शास्त्रों में और भारतीय परम्परा में अज्ञान को समाप्त करने में गुरू का स्थान सर्वाधिक उच्चतम माना गया है, इसका कारण यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन को हर स्वरूप में साधना चाहते हैं, उनके लिए जीवंत जाग्रत स्वरूप में गुरू ही है जो उनका मार्ग-दर्शन कर सके।
देवी-देवता साधकों के लिए निश्चय ही सहायक होते हैं, परन्तु वे पूर्ण रूप से मार्गदर्शन देने में सक्षम नहीं हो पाते सही और प्रामाणिक रूप से दिशा-निर्देश देना और साधक की ज्ञान रूपी बूंद को पूरा समुद्र बना देना गुरू के द्वारा ही संभव है।
इसीलिए शास्त्रों में गुरू को जीवित देव या सम्पूर्ण व्यक्तित्व स्वीकार किया गया है जो देवता और मनुष्य के बीच की कड़ी हैं, वह गुरू ही ऐसे व्यक्तित्व होते है, जिनका देवताओं से भी पूरा-पूरा सम्बन्ध होता है, इसी से साधक अपने जीवन की दैहिक-दैविक-भौतिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठताओं को पूर्णता से आत्मसात कर पाता है। जिनके माध्यम से साधक अपने ईष्ट या देवता के दर्शन कर सके और यदि उनके दर्शन हो भी जाते हैं, तब भी शिष्य के पास वह आंख नहीं होती जिससे वह अपने इष्ट को पहचान सकें, वह जबान नहीं होती, जिसके द्वारा इष्ट की स्तुति या उसके गुणगान कर सके, जिससे इष्ट को अपने अन्दर पूरी तरह से समाहित कर सके। ऐसी स्थिति में केवल गुरू ही वह व्यक्तित्व होता है, जो देव शक्तियों व इष्ट से साक्षात्कार करता है। साथ ही वह साधक से भी परिचित होता है और वह साधक की उंगली पकड़ कर साधना के माध्यम से व चेतना प्रदान करता है जहां उसे इष्ट के साक्षात् दर्शन हो सकें व साधक पूर्णता के साथ उस इष्ट को अपने अन्दर समाहित कर पाता है।
गुरू तो वट वृक्ष की शीतल छाया के समान होता है जिसके तले बैठने से अपूर्व शान्ति और आनन्द की अनुभूति होती है, गुरूदेव तो एक बसन्त की तरह होते हैं, जिसे आत्मसात कर व्यक्ति सुगन्ध से भर जाता है, मन में एक नया जोश, एक नयी उमंग और आनन्द की अनुभूतियां होती है।
हमें अपने आप पर ही भरोसा नहीं है, क्योंकि हमारी दुनिया ही अविश्वास, संदेह और भ्रम पर आधारित है, हम स्वयं संशय ग्रस्त हैं, इसीलिए सामने वाले को भी पूरी तरह से पहचान नहीं पाते है, हम स्वयं अधूरे है, इसीलिए सामने वाले की पूर्णता का अहसास नहीं कर पाते, हम स्वयं अज्ञानी हैं इसीलिए गुरू के ज्ञान को, उसके चिन्तन को उनकी विराटता को अनुभव नहीं कर पाते, एक छोटी सी बूंद समुद्र को कैसे पहचान सकती है? एक छोटा सा पक्षी सम्पूर्ण आकाश को कैसे नाप सकता है?
परन्तु आपने स्वयं यह मान लिया है कि आप दूसरे को पहचान सकते हैं या गुरू को जानने की क्षमता आप में हैं, आप जैसे हैं, उसी तरीके से गुरू को भी जानते हैं, अपने संदेह से, अपनी क्षमता से, अपनी न्यूनता से ऊपर आप कभी उठे ही नहीं, और जब आप उठेगें नहीं तो उस विराट व्यक्तित्व को पहिचान भी कैसे सकेंगे? और फिर समाज तो आपके और गुरू के बीच में व्यवधान डालेगा ही, समाज तो आपके और गुरू के बीच बड़े-बड़े अवरोध खड़े करेगा ही।
पिछले पांच हजार वर्षो का इतिहास हमारे सामने खुला पडा़ है, कि जब-जब भी कोई महामानव अवतरित हुआ है तो हमने अपनी आंखें बन्द कर ली है, हमने उनको पहिचानने और लाभ उठाने स्थिति ही पैदा नहीं की, कृष्णा को गालियां दीं, अपमान किया, शंकराचार्य को दर-दर भटकना पड़ा, गोरखनाथ का राज्य से निष्कासन कर दिया, महावीर स्वामी के कानों में कीलें ठोक दी गई, बुद्ध को भूखे मरने के लिए विवश कर दिया गया, समाज ने तो यही किया और आज का समाज भी उसी पिछले समाज से निकला हुआ है,
यदि आप में चेतना है, यदि आप में समाज से हट कर खडे़ होने की हिम्मत हैं, तो आप गुरू को पहिचान कर अपने जीवन को उन्नत बना सकते हैं। उनके चरणों में बैठ कर ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और अपने जीवन में सभी दृष्टियों से पूर्णता प्राप्त कर सकते हैं।
और जीवन में सही अर्थ में पूर्ण होने का मार्ग गुरू पूर्णिमा है, अपने जीवन के स्वार्थ से परे हट कर पूर्ण रूप से गुरू के चरणों में समर्पित हो जाने का पर्व गुरू पूर्णिमा है। गुरू पूर्णिमा ऐसा अवसर है जब चित्त शक्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचती है उस समय शिष्य के भाव में, लय में, गति में एक सम्पूर्णता आ जाती है। यह गुरू पूर्णिमा ही है, जो सामान्य व्यक्तित्व को गुरू तक पहुंचाने का आधार, अवलम्ब है, यह गुरू पूर्णिमा ही है जब साधक और शिष्य अपने हजार काम छोड़ कर भी गुरू के चरणों में पहुंच जाता है।
गुरू पूर्णिमा का दिवस केवल गुरू पूजा का ही दिवस नहीं है, यह दिवस प्रत्येक शिष्य के लिए अपने गुरू के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति का पर्व है। भारतीय आध्यात्मिक परम्परा में गुरू से शिष्य का गुरू पूर्णिमा के अवसर पर मिलन एक संगम की भांति होता है। जहां हजारों शिष्य रूपी नदियां गुरू में आ कर विलीन होती है। गुरू पूर्णिमा दिवस पर साधक अपनी चेतना को गुरू का आधार लेकर व्यक्त करता है, इसीलिए यह दिवस प्रत्येक शिष्य के लिए परम हर्षमय महोत्सव है।
वास्तव में ही उसी को साधक या शिष्य कहा जा सकता है, जो घोर अन्धकार में भी आंख खोल कर देखने का प्रयत्न करता है, जो अपने हृदय के नेत्र जागृत कर सामने खडे़ सामान्य देह धारण किये हुए गुरू के शरीर में विराट सत्ता के दर्शन करता है और अनुभव करता है।
इस वर्ष गुरू पूर्णिमा 03-04-05 जुलाई को सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली महामाया की तपोभूमि कोरबा छ-ग- में संपन्न हो रही है और हमें इस अवसर पर अपनी पूर्ण क्षमता और सामर्थ्य के साथ गुरू के चरणों में उपस्थित होना ही है और अपनी सर्व स्वरूप में मलिनता, दुर्गन्ध, विषमता को गुरु चरणों में समर्पित कर अपने जीवन को सर्व कला युक्त पूर्णिमा के चन्द्रमा समान शीतलता, आनन्द, हर्ष, उल्लासमय स्थितियों की प्राप्ति पूर्णता के साथ इस चन्द्र ग्रहण युक्त गुरु पूर्णिमा पर अपने आपको सद्गुरु से आत्मसात कर सकें। सपरिवार आने से निश्चिन्त रूप से जीवन में सावनमय सुखमय स्थितियों का विस्तार होगा।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,