पात भया संसार और ये जो पत्ते हैं, यही संसार है। कबीर यह कह रहे हैं कि परमात्मा और संसार में फसना नहीं है, ये एक ही चीज के दो ढंग है। स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं है और पात-पात में भी वहीं फैला है। तुम उसके ही पात हो। तुम्हारे पत्ते कितने ही अलग दिखायी पड़ रहे हों, तुम इस भांति में मत पड़ना कि तुम अलग हो। अलग तो तुम हो ही नहीं सकते। एक क्षण तुम जी नहीं सकते अलग होकर, अनंत-अनंत मार्गो से तुम उससे जुड़े हो। प्रतिपल श्वास ले रहे हो, श्वास काट दी जाये, एक द्वार टूट गया, एक सेतु मिट गया कैसे जिओगे? सूरज की किरणें चली आ रही हैं, तुम्हारे रोंयें-रोंये को, जीवन को उत्ताप से भर रही है, सूरज ठंडा हो जाये, तुम कैसे जिओगे? ये तो स्थूल बाते हैं। ऐसे ही सूक्ष्म तल से सब तरफ से परमात्मा तुम्हें सम्हाले हुये है, जैसे वृक्ष को अदृश्य जड़े सम्हाले होती हैं और वृक्ष पत्ते-पत्ते की फिक्र कर रहा है। तो घबड़ाओं मत कि तुम पत्ते हो और संसार में हो संसार भी उसी का है। सृष्टि और स्रष्टा दो नहीं हैं, सृष्टि, स्रष्टा का ही फैलाव है।
इसे बहुत गहनता से समझ लो, क्योंकि विषाक्त करने वालो लोगों ने बड़ी भ्रांतियां फैला रखी है। वे कहते हैं, संसार पाप है। वे कहते हैं, संसार छोड़ने योग्य है, वे कहते हैं, भागो संसार से अगर परमात्मा को पाना है। परमात्मा संसार के कण-कण में छिपा है और तथाकथित महात्मा समझाये जाते हैं कि भागो संसार से, अगर परमात्मा को पाना है और अगर संसार में वही छिपा है तो तुम जहां भी भागोगे, तुम परमात्मा से ही भाग रहे हो। इसलिये मैं तुमसे कहता हूं, तुम जहां हो ठीक वहीं उससे मिलन होगा, इंच भर भी यहां, वहां जाने की जरूरत नहीं है। दुकान पर बैठे-बैठे मिलन होगा। दफ्तर में काम करते-करते मिलन होगा। बगीचे में गड्ढा खोदते-खोदते मिलन होगा। घर को, गृहस्थी को संभालते-संभालते मिलन होगा, क्योंकि वही हर पत्ते में छिपा है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां वह न हो।
रवीन्द्रनाथ ने एक बड़ी मधुर कविता लिखी है। लिखा है कि बुद्ध ज्ञानी हुये और वापस लौटे। रवीन्द्रनाथ के मन में कहीं न कहीं बुद्ध का घर छोड़कर जाना, कभी जंचा नहीं। किसी कवि को कभी जंच नहीं सकता। थोड़ा कठोर मालूम पड़ता है, थोड़ा काव्य विरोधी मालूम पड़ता है, थोड़ा सौंदर्य का विनाशक मालूम पड़ता है और कवि के लिये तो सौंदर्य ही सत्य है। यशोधरा को छोड़कर भाग गये इसलिये बुद्ध की प्रतिमा रवीन्द्रनाथ को कभी भायी नहीं। तो उन्होंने बड़ी मीठी कविता लिखी है, वह कविता है- लौट आये बुद्ध घर, ज्ञान को उपलब्ध होकर, यशोधरा ने पूछा एक ही बात मुझे पूछनी है और बारह वर्ष तक इसी बात को पूछने के लिये मैं प्रतीक्षा करती रहीं हूं। अब आप आ गये है, ज्ञान को उपलब्ध होकर, अब मैं समझती हूं कि समय आ गया है, मैं पूछ लूं। पूछना मुझे है कि जो तुमने मुझे छोडकर वहां जगल में पाया, क्या तुम उसे यहीं नहीं पा सकते थे?
रवीन्द्र ने बुद्ध को चुप छोड़ दिया है, उत्तर नहीं दिलवाया। पर रवीन्द्रनाथ का उत्तर साफ है और चुप रह जाने में भी उत्तर साफ है। अब तो बुद्ध भी जानते कि जो पाया है जंगल में, उसे यहीं पाया जा सकता था।
स्रष्टा छिपा है अपनी सृष्टि में, यह सृष्टि ऐसी नहीं है कि जैसे मूर्तिकार मूर्ति को बनाता है, क्योंकि मूर्तिकार मूर्ति को बनाकर मूर्ति से अलग हो जाता है या कवि कविता बनाता है, कविता अलग हो जाती है, कवि अलग हो जाता है। कवि तो मर जायेगा, कविता बनी रहेगी, मूर्ति हजारों साल जी लेगी, मूर्तिकार तो चला जायेगा। दोनों अलग हो गये। नहीं, परमात्मा की यह सृष्टि कुछ और तरह की है। इसलिये हमने परमात्मा के प्रतीक की तरह नटराज को चुना है- नर्तक, मूर्तिकार नहीं, चित्रकार नहीं, कवि नहीं। परमात्मा नर्तक है, क्योंकि नृत्य और नर्तक को अलग नहीं किया जा सकता। नर्तक चला गया, नृत्य भी गया। तुम नृत्य को नहीं बचा सकते अलग। तुम नर्तक और नृत्य को अलग कहां करोगे? उनके बीच में कोई फासला नहीं हो सकता। परमात्मा नर्तक की भांति अपनी सृष्टि से जुड़ा है, मूर्तिकार की भांति नहीं। यह सृष्टि उसका ही होना है। यह तुम्हें खयाल में आ जाये तो तुम व्यर्थ भागने के विचारों से बच जाओगे और तुम जहां हो वहीं खोज शुरु कर दोगे। तुम जिस जगह खड़े हो, वहीं हीरा गड़ा है, कहीं और खोजने मत जाओ।
मैंने एक बड़ी अद्भुत कहानी सुनी है। एक यहूदी फकीर था। उसने रात सपना देखा। एक रात देखा, दूसरी रात देखा, तीसरी रात देखा- तब सपना सच मालूम होने लगा। सपना यह था कि जिस देश में वह रहता था, उस देशी की राजधानी में एक पुल के पास एक बहुमूल्य खजाना गड़ा है। जब तीन बार, बार-बार देखा और सब चीज बिलकुल साफ हो गई, नक्शा भी साफ हो गया, एक-एक चीज स्पष्ट हो गई तो मजबूरी में उसे यात्रा करनी पड़ी राजधानी की। वह राजधानी गया, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि जहां धन गड़ा है, पुल के किनारे, वहां चौबीस घंटे पुलिस तैनात रहती है पुल की रक्षा के लिये। तो वह कैसे उसे खोदे? कब खोदे? वहां से कभी पुलिस हटती नहीं। जब दूसरे लोग पहरे पर आ जाते हैं, तब पहले लोग जाते हैं। चौबीस घंटे सतत वहां पहरा है। तो वह राह खोजने के लिये बार-बार पुल पर गुजरता है। एक पुलिसवाला उसे देखता रहा, आखिर उसने कहा- सुन भाई, तू क्यों यहां बार-बार गुजरता है? आत्महत्या करनी है? पुल से कूदना है? क्या इरादा है? फकीर है, तो दिखता भी है ऐसा कि उदास हो और जिन्दगी से निराश है, शायद मौका देख रहा है, कूद जाने का या कोई और कारण है, बात क्या है? संदेह पैदा होता है।
उस फकीर ने कहा, जब तुमने पूछ लिया तो मैं बता ही दूं, क्योंकि रास्ता भी दिखाई नहीं पड़ता कुछ करने का, तुमसे ही कह दूं, शायद तुम्हारे काम पड़ जाये। मैंने एक सपना देखा, सतत देखा और जहां खड़े हो वहां जमीन में बड़ा खजाना गड़ा है। वह सिपाही हंसने लगा, उसके कहा- हद हो गयी। सपना तो हमको भी तीन रात से आ रहा है लेकिन यहां का नहीं आ रहा है। एक छोटे से गांव का उसने नाम लिया। फकीर चौंका, वह तो उसका गांव है। एक फकीर के घर में—-और वह तो फकीर का नाम है और जहां वह फकीर बैठकर माला जपता रहता है, वहां खजाना गड़ा है। उसने कहा, तीन रात से हमको भी आ रहा है। मगर सपना सपना है। ऐसे हम तुम्हारे जैसे झंझटों में नहीं पड़ते कि कभी यात्रा करे, उस गांव जायें, पागलपन में मत पड़ो।
फकीर भागा घर की तरफ कि यह तो हद हो गयी, जहां बैठा था, खोजा-खजाना वहां था। कहानी का पता नहीं, सच है या झूठ, पर जीवन में ऐसा ही है, तुम जहां हो, खजाना वहीं गड़ा है। सपना आयेगा- हिमालय चले जाओ, खजाना वहां है। लेकिन तुम जहां हो, वहीं खजाना है। क्योंकि अगर तुम हिमालय पहुंचे तो हिमालय में जो बैठा है, वह तुमको बतायेगा कि हमको तो सपना आ रहा है कि दिल्ली में खजाना बंट रहा है। परमात्मा सब जगह हैं, इसलिये कहीं जाने की जरूरत नहीं है। तुम जहां हो, जैसे हो और परमात्मा की उपलब्धि बेशर्त है, अनकंडिशनल है। वह उपलब्ध है हर क्षण तुम्हारे पास ही।
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