भारतीय परम्परानुसार पचास वर्ष की आयु के बाद ही गृहस्थ आश्रम की समाप्ति मान ली जाती है, किन्तु जीवन की भावनाएं घड़ी की किन्हीं सुइयों से बंधी किसी व्यवस्था का ही दूसरा नाम तो नहीं हो सकता, अतः पचास वर्ष की अवस्था में जिस लौकिक कर्त्तव्य से मुख मोड़ने का क्रम प्रारम्भ होता है, वही साठ वर्ष की आयु तक परिपक्व हो पाता है।
भारतीय चिंतन में यदि कर्त्तव्यबद्ध होना उत्सव है, तो कर्त्तव्य मुक्त होना भी महापर्व है क्योंकि जीवन न तो कर्त्तव्यों को ढ़ोते रहने का नाम है, न उससे उदासीन होने का। यही संन्यास की भावभूमि है, जो गृहस्थ आश्रम के बाद प्रारम्भ होती है।
पूज्यपाद गुरूदेव के सम्बन्ध में यद्यपि इस व्यवस्था का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि वे कालचक्र के बंधनों से सर्वथा मुक्त पुरूष हैं, फिर भी जितने अर्थो में उन्होंने इस भौतिक जीवन को धारण किया है, उतने ही अर्थो में हम उनके प्रति इसी प्रकार कुछ कहने की इच्छा रखते हैं। भौतिक जीवन होते हुए भी वे इस भौतिकता में जो अध्यात्म का पक्ष रखते हैं, उसका ध्यान रखना भी आवश्यक हैं। उनका पूर्ण आध्यात्मिक स्वरूप तो केवल संन्यस्त शिष्यों के समक्ष ही स्पष्ट हो सका है।
मुझे यह लिखते हुए खेद होता है, कि उनके जन्म उत्सव का समारोह उस वेग से सम्पूर्ण देश में, सभी शिष्यों के मध्य नहीं मनाया गया, जो अपेक्षित था। शिष्यगण किसी बंधी हुई व्यवस्था के तहत आए और उसी परम्परागत ढंग से चरण स्पर्श कर, कुछ गाकर वापस अपने जीवन में खो गए।
जबकि अपेक्षित तो यह था, कि वर्ष 2019 से जो उत्सव प्रारम्भ हुआ, वह पूरे देश में विभिन्न गोष्ठियों, उत्सवों आदि के रूप में मनाया जाता। शिष्यगण अपने-अपने स्थानीय स्तर पर ही आयोजन करते संगीत सभाओं, चर्चाओं इत्यादि का क्रम प्रारंभ करते और लगता कि कोई उत्साह, उद्वेलन सभी के मन में मचल रहा है।
मैं जानता हूं, कि हमारे गुरू भाई-बहनों के अन्दर कई अद्वितीय प्रतिभाएं छिपी पड़ी हैं, वे उनका सदुपयोग कर सकते हैं और भले ही उनके नगर, ग्राम या कस्बे में संस्था की विधिवत् स्थापना न हुई हो, फिर भी वे संस्थागत रूप में कार्य कर सकते हैं। संस्था तो व्यक्तियों से बनती है, साइनबोर्डो या भवनों से नहीं, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया।
मुझे आपकी भावनाओं पर कटाक्ष करने में खेद है, किन्तु उससे भी अधिक पीड़ा पूज्यपाद गुरुदेव का चिन्तन अपनी क्षमता भर करने के उपरान्त। प्रत्येक वर्ष ही तो वे इस प्रकार आपको अपने समीप बुलाने की क्रिया करते हैं, जीवन के नये आयाम समझाने की क्रिया करते हैं। आपको आपके स्तर तक उतर कर रिझाते हैं किन्तु फिर वही, कि शिविर समाप्त हुआ और अपने-अपने बंधन—! बंधन तो आपसे ज्यादा पूज्यपाद गुरूदेव को है- शारीरिक रूप से भी, मानसिक रूप से भी और आत्मिक रूप से भी किन्तु फिर भी वे आपसे अधिक गतिशील और सचेतन क्यों हैं?
इसका उत्तर है- उनके ह्रदय में बहता स्नेह का अजस्त्र प्रवाह, जो उन्हें घोर शारीरिक पीड़ा में भी उठकर आप तक आने के लिए बाध्य कर देता है- और आप हैं, कि मकान, दुकान की समस्या में आज से जैसे दस वर्ष पहले पीडि़त थे, उसी प्रकार आज भी पीडि़त अपने आपको बता रहे हैं। यह जन्म उत्सव मनाने का अर्थ तो कदापि नहीं हो सकता ।
यदि आप सभी लोगों ने पिछले वर्ष वास्तव में पूज्यपाद गुरुदेव के जन्म उत्सव में भाग लिया है, तो एक शिष्य के नाते आपका धर्म बन जाता है, कि आप अपनी श्रेष्ठता दें, जन्म उत्सव मनाने का यही अर्थ है, कि हम अपने पिता को संतोष दें और उनके दायित्वों को अपने उपर ओढ लें।
आपको शायद यह बोध न हो, किन्तु गुरूदेव के समक्ष एक विस्तृत कालखण्ड फैला है, और जो ज्योति उन्होंने प्रज्ज्वलित की है, उसकी सुरक्षा का प्रबंध भी उन्हीं को सोचना पड़ रहा हैं, क्योंकि उन्हें अपने शिष्यों में से इसके लिए समर्थ व्यक्ति नहीं मिल रहे। इसके उपरांत भी हम स्वयं को उनका शिष्य कहते रहे- यह कितना बड़ा दुर्भाग्य हैं।
कितने अधिक खेद का विषय है, कि आप गुरु जन्मोत्सव जैसे अवसर पर आते भी हैं, तो किसी साधना या सिद्धि अथवा भौतिक लाभ की आकांक्षा के वशीभूत होकर। क्या पूरे वर्ष में एक दिन भी हम निश्छल भाव से स्वयं को गुरू चरणों में, जैसे हैं उसी रूप में सौंप नवीन जन्म की प्रार्थना नहीं कर सकते?
क्योंकि यह आपका ही जन्म दिवस है- पूज्यपाद गुरूदेव पिछले कई वर्षो से इसी तथ्य को दोहराते आ रहे हैं। इसके उपरांत भी हम आशा संजोए हैं, कि हमारे जीवन में सुख शांति, वैभव और कुण्डलिनी जागरण जैसी स्थितियां संभव होंगी। हमने आधार तो पुष्ट किया ही नहीं और स्वप्न महल कई मंजिलों में खड़ा कर दिया। यह ढ़ह जायेगा, यदि निर्मल मन से प्रेम की नींव डाले बिना कुछ बनाया भी गया और प्रेम आयेगा तभी सुख आयेगा, तभी शांति आयेगी, तभी निर्भयता आयेगी और तब जाकर कहीं कुण्डलिनी जागरण की भावभूमि बनेगी।
और एक बार फिर मानव संस्कृति की करूण पुकार पर नित्य लीला विहारिणी ने सृष्टि के विशुद्ध प्रेम तत्व से श्री सद्गुरूदेव के पंचभौतिक आवरण में आबद्ध होने हेतु अभ्यर्थना की और यह हम सबका सौभाग्य है, इस पीढ़ी का, इस शताब्दी का सौभाग्य है, ज्ञान के उस चेतना पुंज ने आद्या शक्ति पराम्बा भगवती के लीला विस्तार को अपनी मोहिनी छवि से आप्लावित कर दिया और अमिट बना दिया।
21 अप्रैल का यह दिव्य सुनहरा क्षण जब प्रेम और ज्ञान की उस साकार प्रतिमा ने राजस्थान के खरंटिया ग्राम में पुंजीभूत किया—— और बह चली वह वासंती बयार परम प्रेमास्पद पूज्यनीय श्रीमती रूपादेवी के माध्यम से। उस दिन राजस्थान की धरती इठला रही थी अपने भाग्य पर , रक्त पलाज से ढकी मानों अपने हृदय की आकुलता को रोक ही नहीं पा रही थी। वह क्षण वह पल अद्वितीय होना था, उस क्षण हमारे गुरूवर को आना था, अवतरित होना था, उनके शरीर का जन्म होना था, जो हमारे ही हैं, हमारा प्रेम ही तो गुरू हैं और वे आये हैं, ताकि हम उन्हें निहार सकें, इस पूरी जीवन यात्रा के पथ पर अहसास कर सकें, कि कोई हमारा हैं, जो निरन्तर हमारे साथ हैं, वह उंगली पकड़ कर चलना सिखाता है, तो ठोकर लगने पर हमें स्नेह से सहलाता भी है। ब्रह्माण्ड की इस संचालिका शक्ति की अभिव्यक्ति हैं प्रातः स्मरणीय व्यक्तित्व डॉ नारायण दत्त श्रीमाली जी के शरीर के माध्यम से।
21 अप्रैल का वह क्षण जब सम्पूर्ण सोलह कलाएं सिमट गई थीं नारायण के आवरण में परम पूज्य गुरूदेव! आज आपसे यही मनुहार है कि आप हमें ऐसा ही समर्पण दें, जैसा उस भंवरे में है। हमने आपकी आंखों में प्रेम, करूणा और वात्सल्य का सागर लहराता हुआ देखा है। हमारा तो एकमात्र गन्तव्य आप ही रह गए हैं। गुरूदेव! 21 अप्रैल को आपने शरीर धारण किया था और इस समय, जब हम उन क्षणों की दिव्यता में खोए हैं, इस प्रकार के चिन्तन करने के पुण्य प्रताप से हमारे हृदय में जन्म ले लीजिए। आप जानते हैं, कि गुरू जन्मोत्सव तो शिष्य को हृदय के द्वारा मनाने का महोत्सव होता है, अतः आपको तो हमारे हृदय के आंगन में पैजनियां बजानी ही होंगी तभी तो आपके आत्मज, आपके शिष्य पूर्ण हो सकेगें। इस पवित्र अवसर पर प्रेम की शीतल फुहार में भीगने के लिए, स्वच्छ, निर्मल और उदात्त होने के लिए आप सभी का हृदय से आवाहन है।
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