मानव शरीर में ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जो कि भगवान या गुरु के चरणों में चढ़ायें- हे भगवान् यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है, तो शरीर तो खुद अपवित्र है, जिसमें मल और मूत्र के अलावा है ही कुछ नहीं। ऐसे गन्दे शरीर को भगवान के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं? ऐसे शरीर को अपने गुरु के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं?
देवताओं का सारभूत अगर किसी में है, तो वह गुरु है, क्योंकि गुरु प्राणमय कोष में होता है, आत्ममय कोष में होता है। वह केवल मानव शरीर धारी नहीं होता। उसमें ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसका सहस्त्रार जाग्रत होता है।
इसीलिये यह आवश्यक है हम ऐसे गुरु की उपासना करें, जो अपने आपमें पूर्ण प्राणवान हो, तेजस्विता युक्त हों, वाणी में गम्भीरता हो, आंखों में तेज हो, अपने आपमें सक्षम हों और पूर्ण रूप से ज्ञाता हो।
लेकिन आपके पास कोई कसौटी नहीं है, कोई माप दण्ड नहीं है। आप उनके पास बैठ कर उनके ज्ञान से, चेतना से, प्रवचन से एहसास कर सकते हैं। यदि आपको जीवन में समझ में आयेगा, तब आपको गर्व होगा, कि आप एक सद्गुरु के शिष्य हैं, जिनके पास हजारों-हजारों पोथियों से भी अधिक ज्ञान है। यदि व्यक्ति में जरा समझदारी है, यदि उसमें समझदारी का एक कण भी है, तो पहले तो उसे यह चिन्तन करना चाहिये, कि उसे ऐसा जीवन जीना ही नहीं है, जो मल-मूत्र युक्त है, क्योंकि ऐसे जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है और फिर उसे सद्गुरु को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, जो उसे तेजस्विता युक्त बना सके, जो उसे प्राण तत्व में ले जा सके, जो उसके शरीर को सुगन्ध युक्त बना सके।
ऐसा तब सम्भव हो सकेगा, जब आपके प्राण, गुरु के प्राण से जुड़ेगे, जब आपका चिन्तन गुरुमय होगा, जब आपके क्रिया-कलाप गुरुमय होंगे और इसके लिये एक ही क्रिया है – अपने शरीर में पूर्णता के साथ गुरु को स्थापित कर देना, जीवन में उतार देना। शरीर में उनकी स्थापना होते ही उनकी चेतना के माध्यम से यह शरीर अपने आपमें सुगन्ध युक्त, अत्यन्त दैदीप्यमान और तेजस्वीमय बन सकेगा, जीवन में अद्वितीयता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगी, जीवन में पवित्रता आ सकेगी, प्राण तत्व की यात्रा संभव हो सकेगी और उनका ज्ञान आपके अन्दर उतर सकेगा।
सद्गुरु जीवन का सौभाग्य है, जीवन का पुण्य है, जीवन की चेतना और जीवन का आधार है, क्योंकि समस्त पृथ्वी दो भागों में बटी हुई है- एक भौतिक चेतना है, तो दूसरी आध्यात्मिक चेतना। भौतिक चेतना के माध्यम से विज्ञान की प्रगति होती है और विज्ञान के माध्यम से अणु और परमाणु बमों का निर्माण होता है और ये बम, ये प्रक्षेपास्त्र मनुष्य जाति का ही संहार करने में अग्रणी हैं।
आध्यात्मिक चेतना व्यक्ति को प्रेम, सुख, शांति, सौभाग्य और पूर्णता देने में समर्थ है, जिसके माध्यम से आनन्द की उपलब्धि और अनुभूति होती है। मनुष्य जीवन भी अपने-आप में पूर्ण सृष्टि का एक अंश है। इसके अन्दर भी दोनों प्रवृत्तियां काम करती हैं- पहली भौतिक प्रवृत्ति और दूसरी आध्यात्मिक प्रवृत्ति। भौतिक प्रवृत्ति की वृद्धि से मनुष्य के जीवन में चिन्तायें, परेशनियां, कठिनाइयां, तनाव और मृत्यु व्याप्त होती है।
मनुष्य छटपटाता है, परेशान रहता है, तनावग्रस्त रहता है, उसे सुख की अनुभुति नहीं होती, वह शांति का अर्थ नहीं समझ पाता, वह आनन्द की चर्मोत्कर्षता को स्वीकार नहीं कर पाता, उसे ज्ञान ही नहीं होता, कि आनन्द क्या है? सुख क्या है? संतोष क्या है? सौभाग्य क्या है?
सद्गुरु इन दोनो के बीच संतुलन कायम करता है। वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और पृथ्वी पर आध्यात्मिक संतुलन कायम करता है। वहीं वह मानव के मन में भी प्रेम, दया, करूणा, स्नेह और आनन्द की उपलब्धि देने में सहायक है। साथ ही उसके भौतिक जीवन की सभी कामनाओं की पूर्ति करता है, उसका भरण-पोषण करता है। इसीलिए शास्त्रों मे सद्गुरु को जीवन की पूर्णता और सौभाग्य बताया गया है।
इसके लिए आवश्यक साधक सिद्धाश्रम शक्ति चेतना प्राप्ति साधना सम्पन्न करें और अपने पूरे शरीर में सिद्धाश्रम शक्ति का संचरण करने के लिये तत्पर हो जायें। सिद्धाश्रम चेतना शक्ति प्राप्ति साधना अपने आप में बहुत ही उच्चकोटि की साधना है, जिसके माध्यम से साधक अपने जीवन में सभी दृष्टि से परिपूर्ण होते हुये भौतिक व आध्यत्मिक क्षेत्र में उच्चता प्राप्त करने में सफल होता है। घर में देवी-देवताओं व सिद्धाश्रम के ऋषि-मुनियों का सूक्ष्म रूप से आगमन होता है तथा जीवन में धन-धन्य, सुख-सौभाग्य, आयु की वृद्धि होती है। सिद्धाश्रम चैतन्य साधना से सद्गुरु-श्ष्यि का आत्मीय सम्बन्ध प्रगाढ़ व चेतनावान बनता है। वास्तव में जिसके जीवन में पूर्ण रूप से गुरु स्थापित हो जाता है, उसके जीवन की समस्त अभिलाषायें स्वतः ही पूरी हो जाती हैं।
सद्गुरु से जीवन की गति को सन्मार्ग मिलता है, चिंतन को सद्चिंतन मिलता है अर्थात् सद्गुरु वह जो जीवन की सारी उलझने मिटा दे, जो सारे द्वंद समाप्त कर दे, जिसकी शरण में जाने पर सभी जिज्ञासायें शांत हो जायें, चित्त निर्मल व निर्मुक्त बन जाये, आंतरिक मन की पीपासा तृप्त हो जाये, ऐसे सद्गुरु की शरण प्राप्त होने पर जन्म-जन्मातर का जीवन ही नहीं आदि से अनन्त तक व्यक्ति का, साधक का, शिष्य का अस्तित्व ही सफ़ल हो जाता हैं
सद्गुरु जन्मोत्सव दिवस पर प्रातः स्नानादि क्रिया से निवृत्त होकर पूजा स्थान में स्वच्छ वस्त्र पहन कर आसन पर बैठ जायें। सामने चौकी पर पीला वस्त्र बिछा कर सुन्दर गुरू चित्र स्थापित कर अपने समीप पारद गुरू यंत्र, सिद्धाश्रम शक्ति माला, निखिल प्राणशः जीवट तथा अन्य पूजन सामग्री रख लें। गुरू चित्र के सामने किसी थाली में कुंकुम से स्वस्तिक बनाकर उस पर पारद गुरू यंत्र स्थापित करें। यंत्र के दाहिनी ओर जीवट बायीं ओर सिद्धाश्रम माला रख कर धूप, दीप प्रज्ज्वलित करें। पवित्रीकरण और आचमन करके दोनों हाथ जोड़ कर गुरू-प्रार्थना करें।
अपने सामने किसी पात्र में थोड़ा जल लेकर उसमें कुंकुम, अक्षत और पुष्प की पंखुडि़यां मिला लें, उसके बाद उसमें सभी तीर्थों का आह्वान करें-
बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से निम्न मंत्र बोलते हुये सभी दिशाओं में छिड़कें-
इसके बाद सर्व विघ्नान् उत्सादय हूं फट् स्वाहा का उच्चारण कर गुरूदेव को हाथ जोड़कर प्रणाम करें-
ऊँ ऐं गुरूभ्यो नमः।
ऊँ ऐं परम गुरूभ्यो नमः।
ऊँ ऐं परात्पर गुरूभ्यो नमः।
ऊँ ऐं पारमेष्ठि गुरूभ्यो नमः।
अब अपने हृदय में गुरू तत्व को स्थापित करें-
ऊँ आं हीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौ हंसः
श्री निखिलेश्वरानन्द देवतायाः प्राणा इह प्राणा।
ऊँ आं हीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौ हंसः
श्री निखिलेश्वरानन्द देवतायाः जीव इह स्थितः।
ऊँ आं हीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौ हंसः
श्री निखिलेश्वरानन्द देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि।
ऊँ आं हीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौ हंसः
श्री निखिलेश्वरानन्द देवतायाः वाड्मनश चक्षु श्रोत्र जिह्ना घ्राण पाणिपाद इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठनतु स्वाहा।
विनियोग-
ऊँ अस्य मातृका मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्री छन्छः मातृका सरस्वती देवता, ह्रीं बीजानि, स्वरा शक्तयेः अव्यक्तं कीलकं सर्वाभीष्ट सिद्धये मातृका न्यासे विनियोगः।
इसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए विभिन्न् अंगों को दाएं हाथ से स्पर्श करें-
ऊँ ब्रह्मणे ऋषये नमः सिर
ऊँ गायत्रीच्छन्दसे नमः हृदय
ऊँ मातृका सरस्वत्यै देवतायै नमः मुख
ऊँ हल्भ्यो बीजेभ्यो नमः करतल
ऊँ स्वरेभः शक्तिभ्यो नमः दोनों पैर
ऊँ अव्यक्त कीलकाय नमः सभी अंग
गुरूदेव का दोनों हाथ जोड़कर आह्वान करें-
आवाह्यामि रक्षार्थ पूजार्थ च मम क्रतोः।
इहागत्य गृहाण त्वं पूजां यागं च रक्षये।।
पुष्प का आसन दें-
ऊँ सर्वभूतान्तरस्थाय सर्वभूतान्तरात्मने।
कल्पयाम्युपवेशार्थमासनं ते नमो नमः।।
इदं पुष्पासनं समर्पयामि नमः।
पाद्यं दो आचमनी जल चढ़ायें-
यत् भक्तिलेश सम्पर्कात् परमानन्द संभवः।
तस्मै ते परमेशान पाद्यं शुद्धाय कल्पये।।
इदं पाद्यं समर्पयामि नमः।
कुंकुमः ऊँ सद्गुरु चरणेभ्यो नमः कुंकुम समर्पयामि।
अक्षतः ऊँ सद्गुरु चरणेभ्यो नमः अक्षतान् समर्पयामि।
मालाः ऊँ सद्गुरु चरणेभ्योनमः पुष्पमाला समर्पयामि।
धूप, दीपः ऊँ सद्गुरु चरणेभ्यो नमः धूप-दीप दर्शयामि।
नैवैद्यः ऊँ सद्गुरु चरणेभ्यो नमः नैवेद्यं समर्पयामि।
सिद्धाश्रम मंत्र की एक माला जप करें
पश्चात् सिद्धाश्रम शक्ति माला 11 माला जप करें-
फिर गुरू आरती सम्पन्न् करके पुष्पांजली समर्पित कर प्रसाद वितरण कर स्वयं ग्रहण कर लें। सभी सामग्री पूजा स्थान में स्थापित रहने दें व समय-समय पर एक माला उपरोक्त मंत्र का जप कर लें।
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