क्योंकि एक क्षण को तो हमारा मन ठहर नहीं पाता और एक क्षण को तो विचार से छुटकारा नहीं है। एक छोटे से विचार को भी अलग करना हो तो पराजय हाथ लगती है। तो कैसे होगा यह कि सारे विचार समाप्त हो जाएं! एक जरा-सी तंरग तो हटा नहीं पाते हैं, कैसे होगा कि चित्त बिलकुल ही निस्तंरग हो जाए! विचार से छुटकारा मुश्किल मालूम पड़ता है, निर्विचार कैसे घटित होगा! और अगर यही हो शर्त कि बिना निर्विचार हुए परमतत्व को नहीं जाना जा सकता, तो हमारे हृदय में निश्चित ही निराशा पैदा होगी। गहन निराशा पैदा होगी और लगेगा कि शायद यह बात समझ पाने की हमारे बस की तो नहीं है। हमसे यह नहीं हो सकेगा।
इसलिए समस्त ज्ञानियों ने जिन्होंने जाना है उसे, उन्होंने निरंतर यह कहते हुए कि वह नहीं पाया जा सकता किसी पर ध्यान करने से फिर भी ध्यान के लिए विषय बताए हैं। यह कहते हुए कि किसी विचार से उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, फिर भी विचार के माध्यम सुझाये हैं कि इन विचारों का उपयोग करने से निर्विचार तक जाने की सीढ़ी बन सकेगी। इसलिए समस्त धर्म अपनी गहनता में, गहराई में भलीभांति जानते हैं कि उस तक पहुंचना तो केवल शून्यचित्त व्यक्ति के लिए संभव होगा। लेकिन शून्य चित्तता और हमारी स्थिति के बीच में कुछ सीढि़यां बनानी जरूरी मालूम पड़ती हैं।
ध्यान के संबंध में कैवल्य उपनिषद में उल्लेखित होने के बाद इस सूत्र को लिया है। यह सूत्र बीच की सीढ़ी बनाता है। इसमें हम परमात्मा के किसी आकार को मानकर यात्रा शुरू करते हैं। यह आकार अंतिम नहीं है। इस आकार पर रूकना भी नहीं है, इस आकार पर पूर्णता भी नहीं है। पूर्णता तो वहीं होगी जहां सब आकार खो जाएंगे। लेकिन हम इतने आकारों से घिरे हैं कि मन को समझ में ही आना मुश्किल है कि निराकार में कैसे हो सकेंगे। इसलिए यह सूत्र बीच की एक कड़ी को निर्मित करता हैं।
वह कड़ी यह है कि बहुत आकारें छोड़ें, एक आकार को पकड़ें, ताकि एक आकार भी छोड़ा जा सके और निराकार में प्रवेश हो। इस एक आकार का ही इसमें चिंतन है। इस आकार के संबंध में कुछ शब्द हम समझ लेंगे, तो फिर यह सूत्र खयाल में आ जाएगा। जिसे उमासहाय, परमेश्वर, नीलकंठ और त्रिलोचन के नाम से पुकारा जाता है, जो समस्त चराचर का स्वामी और शांति स्वरूप है, जो समस्त भूतों का कारण और साक्षी हैं, जो अविद्या (तमस) से दूर है- उसी को मुनिजन ध्यान से प्राप्त करते हैं। कैसे बनाएं उसका आकार जिसका कोई आकार नहीं है? यह आकार बहुत तरह से बनाया जा सकता है। इस आकार को बनाते वक्त हमारे चित्त में, जो निराकार को समझने में समर्थ नहीं हो पाता है, कुछ ऐसी आकार की भूमिका दी जाए कि भूमिका इस चित्त के समझ में भी आ सके और फिर ऐसा न हो कि पकड़ जाए तो छुट न सके। एक आदमी सीढि़यों से चढ़ता है। सीढ़ी की खूबी यह है कि उस पर हम चढ़ें भी और उससे हम हट भी जाएं। सीढ़ी पर पैर रखते हैं छोड़ देने के लिए ही। आदमी एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर चढ़ता है तो हर सीढ़ी को पकडता है और हर सीढ़ी को छोड़ता हैं और अंत में सारी सीढि़यों को छोड़कर दूसरी मंजिल में प्रवेश करता है।
सीढ़ी पकड़नी पड़ती है, छोड़ने के लिए ही। अगर कोई ऐसा समझे कि सीढ़ी को ही पकड़ लेना है, तो पहली मंजिल भी खो जाएगी और दूसरी भी नहीं मिलेगी। बहुत बार ऐसा होता है, संसार से भी उनका पैर छुट जाता है और परमात्मा तक भी पैर नहीं पहुंच पाता है और उनकी स्थिति त्रिशंकु की हो जाती है। न वे यहां के होते हैं, न वे वहां के होते है। न घर के न घाट के होते हैं। और उसका एकमात्र कारण यही है कि सीढ़ी कोई मुकाम नहीं है। इससे तो बेहतर था पहली मंजिल पर ही रहते। वहां भी निवास हो सकता था। क्षणभंगुर ही सही, लेकिन फिर भी निवास था।
क्षणभंगुर को छोड़ दिया, शाश्वत में प्रवेश न हुआ और सिर्फ सीढ़ी को पकड़कर बैठ गये तो जीवन बड़ी ही दुविधा का हो जाता है। उससे तो कभी-कभी सांसारिक आदमी भी ज्यादा प्रसन्न और स्वस्थ मालूम पड़ता है। कम से कम कहीं उसका घर तो है। निश्चित ही जो परमात्मा के घर में प्रवेश कर जाते हैं उनके आनंद का हिसाब लगाना मुश्किल हैं सांसारिक के पास वैसा कुछ भी नहीं है। उसकी खुशी, उसका सुख आनंद के सामने ऐसे फीके पड़ जाते हैं जैसे सूरज के सामने छोटा-सा दीया फीका पड़ जाए। लेकिन जो बीच में अटक जाता है, दोनों सीढि़यों के दोनों मंजिलों के बीच की सीढ़ी को पकड़ कर अटक जाता है, उसकी दशा सांसारिक व्यक्ति से भी बुरी हो जाती है।
इसलिए मैं देखता हूं, मेरे पास न-मालूम कितने धार्मिक लोग आते हैं, उनकी पीड़ा देखकर मैं हैरान हो जाता हूं। धार्मिक आदमी को पीड़ा तो होनी ही नहीं चाहिए। उनकी पीड़ा भी समझने जैसी है। उनकी पीड़ा यही होती है कि बुरे लोग दुनिया में मजा कर रहे हैं और भले लोग पीड़ा में बड़ी मुसीबत में हैं। भला आदमी कभी मुसीबत में होता नहीं। और हो, तो जानना चाहिए भला नहीं होगा। क्योंकि भले आदमी का अर्थ ही यह होता है कि जिसने मुसीबतों को भी सुखद पहलू से देखना शुरू कर दिया।
भला आदमी और शिकायत में कोई मेल नहीं है। लेकिन अगर भला आदमी भी शिकायत करता है तो उसका कुल कारण इतना है, वह वही सब चाहता है जो बुरे आदमी को मिल रहा है, लेकिन बुरा करने की हिम्मत भी उसकी नहीं है। एक चोर ने बड़ा मकान बना लिया है, वह भी मकान बनाना चाहता है और चोरी भी नहीं करना चाहता। तो वह चाहता है कि मैंने चोरी नहीं की, तो इससे बड़ा मकान मुझे मिलना चाहिए। क्योंकि मैंने चोरी नहीं की, इसलिए मकान मुझे मिलना चाहिये और चोरी न करने का कारण यह नहीं है कि धन पर उसका मोह नहीं है। क्योंकि धन और मोह न होता तो इस बड़े मकान को देखकर ईर्ष्या भी नहीं जन्मती। धन पर उसका मोह पूरा है। लेकिन सौ में से निन्यानबे भले आदमी सिर्फ भय के कारण भले होते हैं। चोरी की हिम्मत नहीं है। चोरी का साहस नहीं है और नपुंसकता से कहीं कोई दुनिया में भलापन पैदा नहीं होता।
तो यह आदमी भीतर से चोर की सारी आकांक्षाओं से भरा है, सिर्फ इसमें चोर जैसे हिम्मत की कमी है। इसलिए जब चोर मकान बना लेता है तब इसे भारी पीड़ा और ईर्ष्या होती है। और तब यह कहता है कि भले आदमी बड़ा दुख उठा रहें हैं और बुरे आदमी बड़ा मजा ले रहें हैं। यह जो आदमी है, यह त्रिशंकु है। यह सीढ़ी पर अटका हुआ है। यह छलांग भी नहीं लगा पाया परम रहस्य में और वहां से भी हट गया है जहां से इसका मन अभी हटा नहीं था।
इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं कि सीढ़ी को पकड़ते ही वे हैं जिनसे नीचे की मंजिल वस्तुतः नहीं छूटी होती है। अगर वस्तुतः नीचे की मंजिल छुट जाए तो जो नीचे की मंजिल छोड़ सकता है, वह सीढ़ी पकड़ेगा? जो आदमी नीचे की मंजिल छोड़ सकता है, वह सीढ़ी को पकड़ने का कारण उसे नहीं रह जाता। नीचे की मंजिल छोड़ तो देता है आदमी, उस छोड़ने के पीछे भी, जैसा मैंने कहा तथाकथित भले आदमी के पीछे भय कारण होता है, ऐसे ही तथाकथित त्यागियों के पीछे लोभ कारण होता है। वे संसार छोड़ देते हैं, किसी लोभ के वश में।
यह हमें थोड़ा जानकार हैरानी होगी कि संसार को त्याग करने वाले सौ में से निन्यानवे लोग लोभ के कारण ही त्याग करते हैं। शास्त्रों में पढ़ लेते हैं, गुरूओं से सुन लेते हैं और उनके लोभ की घनी मात्रा जग जाती है। और उन्हें लगता है कि संसार में क्या रखा है, इसको छोड़ दो। तो जहां, जहां मिल सकता हो असली सुख, उसको ही पाने के लिए इसको छोड़ दो। इस संसार का छोड़ना उनके लिए एक सौदा है। तो मन से तो नहीं छूट पाता, सीढ़ी पर तो पहुंच जाते हैं, फिर सीढ़ी को नहीं छोड़ पाते हैं, क्योंकि भय लगने लगता है। भय यह लगने लगता है कि कहीं सीढ़ी भी छुट गयी-संसार भी छुट गया और वह जो परम रहस्य हैं वह मिला, न मिला। और ध्यान रहे, वह परम रहस्य जब तक मिल न जाए, तब तक उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं होता कि वह मिलेगा भी कि नहीं मिलेगा। यह भी पता नहीं होता। यह भी पक्का नहीं होता। उसका मिल जाना सुनिश्चित है, यह मिलकर ही पता चलता है।
इसीलिए तो श्रद्धा पर इतना जोर है। श्रद्धा का मतलब यह है कि जो अनिश्चय में कूदने को तैयार है। ‘इनसिक्योरिटी’ में, असुरक्षा में कूदने को तैयार है। जो कहते हैं, ठीक है, मिलेगा तो ही कूदेंगे। जिस आदमी ने ऐसा कहा कि मिलेगा तो ही कूदेंगे, वह कभी कूदेगा ही नहीं। क्योंकि मिलने का कोई पता मिलने के पहले कैसे चल सकता है?
आज ही मुझे एक पत्र मिला है एक साधक का। उसने मुझे लिखा है- शांति नहीं है, आनंद नहीं है, जीवन में कोई अर्थ नहीं है। कहीं कोई परमात्मा है, ऐसी श्रद्धा भी नहीं आती। कहीं कोई शांति हो सकती है, कहीं कोई आनंद हो सकता है, ऐसी आस्था भी नहीं बनती। फिर भी आपसे चाहता हूं कि मुझे मार्ग दिखाएं। इस तरह के बहुत व्यक्तियों से मैं परिचित हूं। क्योंकि इनको अगर मार्ग भी दिखाया जाए तो उस पर भी आस्था नहीं आती, उस पर भी श्रद्धा नहीं आती, उसमें भी कोई अर्थ दिखायी नहीं पड़ता। क्योंकि सवाल मार्ग का नहीं है। मार्ग तो बहुत है लेकिन सवाल तो उस आंख का है, उस भरोसे का है। क्योंकि मार्ग दिखायी नहीं पड़ता है। मंजिल तो कभी दिखायी नहीं पड़ती है। मंजिल तो उसे दिखायी पडे़गी जो मार्ग पर चलेगा। इन सबको आकांक्षा यह है कि मार्ग पर चलने के पहले मंजिल दिखायी पड़ जाए, भरोसा आ जाए कि है। यह असंभव है। और इसी असंभावना के कारण श्रद्धा का इतना मूल्य है।
श्रद्धा का अर्थ है कि रास्ता दिखायी पड़ता है, मंजिल दिखायी नहीं पड़ती, लेकिन मैं चलता हूं। मैं चलता हूं। और ध्यान रहें, चलने से ही मंजिल निर्मित होती है और दिखायी पड़ती है। अगर श्रद्धा सघन हो तो शायद चलने की भी जरूरत नहीं है। श्रद्धा सघन हो तो मंजिल सामने ही प्रगट हो जाती है। श्रद्धा की सघनता पर निर्भर है। श्रद्धा विरल हो तो रास्ता बहुत लंबा हो जाता है। श्रद्धा बिलकुल न हो तो रास्ता अंतहीन हो जाता है। अश्रद्धा हो, रास्ता ‘सर्कुलर’ हो जाता है, गोल घुमने लगता है। फिर उसमें घुमते रहो और कहीं भी पहुंचाता हुआ मालूम नहीं पड़ता।
यहं एक खयाल ले लें। कोई आदमी माउंट आबू की तरफ चले, उसमें श्रद्धा बिलकुल न हो, तो भी माउंट आबू पहूंच जाएगा। श्रद्धा बिलकुल न हो, बल्कि विधायक रूप से अश्रद्धा हो, वह यह भी कहे कि मैं किसी माउंट आबू को नहीं मानता, फिर भी अगर वह रास्ते पर चले तो माउंट आबू पहुंच जाएगा। होश में न आया हो, बेहोशी में उठाकर लाया गया हो, तो भी पहुंच जाएगा। क्योंकि माउंट आबू वाले पर निर्भर नहीं हैं। लेकिन जिस यात्रा की हम चर्चा कर रहे हैं, वह सारी की सारी मंजिल पहुंचने वाले पर निर्भर है। वह बाहर अगर मंजिल होती तो श्रद्धा की कोई जरूरत न थी, वह मंजिल भीतर है।
अगर हम ठीक समझें तो ऐसा है कि जिस दिन हम मंजिल पर पहुंचेंगे तो हम स्वयं पर ही पहुंचेंगे, और कहीं पहुंचने वाले नहीं हैं। और वह मंजिल हमारे भाव से निर्मित होती है। कितने ही रास्तों पर चलते रहें। मंजिल आंतरिक घटना है और वह मंजिल हमारे भाव से निर्मित होती है। जितना सघन होता है भाव, उतनी निर्मित होती है। उतनी निखरती है, उतनी प्रगट होती है। वह जो प्रगट होती है, उसे हम ऐसा समझें कि वह एक कली है। कली अभी फूल नहीं है, लेकिन फूल हो सकती है। लेकिन जरूरी नहीं कि फूल हो ही। कली भी रह सकती है। यह भी हो सकता है कि फूल हो जाए, यह भी हो सकता है कली रहकर ही गिर जाए। किस बात पर निर्भर करेगा कली का फूल होना? कली का फूल होना उस कली के नीचे अंतर में बहती हुई रसधार पर निर्भर करेगा। कितने बलपूर्वक उस पौधे में रस की धार बह रही है, इस पर निर्भर करेगा। वह रसधारा पर अगर वह रसधार क्षीण है, मुर्दा है, गतिमान नहीं है तो कली रह जाएगी और फूल नहीं बन पाएगी।
कली के भीतर फूल छिपा है, संभावना की तरह। वास्तविकता की तरह नहीं, संभावना की तरह। एक स्वप्न है अभी तो, लेकिन साकार हो सकता है। लेकिन कली की अपनी रसधार पर निर्भर करेगा। परमात्मा एक स्वप्न है मनुष्य की आत्मा में छिपा। अगर मनुष्य की आत्मा को हम कली समझें, तो परमात्मा फूल है। लेकिन आदमी की अपनी जीवन-रसधार पर ही निर्भर करेगा। उसी रसधार का नाम श्रद्धा है। कितने बलपूर्वक, कितने आग्रहपूर्वक, कितनी शक्ति से, कितनी अभीप्सा है भीतर? कितने जोर से पुकारा है हमने जीवन को? कितने जोर से हमने खींची है जीवन की प्राणवत्ता अपनी तरफ, कितने जोर से हम संलग्न हुए हैं, कितने जोर से हम समर्पित हुए हैं? कितना एकाग्र भाव से हमने चेष्टा की है? इस पर निर्भर करेगा कि कली फूल बने कि न बने।
तो जो आदमी कहता है श्रद्धा तो नहीं है, रास्ता बता दें, वह ऐसी कली है जो कह रही है- रसधार तो नहीं है लेकिन रास्ता बताएं कि फूल कैसे हो जाऊं? रास्ता बताया जा सकता है, लेकिन व्यर्थ होगा। क्योंकि रास्तें का सवाल उतना नहीं है, जितना चलने वाले की आंतरिक शक्ति का है। श्रद्धा का अर्थ इतना ही है कि मैंने इकठ्ठी की अपने प्राणों की सारी शक्ति, दांव पर लगा दी दांव कठिन है, क्योंकि कली को फूल का कुछ भी पता नहीं है। कली यह भी सोच सकती है कि यह दांव कहीं चूक न जाए। कहीं ऐसा न हो कि फूल भी न बन पाऊं और पास की संपदा थी, जो रसधार थी, वह भी चूक जाए। यह डर है, यह भय है। कली को सोचना पड़ेगा कि मैं दाव लगाऊं, कहीं ऐसा न हो कि जिस रसधार से मैं महीनों तक कली रह सकती थी वह रसधार भी चूक जाएं दांव में, फूल भी न बन पाएं और मेरी जिंदगी भी नष्ट हो जाए। यही भय आदमी को धार्मिक नहीं होने देता। डर लगा ही रहता है कि जो है, कहीं वह न छूट जाए। और जो नहीं है, वह मिले न मिले, क्या पता।!
इस अज्ञात में छलांग लगाने की हिम्मत ही श्रद्धा है! कली छलांग लगा लेती है। फूल बन जाती है और फूल बनकर मिटने का मजा ही और है। और कली रहकर गिर जाना बड़ा दुखदायी है। फूल बनकर मिटने का मजा और है। क्योंकि पूरा फूल अगर खिल गया हो, तो मिटना एक सुख है। मिटना एक आनंद है। क्योंकि अभी कुछ पूर्णता भी न हुई थी। अभी जो प्रगट होना था, वह प्रगट भी न हुआ था। अभी जो गीत उस कली को गाना था, वह गाया नहीं गया। अभी जो नृत्य उस कली को करना था, वह हो नहीं पाया। अभी चांद-तारों से बातें करनी थी और हवाओं के साथ खेलना था। और भी जीवन का जो सब कुछ छिपा था। वह सब छिपा ही रह गया।
भारतीय पुनर्जन्म की कल्पना में यह कली का ही पुनरार्वतन है। जो अधूरा मरेगा, वह बार बार पैदा होगा। अधूरा मरने का मतलब है कि वह जो आकांक्षा रह गयी पूरे होने की, वह पुनः जन्म लेगी। जब तक कि फूल न बन जाए कली, तब तक पुनर्जन्म होता रहेगा। आवगमन से मुक्ति का एक ही अर्थ है। वह अर्थ वैसा नहीं है जैसा कि मंदिरों में बैठें हुए लोग सोचते रहते हैं कि हे परमात्मा, आवागमन से छुटकरा दिलाओ। यह परमात्मा के हाथ का काम नहीं हैं। कली की प्रार्थना नहीं सुनी जा सकती। क्योंकि कली ने अभी पात्रता ही पैदा नहीं की वह प्रार्थना कर सकें। यह तो फूल की प्रार्थना है कि अब मैं पूरा हुआ हूं, अब मैं मिटना चाहता हूं। मिटना आखिरी आकांक्षा है और पूर्णता परिपक्वता पर उपलब्ध होती है। कोई बुद्ध कह सकता है कि ठीक, अब बात समाप्त हुई! अब मैं समाप्त होना चाहता हूं।
हमारा मन तो कहता है, किसी तरह बचे रहें, मिट न जाएं। यह कली का डर है। यह फूल की गरिमा है कि फूल कहे कि ठीक अब मैं मिटना चाहता हूं। यह मिटना चाहने का मतलब यह है कि जीवन का सारा अर्थ पूरा हुआ। अभिप्राय निष्पत्र हुआ। जिसके लिए जीवन था, वह घटना घट गयी। जान लिया, जी लिया, हो लिया। अब मिटना एक विश्राम है। अब उस परम में लीन हो जाना एक गहन विराम है। आनंदपूर्ण है। लेकिन कली का तो पुनर्जन्म होगा। क्योंकि कली अधूरी है। अधूरी है, यही भाव आपने अनेक लोगों को मरते हुए देखा होगा। कभी कोई एकाध आदमी मरता है जिसके मरते वक्त श्वास-श्वास न कह रही हो अधूरा हूं, कुछ भी पूरा नहीं हूआ, कुछ भी पूरा नहीं हुआ, सब अधूरा है। और मुझे उठाए ले रहे हो। तो सारे प्राण वापिस लौटने के लिए आतुर हैं। पूर्ण हुए बिना आवागमन से छूटकारा नहीं।
यह जो पूर्ण होना है, यह कली के छलांग लगाने के साहस पर निर्भर है। दुस्साहस कहना चाहिए। क्योंकि कली को फूल होने का कोई भी पता नहीं है। लेकिन सिर्फ एक गहरे में आकांक्षा पूरे होने की जरूरत है। इस भाव को अगर साधक संभाल पाए और तैयार हो जाए कूदने को। मतलब यह हुआ कि तैयारी है उसकी कि जो मैं हूं, मिट जाऊं लेकिन जो मुझे होना चाहिए वह होने के लिए मैं सब कुछ दांव लगाने को तैयार हूं, तो वह इसी क्षण भी पूर्ण हो सकता है। कली इस क्षण भी खिल सकती है। खिलने में कितनी देर लगेगी, यह उसकी रसधार पर ही निर्भर करेगा। रसधार अगर अभी पूर्ण शक्ति से बह जाए, तो पंखुडि़यां अभी खिल जाएंगी। इसी क्षण! पंखुडि़यां फिर यह न कहेंगी कि अभी तो जल्दी थी। कभी भी जल्दी नहीं है। काफी देर पहले ही हो चुकी है। बहुत-बहुत बार हम कली होकर मिल चुके और मिट चुके हैं। तो देर तो पहले ही काफी हो चुकी है। जल्दी बिलकुल नहीं है। कभी भी हो जाए तो यह काफी है। काफी समय के बाद हुई घटना है। लेकिन यह रसधार उपलब्ध होनी चाहिए। आध्यात्मिक जीवन में श्रद्धा का खिलना ही पूर्ण रसधार है।
इस श्रद्धा के आंतरिक भाव से छलांग में सीढ़ी पकड़ी जाएगी, अगर श्रद्धा की कमी होगी। तो किसी तरह हम संसार छोड़ देंगें, फिर सीढ़ी पर डरते हुए खड़े हो जायेगें। फिर सीढ़ी के पार तो अज्ञात है। उसमें उतरने में भय लगेगा। सीढ़ी ज्ञात मालूम पडे़गी। सीढ़ी इसलिए है कि ज्ञात और अज्ञात के बीच में एक मध्यबिंदु बन जाए, जिससे यात्रा सुगम हो जाए। लेकिन वही मध्यबिंदु जकड़न भी बन सकता है। यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उसका क्या उपयोग करते हैं। वह ‘जेपिंग बोर्ड’ भी हो सकता है। हम पर निर्भर करेगा। और हम वहीं अपना बिस्तर-बोरिया रखकर निवास भी बना सकते हैं। वह हम पर निर्भर करेगा।
यह जो सूत्र है, बीच ‘जंपिंग बोर्ड’ के लिए है। छलांग लगाने के लिए स्थलमात्र है। सूत्र में कहा हैं—- प्रतीक शब्द है जिसने इस उपनिषद को लिखा है वह शिव का भक्त है। शिव उसके लिए अनंत के प्रतीक हैं। ऐसे भी शिव बहुत अद्भुत प्रतीक हैं। मनुष्य ने बहुत प्रतीक खोजे हैं, लेकिन शिव जैसा अनुठा प्रतीक बहुत मुश्किल है। सारे जगत में परमात्मा के लिए जितने शब्द हमने खोजे हैं, उनमें शिव का कोई भी मुकाबला नहीं है। उसके कारण हैं। शिव का अर्थ है- शुभ। अच्छा लेकिन शिव के व्यक्तित्व में, जिसे हम बुरा कहें वह सब भी मौजूद है। शिव का अर्थ ही है शुभ, लेकिन शिव को हमने विध्वंस का देवता माना है। विनाश का उसी से अंत होगा जगत का। हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि जो शुभ है, शिव है, वह विध्वंस का देवता होगा। लेकिन बड़ी कीमती बात है।
हम कभी यह मान ही न पाए कि इस जगत का अंत अशुभ से हो। हमारे जीवन का अतं उस पूर्णता में हो जहां शुभ के सारे फूल खिल जाए। अंत जो हो, वह अंत ही न हो, पूर्णता भी हो। अंत जो हो वह सिर्फ मृत्यु ही न हो बल्कि महाजीवन का अंतिम शिखर भी हो।
और हमारी शुभ की जो धारणा है, वह भी बड़ी अद्भुत है। दुनिया में जहां भी शुभ की धारणा की गयी है, वह अशुभ के विपरीत है। इसलिए भारत को छोड़कर सारे जगत में सभी धर्मों ने, जो भारत के बाहर पैदा हुए, दो ईश्वर मानने की मजबूरी प्रगट की है। दो ईश्वर से मेरा मतलब है, एक को वे ईश्वर कहते हैं, एक को वे शैतान कहते हैं। बुराई का भी एक ईश्वर है। उसको अलग करना पड़ा है। भलाई का एक ईश्वर है, उसको अलग करना पड़ा है। और जब मैं कहता हूं कि दो ईश्वर, तो कई कारणों से कहता हूं।
अंग्रेजी में शब्द है डेविल। वह संस्कृत के देव शब्द से बना है, वह भी देवता है, बुराई का देवता है। बुराई का देवता अलग निर्मित करना पड़ा है। क्योंकि भारत के बाहर कोई भी मनीष की इतनी हिम्मत नहीं हो सकी कि बुराई और भलाई को एक ही व्यक्तित्व में निहित कर दें। यह बड़ा साहस का काम है, कि कोई देवता भी क्रोध कर सकता है, यह हम सोच ही नहीं सकते। लेकिन शिव क्रोध कर सकते हैं और साधारण क्रोध नहीं कि भस्म कर दें और हिन्दू मन कहता है कि शिव से दयालु कोई भी नहीं है, बहुत भोले हैं। जरा भी कोई मना ले, तो किसी भी बात के लिए राजी हो जाते हैं। ऐसा वरदान भी आदमी मांग सकता है कि खुद ही झंझट में पडें। तो यह आदमी अनूठा मालूम होता है।
बुराई और भलाई को हमने कभी भी दो विपरीत चीजें नहीं माना है। क्योंकि विपरीत मानकर ही जगत दो खंड में बंट जाता है और द्वैत शुरू हो जाता है। और फिर अगर विपरीत है भलाई और बुराई, तो फिर भलाई की जीत सुनिश्चत नहीं हैं बुराई भी जीत सकती है। अगर बुराई और भलाई के बीच संघर्ष है तो फिर भलाई की जीत सुनिश्चत नहीं है। फिर कौन तय करेगा कि अंत में ईश्वर ही जीतेगा और शैतान नहीं जीत पाएगा? जहां तक रोज का सवाल है शैतान जीतता हुआ दिखायी पड़ता है। क्या पक्का है कि अंततः भी शैतान नहीं जीतेगा? अगर दो शक्तियां हैं इस जगत में, तो आज तक का जो अनंत इतिहास है आदमी का, उसमें कोई भी ऐसा क्षण नहीं मालूम पड़ता जब बुराई न रही हो। बुराई और भलाई सदा ही संघर्षरत रही हैं।
तो अनंत इतिहास कहता है कि वे दोनों सदा ही लड़ती रही हैं। या तो मालूम पड़ता है कि वे समान शक्तिशाली है। इसलिए कोई अंतिम जीत तय नहीं हो पाती है। कभी कोई जीतता लगता है, कभी कोई जीतता लगता है। फिर भी अगर गौर से हम देखें तो निन्यानबे मौके पर बुराई जीतती लगती है। एक मौके पर भलाई जीतती लगती है। तो ऐसा डर लगता है कि कहीं बुराई ज्यादा मजबूत तो नहीं है। जैसे ही हम बुराई और भलाई को बांट दें, खतरा शुरू हो जाता है। और इसमें फिर कोई अंत नहीं हो सकता कि कौन जीतेगा? और अगर यह निश्चित ही न हो कि अंततः शुभ जीतता है, जो शुभ की सारी चेष्टा व्यर्थ हो जाती है। लेकिन भारत और ढंग से सोचता है। भारत बुराई को भलाई के विपरीत नहीं मानता। भारत बुराई को भलाई में आत्मसात कर लेता है। इसे हम ऐसे समझें, भारत क्रोध को अनिवार्य रूप से बुरा नहीं कहता। भारत कहता है कि क्रोध अगर शुभ के लिए हो तो शुभ हो जाता है।
भारत कहता है कि शक्तियां सब तटस्थ हैं। विज्ञान अभी इस बात को अनुभव करता है कि शक्तियां सब तटस्थ हैं। शक्ति न शुभ होती है, न बुरी होती है। भारत कहता है क्रोध भी शक्ति है। एक ऊर्जा है, एक एनर्जी है। तो क्रोध भी शुभ हो सकता है, अगर शुभ की सेवा में हो। अशुभ हो सकता है, अगर अशुभ की सेवा में हो। लेकिन क्रोध अपने-आप में न शुभ है, न अशुभ है। मेरे हाथ में तलवार है, वह न शुभ है और न अशुभ है। मैं किसी की गर्दन काट कर लूट भी सकता हूं और लुटते की गर्दन कटते आदमी की रक्षा भी कर सकता हूं। तलवार अपने में तटस्थ है। भारत मानता है, सभी शक्तियां तटस्थ हैं। किसलिए उनका उपयोग होता है, इस पर सब कुछ निर्भर करेगा।
हम अशुभ को एक अलग देवता नहीं बनाते हैं, केवल शक्तियों का एक दुरूपयोग बताते हैं। शक्ति का दुरूपयोग किया जा सकता है। शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। और सदुपयोग अंत में जीतेगा। क्योंकि दुरूपयोग करने वाले को ही दुख मिलता है। इसलिए अंततः दुरूपयोग जीत नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज से मुझे ही दुख मिलता जाता है, मैं कब तक उसे कर सकता हूं? कितना ही करता रहूं अंततः मैं छूट ही जाऊंगा, क्योंकि दुख के साथ सम्बन्ध तय रखना असंभव है। जिस दिन मुझे पता चलेगा कि यह दुख मैं ही निर्मित कर रहा हूं, उसी दिन मैं सदुपयोग में बदल दूंगा अपनी शक्ति को। अशुभ और शुभ के विपरीत कोई शक्ति नहीं हैं। अशुभ और शुभ एक ही शक्ति के सदुपयोग और दुरूपयोग हैं और वह शक्ति परमात्मा की है।
तो शिव के व्यक्तित्व में हमने समस्त शक्तियों को स्थापित किया हैं। अमृत है उनका जीवन। मृत्युंजय हैं वह, लेकिन जहर उनके कंठ में है। इसलिए नीलकंठ हम उनको कहते हैं। उनके कंठ में जहर भरा हुआ है। जहर पी गये हैं। मृत्युंजय हैं, अमृत उनकी अवस्था है, मर वह सकते नहीं है, शाश्वत हैं और जहर पी गये हैं। शाश्वत जो है, वही जहर पी सकता है। जो मरणधर्मा है, वह जहर कैसे पियेगा? और यह जहर तो सिर्फ प्रतीक है। शिव की व्यक्तित्व में जिस-जिस चीज को हम जहरीली कहें, वे सब उनके कंठ में है।
कोई स्त्री उससे विवाह करने को राजी नहीं थी। कोई पिता राजी नहीं होता था। उमा के पिता भी बहुत परेशान हुये थे। पागल थी लड़की, ऐसे वर खोज लायी जो बेबुझ था! जिसके बाबत तय करना मुश्किल था कि वह क्या है? परिभाषा होनी कठिन थी। क्योंकि वह दोनों ही थें। बुरे से बुरे उसके भीतर था। भले से भला भीतर था। और जब बुरा भीतर होता है तो हमारी आंखें बुरे को देखती हैं, भले को नहीं देख पातीं। क्योंकि बुरे को हम खोजते रहते हैं। कहीं भी बुरा दिखायी पड़े तो हम तत्काल देखते हैं भले को तो हम बामुश्किल देखते हैं। भला बहुत ही हम पर हमला न करे, माने ही न किये ही चला जाए तब कहीं मजबूरी में हम कहते हैं- होगा। लेकिन बुरे की हमारी तलाश होती है। तो अगर लड़की के पिता को शिव में बुरा ही बुरा दिखायी पड़ा हो, तो कोई हैरानी की बात नहीं है। लेकिन भीतर जो श्रेष्ठतम शुद्धतम शुभत्व हैं, वह भी था। और दोनों साथ थे और दोनों इतने संतुलित थे कि वह जो व्यक्ति था, दोनों के पार हो गया था।
जब बुराई और भलाई पूर्ण संतुलन में होती हैं तो संत पैदा होता है। संत वही है जो निरन्तर शांत भाव से क्रियाशील रहता है। भले आदमी का नाम सज्जन है। बुरे आदमी का नाम दुर्जन है। भलाई और बुराई को, दोनों को जो इस ढंग से आत्मसात कर लें कि वे दोनों संतुलित हो जाएं। संत वही है जो भलाई -बुराई को अपने अंदर आत्मसात करे। यह शिव जो है, संतत्व की आखिरी धारणा है। उपनिषद का ऋषि शिव का भक्त है। शिव को प्रतीक माना है ध्यान का। उसने कहा है कि जिसे उमा का सहायक, जिसे उमा का प्रेमी, जिसे उमा का रक्षक, यही उमा भगवान की शक्ति है। इसी शक्ति से भगवान शिव महादेव बन पाये। अतः बिना शक्ति के प्रत्येक मनुष्य अपूर्ण है। हमने ऐसे शिव को परमेश्वर स्वरूप में नीलकंठ कहा है, जिसे हमने त्रिलोचन कहा है, वह ही शिव हैं और शिव शाश्वत हैं, आदि -अनन्त हैं। शिव अद्भुत हैं, शिव कल्याणकारी हैं, परोपकारी हैं। साथ ही शिव-शक्ति सम्पूर्ण सृष्टि की रचियता हैं।
परम पूज्य सद्गुरुदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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