने लगता है।
शाम तक सम्पूर्ण कफ पिघल जाने पर मार्ग साफ हो जाने से वायु अपने स्थान पर पूरी तरह स्थित हो जाती है। अतः सिर का दर्द भी पूरी तरह शांत हो जाता है।
चरक संहिता के अनुसार सूर्य की गर्मी से मस्तुलुंग विलीन हो जाता है, जिससे यह सूर्यावर्त रोग होता है। जैसे-जैसे सूर्य आकाश के मध्य की ओर चलता जाता है, वैसे-वैसे उसकी गर्मी बढ़ती जाती है। दोपहर में सूर्य अपनी यौवनावस्था पर होता है, फलतः उसकी गर्मी भी पूर्ण यौवन पर होती है। उस समय मस्तुलुंग अधिक वेग से स्त्रावित होता है। जिससे दर्द भी तीव्रतम होता है। दोपहर के बाद सूर्य क्षीण होने लगता है, जिससे उसकी गर्मी में भी कमी होने लगती है, अतः मस्तुलुंग का स्राव भी शिथिल होने लगता है। शाम को सूर्य के अस्त होने पर मस्तुलुंग का स्राव बंद हो जाता है। वह जम जाता है, जिससे दर्द भी बंद हो जाता है।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार सूर्यावर्त के रोगियों में प्रतिश्याय (जुकाम) का इतिवृत मिलता है। रोगियों के कहने और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि जुकाम का अच्छी तरह से स्राव नहीं हो पाया और सूख गया, वस्तुतः ऐसा ही है।
ये विभिन्न प्रकार के अस्थि विकारों के श्लेष्मलकला के शोथ हैं, जो विभिन्न प्रकार के जीवाणु (बी- इन्फ्रलुएंजा, एमकट् टहलिस, स्ठेफिलो कोकाई, स्ट्रेप्टो काकस के संक्रमण) नासिका मार्ग, गला या दांत के द्वारा ऊपर पहुंचकर उन शिरः कपाल के अस्थि विवरों की श्लेष्मल कला में सूजन उत्पन्न कर देते हैं, जिसके कारण मंद ज्वर और स्थानिक पीड़ा होती है।
इस अवस्था को एक्यूट साइनेसाइटिस कहते हैं। इसमें सिर में दर्द का अनुभव होने का स्थान विकृति स्थान के कारण भिन्न-भिन्न हो सकता है। जैसे विकृति पुरः कपालस्थि विवरों में होने से दर्द पुरः शिर या मस्तक में, उर्ध्व हन्वस्थि छिद्रों में होने पर कपोल प्रदेश में तथा जनुकास्थि विवर में होने पर गहराई में स्थित पीड़ा मिलेगी। इस रोग की विशेषता है कि सिर में दर्द सुबह से लेकर दोपहर तक ही अधिक होता है।
प्रातः काल पेट को खाली न रखें। विशेष रूप से मीठे और शुद्ध घी से बने पूड़ी, हलवा, जलेबी, घेवर, मालपुआ आदि खाना लाभकारी होता है। कुछ वैद्यो के अनुभव के अनुसार गर्म खीर खाना भी लाभकारी है।
सूर्योदय से पहले शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर घी में पके हुये, दूध में पके हुये और मीठे द्रव्यों का सेवन करें।
ताजी जलेबी को दूध में डुबो-डुबोकर खाने से 2-3 दिन में सूर्यावर्त का दर्द बंद हो जाता है। कई बार गुड़ का बहुत गाढ़ा शर्बत घी मिलाकर पीने से रोग में लाभ होता है। गन्ने का ताजा रस पीना भी सूर्यावर्त में लाभप्रद है।
शालि और साठी चावल, गेहूं, जौ, भुने हुये चावल का भात, सभी प्रकार के कसैले, कड़वे तथा रूखे पदार्थ, कोदो, धान का लावा, मकई, मूंग, कुलथी, राई आदि। करेला, बैंगन, ककोड़ा, लहसुन, परवल, केले का फूल, सूरण, मूली, अदरख्क, मिर्च, पोई शाक, टिंडा, मेथी, चौलाई, पालक, लौकी, तुरई, गूलर, पिंडखजूर, खिरनी, सेबफल, अंगूर, नारंगी, पपीता, नासपाती, चीकू व गर्म पानी पीना चाहिये।
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