दोनों में फर्क है। आप किसी को प्रेम करते हैं, तो प्रेम आपके लिये एक सम्बन्ध है, लेकिन आप प्रेमपूर्ण नहीं है। बुद्ध या महावीर अथवा सद्गुरु किसी को प्रेम नहीं करते, लेकिन प्रेमपूर्ण हैं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि सभी को उनका प्रेम बराबर मिलेगा। वे सभी को बराबर देते हैं, लेकिन जो जितना ले सकेगा, उतना ही पायेगा और जो उनके पास दुश्मन की तरह खड़ा हो जायेगा, वह वंचित रह जायेगा। जो उनके पास पूरा ”दय का पात्र खोल देगा, वह पूरा भर जायेगा। जिस व्यक्ति को भीतर के संगीत का स्वर सुनाई पड़ जायेगा, उसके जीवन से निराशा समाप्त हो जायेगी और आशा का मतलब आप यह मत समझना कि वह सोचेगा कि कल मुझे यह मिलने वाला है, परसों मुझे यह मिलने वाला है। नहीं, वह आशा तो वासना की आशा है। उसे तो साधक बहुत पीछे छोड़ आया।
आशा का अर्थ है कि अब जीवन में जहां भी वह देखेगा, उसे आशा का पहलू दिखाई पड़ेगा। अगर रात अंधेरी होगी, तो उसे दिखाई पड़ेगा कि सुबह बहुत करीब है। अगर आकाश में काले बादल घिरे होंगे, तो वह कहेगा कि आज की बिजली की चमक बड़ी शानदार होगी। जब कभी दुख आयेगा, तो वह कहेगा कि सुख की प्रतीक्षा करो, सुख जरूर करीब ही होगा। उसे कितना ही दुख दिया जाये, वह उसमें से सुख खोज लेगा और उसे कितना ही परेशान किया जाये, उस परेशानी में से वह शिक्षा निकाल लेगा। उसके जीवन में कुछ भी घटित हो उसे निराश न किया जा सकेगा। तो वह हर तरफ से आशा का बिंदु खोज लेगा। वह जो शुभ बिंदु है, वह हर जगह खोज लेगा।
सबको अलग-अलग मिलेगा, लेकिन महावीर की तरफ से बराबर दिया जा रहा है। दिया जा रहा है, यह कहना ठीक नहीं है। यह ऐसे ही है, जैसे कि दीया जलता है तो उससे प्रकाश गिरता है। आप उनके पास से निकलेंगे, अगर आंखे खुली होंगी, तो आपको दिखाई पड़ेगा। आंखें बंद होंगी तो नहीं दिखाई पड़ेगा। प्रकाश आपके लिये गिर भी नहीं रहा है। प्रकाश तो गिर रहा है। आप निकले, आपकी आंखें खुली हैं, तो उपलब्ध हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के जीवन में प्रेम एक अवस्था होगी। जो पाप-पथ को ग्रहण करता है, वह अपने अंतरंग में देखना अस्वीकार कर देता है, अपने कान, ”दय के संगीत के प्रति आंखें मूंद लेता है और अपनी आंखों को अपनी आत्मा के प्रकाश के प्रति अंधा कर लेता है। उसे अपनी वासनाओं में लिप्त रहना सरल जान पड़ता है, इसी से वह ऐसा करता है।
पाप-पथ का एक ही अर्थ है, कि तुम अपनी तरफ, अपने भीतर न जाकर, बाहर की तरफ, किसी और की तरफ जा रहे हो। पाप का एक ही अर्थ है कि तुम्हारी अंतर्यात्रा बंद हो रही है और बाहिर्यात्रा शुरू हो रही है। सभी बाहिर्यात्रा पाप है। उसका नाम चाहे धार्मिक भी दे दो, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन जब भी तुम अपने से दूर जा रहे हो, तब तुम पाप-पथ पर हो और जब तुम अपने करीब आ रहे हो, तो तुम पुण्य-पथ पर हो और जो व्यक्ति अपने से दूर जाना चाहता है, उसे अपने भीतर की आवाज के प्रति बहरा हो जाना जरूरी है। क्योंकि वह आवाज भीतर खीचेगी। जो अपने से दूर जाना चाहता है, उसे भीतर के प्रति अंधा हो जाना जरूरी है। क्योंकि वह भीतर का दृश्य, आंखों को भीतर बुलायेगा।
तो हम धीरे-धीरे भीतर की तरफ बिलकुल समाप्त हो जाते हैं, ताकि हम बाहर सुविधा से जा सकें, दूर जा सकें, कोई हमें रोके न। फिर जितने हम दूर चले जाते हैं, उतना ही कोलाहल, उतना ही उपद्रव हमारे चारो तरफ इकठ्ठा हो जाता है और फिर जब हम पीडि़त और परेशान होकर भीतर लौटना चाहते हैं, तो पहले हमें इसी बाजार से लौटना पड़ता है जो हमने ही निर्मित किया है। पर अगर कोई हिम्मत रखे, साहस रखे, तो इस भीड़ के पार जाया जाता है। क्योंकि यह भीड़ बहुत कमजोर है, वह भीतर का स्वर बहुत बलशाली है। बस एक बार सम्बन्ध स्थापित हो जाये, तो अनंत के ड्डोत के हम मालिक हो जाते हैं। परन्तु समस्त जीवन के नीचे एक वेगवती धारा बह रही है, जिसे रोका नहीं जा सकता। सचमुच गहरा पानी वहां मौजूद है, उसे ढूंढ़ निकालो। इतना जान लो कि तुम्हारे अंदर निःसंदेह वह वाणी मौजूद है। उसे वहां ढूंढ़ो और जब एक बार उसे सुन लोगे, तो अधिक सरलता से तुम उसे अपने आस-पास के लोगों में पहचान सकोगे।
काश, वह तुम्हें सुनाई पड़ जाये, तो फिर वह तुम्हें अपने आस-पास सभी में सुनाई पड़ने लगेगी। जितने गहरे तुम अपने भीतर जाओगे, उतने ही गहरे तुम दूसरों के भीतर भी देख सकोगे। जिस दिन तुम अपने केन्द्र को पहचान लोगे, उस दिन लोग भी तुम्हारे लिये, शरीर न होकर आत्मायें हो जायेंगे। क्योंकि उनका केन्द्र भी तुम्हारे लिये पारदर्शी हो जायेगा। एक बात याद रखनी चाहिये, आप अपने भीतर जितने गहरे होते हैं, उतने ही गहरे आप दूसरे के भीतर देख सकते हैं। अगर आप अपने भीतर बिलकुल नहीं हैं, उथले है, तो उतना ही उथला आप दूसरे के भीतर देख पाते हैं। इसलिये कई बार ऐसा हो जाता है कि आप बुद्ध, कृष्ण और सद्गुरु के करीब से भी गुजर जाते हैं और नहीं पहचान पाते हैं। क्योंकि आप जितना अपने भीतर देख सकते हैं, उतना ही उनके भीतर भी देख सकते हैं। आप उथले हैं तो आप उनकी गहराई में नहीं झांक सकते। आपको उथला ही खयाल आता है, आप उथली ही बातें इकठ्ठी कर लेते हैं और सोचते हैं कि आपने जान लिया, पहचान लिया।
और जब मैं यह कहता हूं कि आप बुद्ध के करीब से निकलते हैं, तो मैं ऐसे ही नहीं कह रहा हूं, आप निकले भी हैं। क्योंकि आप जमीन पर रहे ही होंगे। कोई न कोई बुद्ध, कोई न कोई क्राइस्ट, कोई न कोई महावीर, कोई न कोई राम, कोई न कोई कृष्ण आपके रास्ते पर पड़ा ही होगा। कितने जन्मों में कितने रास्तों से आप गुजरे हैं, लेकिन आप उनको पहचान नहीं पाये। आप पहचान लेते तो शायद आज आप होते भी नहीं या आप ऐसे न होते, जैसे दुख और पीड़ा से भरे आप हैं।
नहीं पहचानने का कारण यह है कि आप सदा अपनी ही गहराई के अनुपात में देख पाते हैं। जो आपको अपने भीतर नहीं दिखाई पड़ता, वह आपको किसी के भीतर दिखाई नहीं पड़ सकता। अगर आपको चारों तरफ बुरे लोग दिखाई पड़ते हैं, गलत लोग दिखाई पड़ते हैं, अंधकार दिखाई पड़ता है, तो एक बात निश्चित है कि आपने अपने भीतर प्रकाश नहीं देखा। एक बात निश्चित है कि आपने अपने भीतर दिव्यता नहीं देखी। एक बात निश्चित है कि भीतर का संगीत अभी सुनने में नहीं आया।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,