शिष्य का अर्थ है जो कि सीखने के लिए, कुछ नया बनने के लिए तैयार हो।
शिष्य अपने विचारों से, मान्यताओं से, तर्क से, बंधा नहीं होता। वह कली की तरह बंद न होकर, एक पुष्प के समान खिला हुआ होता है।
जब व्यक्ति अपने विचारों से पूर्णतः मुक्त होता हुआ गुरु के सामने खड़ा होता है, तब वह सही अर्थों में
शिष्य होता है। वह तब खाली पात्र की तरह होता है और फि़र गुरु चाहें तो उसमें कुछ भी डाल सकते हैं।
तर्क, अविश्वास और कुविचार-ये व्यक्ति को शिष्य बनने से रोकते हैं तथा उसे जीवन को जड़वत् स्वरूप में फ़ंसाए रखते हैं। जब व्यक्ति उनसे मुक्त होकर गुरु के सामने प्रस्तुत होता है तभी वह सही अर्थों में शिष्य बन पाता है।
गुरु तो सदा शिष्यों की खोज में रहता है और हर व्यक्ति शिष्य बन सकता है, अगर उसमें समर्पण की भावना हो, कुछ नवीन करने की इच्छा हो और रूढि़यों से बंधा नहीं हो।
रूढियों से, मान्यताओं से बंधा व्यक्ति कभी शिष्य नहीं बन सकता । रूढियों व्यक्ति की मानसिकता को सीमित कर देती हैं और उसे नए विचार, नया चिंतन ग्रहण नहीं करने देती । इनसे मुक्त होकर ही व्यक्ति शिष्यता की कसौटी पर खरा उतर सकता है।
शिष्यता का पयार्य है नवीनता। जो हर क्षण नवीन हो, जो हर क्षण जीवन में कुछ नया बनने और कर गुजरने की ओर अग्रसर हो वही शिष्य है। परन्तु आवश्यक है कि वह उस मार्ग पर चले जिस पर गुरु उसे चलाए।
पुराने घिसे पिटे रास्तों पर चलना शिष्यता नहीं कहलाती। जितने महापुरूष हुए हैं उनके जीवन को देखें तो हरेक एक भिन्न पुष्प की भांति है, हरेक की शैली, प्रवाह, अंदाज भिन्न है। समानता है अगर तो इस तथ्य में कि हरेक गुरु के द्वारा बताए रास्ते पर निःसंकोच होकर आगे बढे़।
शिष्यता कोई गंभीर विषय नहीं, कोई रूखे सूखें ठूंठ की तरह नहीं है। शिष्यता तो एक सुंगधा है, एक प्रवाह का नाम है, एक हंसी, एक छल-छलाहट, एक नदी की तरह ऊनते हुए चलने की कला है, एक मस्ती में झूमने नाचने की क्रिया का नाम है।
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