शनैःशनैः प्रगति अथवा शनैःशनैःक्षय के लिए हर व्यक्ति अपने आप को नियोजित कर लेता हैं। लेकिन आकस्मिक चढ़ाव अथवा उतार के लिए व्यक्ति मानसिक रूप से तैयार हो नहीं पाता। क्षय जीवन का सिद्धांत हैं, साथ ही यह प्रश्न उठता है कि क्या जीवन में क्षय कारक स्थितियों को रोक कर अक्षय कारक स्थितियों को बनाया जा सकता है? क्या जीवन में वृद्धावस्था भी आये तो धीरे-धीरे आये, क्या यह सम्भव हैं कि जीवन में प्राप्त लक्ष्मी का क्षय नहीं हो और उसमें निरन्तर वृद्धि होती रहे। क्षय को रोककर अक्षय की ओर बढ़ना ही तो पुरूषार्थ हैं। काल की गति के अनुसार सभी अपनी जीवन यात्रा में विचरण कर रहे है, लेकिन काल की गति के विरूद्ध विचरण किया जा सकता हैं।
संसार में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ कहा जाता हैं, और जो मनुष्य अपना जीवन पूर्णता के साथ जीता है, अर्थात् जीवन में सभी प्रकार के सुख प्राप्त करता है, आनन्द प्राप्त करता है उसका जीवन ही श्रेष्ठ कहा जा सकता है। सृष्टि का नियम हैं कि संसार में जो भी वस्तु उत्पन्न होती हैं उसका क्षय अर्थात् अंत अवश्य होता हैं, कुछ भी स्थायी नहीं हैं, इसी कारण प्रकृति में निरन्तर उत्पत्ति, वृद्धि और संहार चलता रहता हैं। अर्थात् निरन्तर उत्पत्ति, निर्माण और विखण्डन की क्रियायें गतिशील रहती हैं।
यही जगत के प्रमुख देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश का कार्य हैं। पुरूषार्थ प्राप्ति अर्थात् परशुराममय जीवन दशावतारों में परशुराम को षष्ठम् अवतार माना गया है। उनके सम्बन्ध में पुराणों में यह कथा आती हैं कि उनके पिता ऋषि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी और एक बार जब राजा सहस्त्रबाहु ऋषि के आश्रम के पास से गुजरे तो चौदह रत्नों में एक कामधेनु गाय जबरदस्ती उठाकर ले गये, उस समय परशुराम तपस्या में लीन थे। तप स्थली से वापस आकर जब उन्होंने कामधेनु को आश्रम में नही देखा तो अत्यधिक क्रोधाग्नि से उदिग्न होकर सहस्त्रबाहु की सेना से युद्ध में अपने फरसे से उसका सिर काटकर अपने पिताश्री के चरणों में रख दिया और कामधेनु गाय वापस आश्रम में ले आए। लेकिन इसके बाद सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने ऋषि के आश्रम पर पुनः आक्रमण कर जमदग्नि का मस्तक काटकर ले गये, भगवान परशुराम को जब यह विदित हुआ तो उन्होंने संकल्प लिया कि मैं पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दूंगा, तब ही फरसे को नीचे रखूंगा। पुनः युद्ध कर अपने पिता का मस्तक लेकर आये और संजीवनी विद्या द्वारा पुर्नजीवित कर दिया।
इस प्रकार इक्कीस बार उन्होंने पूरी पृथ्वी का भ्रमण कर, पृथ्वी लोक को क्षत्रिय विहीन कर दिया। अंत में ऋषि कश्यप के कहने पर अश्वमेध यज्ञ में पूरी पृथ्वी उन्हें दान में दे दी और उनकी आज्ञा अनुसार भगवान शंकर के पास महेन्द्र पर्वत पर चले गये। भगवान परशुराम ने क्षत्रियों का वध केवल उनका गर्व नष्ट करने के लिए ही किया था।
अक्षय तृतीया जो कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन आती है, वह मूल रूप से परशुराम जंयती अर्थात् वीर सिद्धि दिवस हैं, इस दिन वीर भाव प्राप्ति हेतु बाधाओं और शत्रुओं का समूल नाश करने के लिए यदि कोई संकल्प भी लिया जाता है तो वह संकल्प अवश्य ही पूर्ण होता है। इसके अलावा अक्षय तृतीया में और भी विशेष गुण होते हैं, जिसके कारण इस दिवस का महान महत्व हैं।
अक्षय तृतीया दिवस में सबसे बडा गुण यह हैं कि पूरे वर्ष में कोई भी तिथि क्षय हो सकती है लेकिन यह तिथि, वैशाख शुक्ल पक्ष की यह तृतीया कभी भी क्षय नहीं होती यह पूर्णता के साथ आती है, कई बार नवरात्रि में तिथि क्षय हो जाती है, दीपावली, अमावस्या चतुर्दशी को सम्पन्न करनी पडती है, लेकिन अक्षय तृतीया की तिथि कभी भी क्षय नहीं होती।
यह सौभाग्य सिद्धि दिवस हैं, इस कारण स्त्रियाँ अपने परिवार की समृद्धि के लिए विशेष व्रत उपवास करती हैं तथा पूर्वजो का आशीर्वाद एवं पुण्यात्माओं से परिवार मे सुख-समृद्धि वृद्धि की कामना करती है।
अक्षय तृतीया लक्ष्मी सिद्धि दिवस है, इस कारण लक्ष्मी के सम्बन्धित साधनाएं विशेष रूप से सम्पन्न करना श्रेष्ठ रहता हैं।
मनुष्य प्रत्येक शुभ कार्य मुहूर्त इत्यादि देखकर करता है, लेकिन अक्षय तृतीया ऐसा पर्व है जिस दिन गृह निर्माण शुभारंभ, विवाह, विदेश यात्रा, नया व्यापार प्रारंभ करने के लिए सर्वाधिक श्रेष्ठ सिद्ध पर्व है।
इस दिन किसी भी प्रकार की साधना प्रारंभ की जाती है, यहां तक यक्षिणी, अप्सरा और कमला साधना के लिए भी यह शुभ मुहूर्त है।
श्रेष्ठ वर अथवा वधू की प्राप्ति के लिए और विवाह बाधा दोष निवारण के लिए भी यह श्रेष्ठ पर्व है।
बृहद रस सिद्धातं महाग्रन्थ में अक्षय तृतीया के सम्बन्ध में लिखा है, कि यह दिवस जीवन रस की अक्षय खान हैं, उसमें से जितना प्राप्त कर सको, उतना ही यह रस बढ़ता जाता है। अक्षय तृतीया लक्ष्मी का पूर्ण दिवस है, शारीरिक सौन्दर्य, लावण्य आभा प्राप्त करने का दिवस है। गृहस्थ पत्नी को गृह लक्ष्मी कहा जाता है, उसके लिए अक्षय तृतीया अनंग साधना का दिवस है।
शाक्त प्रमोद में लिखा हैं कि जो साधक अक्षय तृतीया के महत्व को जानते हुए भी पूजा साधना नहीं करता वह दुर्भाग्याशली है।
अक्षय तृतीया और लक्ष्मी साधाना प्रत्येक व्यक्ति की यही इच्छा रहती है कि उसके पास लक्ष्मी रूप में धन का स्थायी भाव हो और वह सभी दृष्टि से पूर्ण हो, लक्ष्मी का तात्पर्य केवल धन ही नहीं हैं, यह तो लक्ष्मी का एक अत्यन्त छोटा सा रूप है, महाकाव्यों में आदि ग्रन्थों में लक्ष्मी के विभिन्न स्वरूपों का, विभिन्न नामों का जो वर्णन आया है, उसे पूर्ण रूप से प्राप्त करना ही सही रूप में लक्ष्मी को प्राप्त करना हैं।
लक्ष्मी का तात्पर्य है- सौभाग्य, समृद्धि, धन- दौलत, भाग्योदय, सफलता, सम्पन्न्ता, आभा, कान्ति प्रियता, लावण्य, तथा राजकीय शक्ति ये सब लक्ष्मी के स्वरूप है और इन्हीं गुणों के कारण भगवान विष्णु ने भी लक्ष्मी को अपनी पत्नी बनाया, जब इन सब गुणों का समावेश होता है और जो इनको प्राप्त कर लेता है, वही वास्तविक रूप से लक्ष्मी पति हैं।
मनुष्य क्या है- आदि पुरूष भगवान विष्णु का अंश, उनकी सृष्टि का एक लघु स्वरूप, फिर क्या कारण है, कि उसके पास लक्ष्मी का एक छोटा सा भी स्वरूप नहीं है, यह सत्य है कि लक्ष्मी के ये स्वरूप यदि किसी व्यक्ति के पास हो जाये तो वह पूर्ण पुरूष हो जाता है, यह संभव हैं। लक्ष्मी जीतने की वस्तु नहीं है, जिसे जुए में प्राप्त किया जा सके, लक्ष्मी तो मन्थन अर्थात् प्रयत्न अथक प्रयत्न, गहनतम साधनाओं का वह सुन्दर परिणाम हैं, जो साधक को उसकी साधनाओं के कार्यों के श्रीफल के रूप में उसे प्राप्त होती हैं, उस लक्ष्मी को वह अपने पास स्थायी भाव से रख सकता हैं, आवश्यकता इस बात की है कि वह कुछ करें, और इस कुछ करने के लिए उसके पास उचित मार्ग होना चाहिए और यह उचित मार्ग उसे गुरु के निर्देश से प्राप्त हो सकता है। केवल धन की प्राप्ति ही सब कुछ नहीं है, धन तो लक्ष्मी का एक अंश हैं, क्या धन से रूप, सौन्दर्य प्राप्त कर सकते है, क्या धन से कान्ति, आभा प्राप्त कर सकते हैं? क्या धन से सौभाग्य प्राप्त कर सकते है?
पूर्ण लक्ष्मी होने का तात्पर्य केवल पैसा ही नहीं है। अपितु सौभाग्य में भी वृद्धि हो, राजकीय सुख एवं शक्ति प्राप्त हो, वह जो कार्य करे, उसी के अनुरूप उसे यश प्राप्त हो और यह यश श्रेष्ठ दिशा में होना चाहिए, लक्ष्मी के सम्बन्ध में जितने ग्रंथ लिखे गये हैं, उतने ग्रंथ शायद ही किसी अन्य विषय पर लिखे गये हों, जब व्यक्ति लक्ष्मी को पूर्ण रूप से प्राप्त कर लेता है, तो वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है, भौतिक सुख पूर्ण रूप से प्राप्त होने पर ही वह ज्ञान के मार्ग पर बढ़ सकता है।
इस लक्ष्मी प्रदायक दिवस का साधना विधान अत्यन्त सरल है, और यही बात है, कि प्रत्येक गृहस्थ को इसे सम्पन्न करना चाहिए, लक्ष्मी का विशेष स्वरूप गृहस्थ से ही जुड़ा रहता है, और गृहस्थ व्यक्ति ही अपने जीवन में इच्छाओं, कामनाओं के साथ बाधाओं, भय, यश-अपयश, सौभाग्य-दुर्भाग्य से जुड़ा होता है, इस कारण गृहस्थ तथा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले व्यक्ति के लिये यह साधना आवश्यक है।
अपने सामने एक बाजोट पर पीला सुन्दर रेशमी वस्त्र बिछाकर उसके बीचों-बीच चावल की ढेरी बनाकर उस पर पुष्प रखें और फिर मंगल घट अर्थात् कलश स्थापित कर दें, साबुत कच्चे चावल से आधे भरे इस कलश पर नारियल स्थापित करें, अब पूजा स्थान में घी का दीपक जला दें, एक ओर सुगन्धित धूप जला दें, अब इस मंगल घट के सामने चावल की ढेरी बनाकर विशिष्ट मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ठत युक्त अक्षय लक्ष्मी शंख स्थापित करें, शंख के ऊपर चन्दन तथा केसर का टीका लगा कर पुष्प अर्पित करें, मौली चढ़ाये तथा मंगल घट के पास नैवेद्य अर्पित करें।
दाएं हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि- हे अक्षय लक्ष्मी! अपनी ग्यारह शक्तियों सहित यहां उपस्थित होकर मेरा पूजन सफल करें और अभिष्ट सिद्धि प्राप्त करने हेतु आपकी शरण में यह साधक आपको अपना पूजन समर्पित कर रहा है, ऐसा बोल कर जल छोड़ दें। कलश से नारियल हटा कर उसमें 11 सुपारी और एक पुष्प डालें, तथा नारियल पुनः स्थापित कर दें।
अक्षय लक्ष्मी के ग्यारह स्वरूपों का पूजन अक्षत, पुष्प, कुंकुम प्रत्येक मंत्र जप के साथ शंख पर अर्पित करें।
ऊँ श्रीं अनुरागाय अक्षय लक्ष्मी श्रीं नमः
ऊँ ह्रीं सर्वादाय अक्षय लक्ष्मी ह्रीं नमः
ऊँ श्रीं विजयाय अक्षय लक्ष्मी श्रीं नमः
ऊँ कमले वल्लभाय अक्षय लक्ष्मी कमले नमः
ऊँ कमलालयेमदाय अक्षय लक्ष्मी कमलालये नमः
ऊँ प्रसीद हर्षाय अक्षय लक्ष्मी प्रसीद नमः
ऊँ प्रसीद बलाय अक्षय लक्ष्मी प्रसीद नमः
ऊँ श्री तेजसे अक्षय लक्ष्मी श्रीं नमः
ऊँ ह्रीं वीर्याय अक्षय लक्ष्मी ह्रीं नमः
ऊँ श्रीं ऐश्वर्याय अक्षय लक्ष्मी श्रीं नमः
ऊँ महालक्ष्म्यै शक्तयै लक्ष्मी महालक्ष्म्यै नमः
इस प्रकार पूजन पूर्ण करने से अक्षय लक्ष्मी अपने सम्पूर्ण प्रभाव के साथ साधक को आशीर्वाद व अभय प्रदान करती है, साधक अपने दोनों हाथों में पुष्प लेकर अक्षय लक्ष्मी शंख पर अर्पित कर 11 माला अक्षय सिद्धि माला से जप करें।
अब एक थाली में स्वस्तिक कुंकुंम से बना कर उस पर दीपक रख कर पूर्ण मनोयोग से लक्ष्मी की आरती सम्पन्न करें तथा आरती के पश्चात् मानसिक रूप से गुरु ध्यान कर गुरु आशीर्वाद प्राप्त कर अपना स्थान छोड़ दें। यह पूजा साधना अत्यन्त ही प्रभावकारी एवं हर साधक के लिए उपयोगी ही है।
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