कहीं से भी शुरु करो, बस शुरु कर दो, परमात्मा सब तरफ है। जहां से भी करोगे, वहीं से अच्छा है। कहां से शुरु करुं, इस प्रश्न में मत उलझो। क्योंकि परमात्मा तो एक तरह का वर्तलु है। इसीलिये तो दुनिया में इतने धर्म हैं, दुनिया में तीन सौ धर्म हैं। दुनिया में तीन हजार धर्म भी हो सकते हैं, तीन लाख भी हो सकते हैं, तीन करोड़ भी हो सकते हैं। दुनिया में असल में उतने ही धर्म हो सकते हैं, जितने लोग हैं। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शुरुआत दूसरे से थोड़ी भिन्न होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से थोड़ा भिन्न है। कहीं से भी शुरु करो। इस प्रश्न को बहुत मूल्य मत दो। मूल्य दो शुरु करने को। शुरु करो और ध्यान रखो कि जब भी कोई शुरु करता है, तो भूल-चूक होती है! कहां से शुरु करुं- यह बहुत गणित का सवाल है। इसमें भय यही है कि कहीं गलत शुरुआत न हो जाये, कि कहीं कोई भूल-चूक न हो जाये! कहां से शुरु करुं।
अगर बच्चा चलने के पहले यही पूछे कि कहां से शुरु करुं, कैसे शुरु करुं, कहीं गिर न जाऊं, घुटने में चोट न आ जाये, तो फिर बच्चा कभी चल नहीं पायेगा। उसे तो शुरु करना पड़ता है। सब खतरे मोल ले लेने पड़ते हैं। सब भय के बावजूद शुरु करना पड़ता है। एक दिन बच्चा उठ कर जब खड़ा होता है, पहले दिन, तो असंभव लगता है कि चल पायेगा। अभी तक घसीट रहा था, आज अचानक खड़ा हो गया। मां कितना खुश हो जाती है, जब बच्चा खड़ा होता है। हालांकि खतरे का दिन आया। अब गिरेगा, अब घुटने तोड़ेगा। अब लहू-लुहान होगा। सीढि़यों से गिरेगा। अब खतरे की शुरुआत हो गयी है। जब तक घसीटता था, खतरा कम था, सुरक्षा थी। मगर सुरक्षा में ही कब तक कैद रहोगे! बच्चे को चलना पड़ेगा, खतरा मोल लेना पड़ेगा, अन्यथा लंगडा ही रह जायेगा और चलेगा तो कई बार गिरेगा भी—–!
जब बच्चा पहली दफा बोलना शुरु करता है, तो तुतलाता ही है, कोई एकदम से सारी भाषा का मालिक तो नहीं हो जायेगा! कौन कब हुआ है? तुतलायेगा, भूलें होंगी। कुछ का कुछ कहेगा, कुछ कहना चाहेगा, कुछ निकल जायेगा। लेकिन बच्चे हिम्मत करते हैं- तुतलाने की। इसलिये एक दिन बोल पाते हैं। तुतलाने की हिम्मत करते हैं, इसलिये एक दिन कालीदास और शेक्सपीयर भी पैदा हो पाते हैं। तुतलाने की कोशिश करते हैं, इसलिये एक दिन बुद्ध और क्राइस्ट भी पैदा हो पाते हैं।
तो तुम जब शुरु करोगे, तो यह तो तुतलाने जैसा होगा। इसमें तुम पूर्णता की अपेक्षा मत करना। यह तो अभी घसीटते थे, अब उठ कर खड़े हुये- खतरनाक है। भूल-चूक होने ही वाली है। भूल-चूक होगी ही। जो भूल-चूक से बचना चाहेगा, वह कभी कुछ भी नहीं कर सकेगा, न चल सकेगा, बोल न सकेगा, वह जी ही न सकेगा और भूल-चूक की कोई सजा नहीं है, कोई दण्ड नहीं है। अक्सर ऐसा हो जाता है कि भूल-चूक से बचने वाले लोग वंचित ही रह जाते हैं- जीवन की सम्पदा से। दुनिया में एक ही भूल-चूक है और वह भूल-चूक से बचने की अतिशय चेष्टा है।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने एक फूल आश्चर्यजनक स्थिति में देखा खिला हुआ। पत्थर की दीवारों के बीच में सेंध थी, उसमें से एक फूल निकल आया था। चौंक कर खड़े हो गये टेनीसन और उन्होंने अपनी डायरी में लिखा अगर मैं इस एक फूल को समझ लूं पूरा-पूरा, तो मुझे सारा अस्तित्व समझ में आ जायेगा और परमात्मा की सारी लीला भी। क्योंकि इसी से कभी-कभी जीवन में मस्ती आयी और इसी से कभी-कभी आनंद का स्वाद मिला और इसी से कभी-कभी आत्मा की झलक मिली। इसलिये तो कभी सागर को देखते-देखते ध्यान की झलक आ जाती है। कभी हिमालय पर शांत हरियाली को देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ हरा हो जाता है। कभी गुलाब की पंखुडि़यों को देखते-देखते तुम्हारे भीतर कुछ खुल जाता है।
हम इस प्रकृति के हिस्से हैं। हम भी एक पौधे हैं। हमारी भी यहां जड़े हैं। यह जमीन जितनी वृक्षों की है, उतनी
हमारी है। ये वृक्ष जैसे जमीन से पैदा हुये, हम भी पैदा हुये हैं। सागर में जो जल लहरें ले रहा है, वही जल हमारे भीतर भी लहरें ले रहा है। वृक्षों में जो हरियाली है, वही हमारा जीवन भी है और इस सौंदर्य को देखते हो, इसने प्रकृति को कैसे अमरता दी है, वृक्ष आते हैं, चले जाते हैं, हरियाली बनी रहती है, हरियाली अमर है। फूल आते हैं, चले जाते हैं- फुलवारी बनी रहती है, फुलवारी अमर है। आज एक पौधा है, कल दूसरा होगा, परसों तीसरा होगा, लेकिन तीनों किसी एक ही जीवन के अंग हैं। एक ही सिल-सिला है और जिसने प्रकृति को देखा, उसी को देखने के नये कोण, नई दृष्टियां, नये दर्शन उपलब्ध होते हैं। उसी को सौदर्य को परखने की नई आंख मिलती है, नई कसौटियां मिलती हैं।
और उसी प्रकृति के माध्यम से भावना को सभ्यता मिलती है। जो लोग प्रकृति से अपरिचित हैं, उनकी भावना असभ्य होती है। जिसने कभी फूल खिलते नहीं देखा, वह आदमी अभी पूरा आदमी नहीं और जिसने कभी पक्षियों के गीत शांति से बैठ कर नहीं सुने और जो आदमियों की आवाज सुनता रहा है, वह आदमी नहीं और जिसने कभी रात के चांद-तारों से गुफतगू न की, वह आदमी आदमी नहीं, वह आदमी बहुत अधूरा है। परमात्मा को खोजना हो, तो वहां खोजो, जहां चीजें बढ़ती हैं। बड़े से बड़ा मकान भी अपने आप नहीं बढ़ता। उसमें जीवन नहीं है और लम्बे से लम्बा रास्ता भी अपने आप नहीं बढ़ता उसमें जीवन नहीं है एक बीज में ज्यादा छिपा है, जितना लंदन में, न्यूयॅार्क या बम्बई में छिपा है। उससे ज्यादा एक छोटे से बीज में छिपा है, क्योंकि बीज बढ़ता है। बीज में जीवन छिपा है और जीवन में परमात्मा छिपा है।
और जिस आदमी ने आदमी की बनाई चीजें देखीं, वह आदमी कठोर हो जायेगा। जिसने परमात्मा की कोमल बनाई चीजे देखीं, वह आदमी भावनाओं की दृष्टि से सभ्य हो जायेगा और जिसने प्रकृति को देखा, वही शाश्वत को प्रेम कर पायेगा, क्योंकि वह देखेगा, यहां शाश्वत है। गुलाबों के फूल बहुत हुये और गये, लेकिन गुलाब का फूल बना है। कुछ फर्क नहीं पड़ता, एक फूल जाता है, दूसरा उसकी जगह भर देता है। परमात्मा का सृजन अनंत है और इस प्रकृति को तुम देखोंगे, तो तुम्हें समझ आयेगा, यहां कितने-कितने ढंग के फूल हैं, कितने रंग, कितने ढंग, कितना अद्वितीय, कहां गुलाब, कहां गेंदा, कहां कमल, कहां चम्पा, कहां चमेली। सब कितने अलग और सब में एक का ही वास है और सब में एक की ही सुवास है। ऐसे ही लोग भी अलग-अलग है, ऐसे ही लोग भी भिन्न-भिन्न हैं। उनकी प्रार्थना भी भिन्न-भिन्न होगी। उनकी भावनायें भी भिन्न-भिन्न होंगी। प्रकृति को देखोगे, तो तुम्हें भिन्नता में एकता दिखाई पड़ेगी और जिसको भिन्नता में एकता दिखाई पड़ गई, उसको मनुष्य का अन्तस्तल दिखाई पड़ जायेगा।
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