क्योंकि जैसे ही हम परमात्मा को पूर्ण कहते है, हमारे अहंकार को परमात्मा के साथ मिटाना मुश्किल हो जाता है। वह बढ़ता है। क्योंकि लगता है, परमात्मा को पाकर हम पूर्ण हो जायेंगे। लेकिन जब कहा जाता है, परमात्मा शून्य है, तो उसका अर्थ है कि परमात्मा को पाना हो, तो हमको मिटना पडे़गा और शून्य होना पडे़गा।
इसलिए साधक की दृष्टि से परमात्मा को शून्य कहना ही उचित है। दर्शन की दृष्टि से पूर्ण भी कहा जा सकता है, लेकिन साधक की दृष्टि से पूर्ण कहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि साधक बहुत नाजुक हालत में है। सवाल यही है कि अंहकार मिट जाए, तो वह परमात्मा को पा ले, जो पूर्ण है या शून्य है, जो भी है। लेकिन पूर्ण परमात्मा की कल्पना के साथ अपने को मिटाने का खयाल नहीं आता, बल्कि और अपने बडे़ हो जाने का खयाल आता है। ऐसा लगता है कि परमात्मा को पाकर हम और भी मजबूत, और भी विराट, और भी अमृत, और भी दुख के पार, पहुंच गये है। और हमारे अन्दर अहंकार आ जाता है। जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने परमेश्वर को या तो पूर्ण कहा है, या शून्य कहा है, ये दो ही उपाय हैं। परमात्मा से पूर्ण संबंध स्थापित करने के दो ही उपाय हैं या तो हम कहें वह पूर्ण है, या हम कहें वह शून्य है। उलटे मालूम पड़ते हैं। पूर्ण और शून्य से ज्यादा विरोधी और क्या होगा? इसलिए जो जानते नहीं, वे अगर पूर्ण को मानते हैं, तो शून्य का विरोध करते हैं। न जानने वाले यदि शून्य को मान लेते हैं परमात्मा का स्वरूप तो पूर्ण का विरोध करते हैं।
लेकिन शून्य या पूर्ण दो उपाय हैं उसके संबंध में कुछ कहने के। या तो कह दो कि वह सभी कुछ है, या कह दो कि वह कुछ भी नहीं है, सभी से खाली है। या तो इनकार कर दो उस सब का, जो हमें ज्ञात है और कह दो, यह भी वह भी नहीं। इस सबके बाद जो बचा रहता है, वही है। यह शून्य का मार्ग है। या कहो, यह भी वही है, वह भी वही है, सब कुछ वही है। यह पूर्ण का मार्ग है। यह व्यक्ति के उपर है कि वह किस मार्ग को समझेगा। गिलास आधा, भरा हो, तो कोई कह सकता है, आधा भरा कोई कह सकता है, आधा खाली। विपरीत वक्तव्य है दोनों। और जिन्होंने देखा हो गिलास, वे इस पर विवाद भी कर सकतें हैं कि हम आपस में विरोधी हैं। तुम कहते हो, आधा खाली, हम कहते है आधा भरा। अब निश्चित ही भरा और खाली विपरीत सत्य है। लेकिन जिन्होंने देखा है, वे कहेंगे, ये आधे भरे गिलास को कहने के दो ढंग हैं।
और जब हम परम सत्ता के संबंध में कुछ कहने चलते हैं, तो अति में ही बात करनी पडे़गी, एक्सट्रीम पर ही बात करनी पड़ेगी, सीमांत पर बात करनी पड़ेगी। या तो इनकार कर देना पड़ेगा उस सब का, जिसे हम जानते हैं, उसे जो संसार है, स्वप्नवत। कह देना पडे़गा कि यह वहां कुछ भी नहीं हैं।
बुद्ध से कोई पूछता था, कैसा है सत्य? तो बुद्ध कहते थे, जो भी तुम जानते हो, वैसा जरा भी नहीं है। जो भी तुम पहचानते हो, वह काम नहीं पडे़गा। जो भी तुमने सुना है, समझा है, अनुभव किया है, वह वहां काम नहीं आएगा। और जैसा सत्य है, उसको कहने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिस तरह भी हम उसे कहेंगे, उसमें तुम्हारे सुने हुए, समझे हुए शब्दों का ही उपयोग करना पडे़गा। इसलिए बुद्ध कहते थे, मुझे चुप रहने दो, मुझे मजबूर मत करो उसके संबंध में कुछ कहने को। और अगर कोई बहुत मजबूर ही करता, तो वे कहते, शून्य है। पहले तो वे इनकार करते वक्तव्य देने से कि मैं कुछ न कहुंगा, वह शून्य है।
लेकिन जब हम सुनते हैं, कोई कहे परमात्मा शून्य है, तो लगता है शायद वह कह रहा है, परमात्मा का क्या होगा? बुराई है, बीमारी है, मृत्यु है, दुख है, इसका क्या होगा? क्या यह भी परमात्मा है? जो कहता है, पूर्ण है परमात्मा, वह यह ही स्वीकार कर रहा है कि बुराई है, वह भी परमात्मा है। वह जो चाहे है, वह भी परमात्मा है।
इंसान को बड़ी कठिनाई पड़ी इस बात को समझने में। क्योंकि अगर चोर भी परमात्मा है और अगर राम भी रावण हैं, तो फिर आदमी क्या चुने? क्या बुरा है? इस जगत में कोई बुराई नहीं है। वास्तव में अच्छाई और बुराई साथ-साथ सृष्टि में गतिशील होती है उसी के परिणाम स्वरूप जीवन में स्थितियां बनती हैं परमात्मा सदैव शुभ श्रेष्ठ अच्छे कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते है अगर सभी परमात्मा है, तो फिर बुराई नहीं है। अकाल आता है, बाढ़ आती है, लोग मर जाते है, युद्ध होता है। सभी धर्मो में असुर व देव भाव साथ-साथ गतिशील होता है ।
यह हिम्मत बहुत अदभुत है। समझ के थोड़े पार भी है। क्योकि हमारा भी मन कहता है कि इसे इनकार करो। अच्छाई को परमात्मा से जोड़ दो, बुराई को अलग करों। लेकिन ऋषि कहते हैं, बुराई को फिर कहां रखोगे? फिर तुम्हें शैतान निर्मित करना पड़ेगा। बुराई को रखोगे कहां? बुराई भी परमात्मा है।
असल में अगर बुराई भी परमात्मा है, तो बुराई हो नहीं सकती अंततः वह सिर्फ हमारे देखने की भूल होगी। पूरी बात दिखाई न पड़ रही होगी। एक घटना घटती है, पैर में कांटा चुंभ जाता है, आप कहते हैं, यह तो सीधी बुराई है। दुख हो रहा है, पीड़ा हो रही है।
हसन नाम का सूफी फकीर एक रास्तें से गुजर रहा था। तो उस को पत्थर से चोट लग गई और पैर से खून बहने लगा, तो उसने हाथ जोड़कर आकाश की तरफ परमात्मा को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है। उसके शिष्य तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, यह कृपा है! तो अकृपा क्या होती है? पैर में पत्थर लग गया है, खून बह रहा है अगर यह कृपा है, तो हमें छुटृी दो। हम सब परमात्मा की कृपा को खोजने निकले हैं और तुम्हारे पीछे इसीलिए चल रहे हैं। अगर यह कृपा है! तो हम वापस लौट जाएं।
तो हसन ने कहा कि जो इसमें कृपा न देख पाएगा, उसे कृपा कभी भी न मिल सकेगी। और फिर मैं तुमसे कहता हूं कि आज मुझे फांसी होनी चाहिए थी, लेकिन उसकी कृपा है कि सिर्फ पैर में एक पत्थर लगकर मैं बच गया हूं। कर्म तो मेरे ऐसे थे कि आज फांसी निश्चित थी। नियति तो मेरी फांसी की थी, लेकिन उसकी कृपा है। और ऐसा मत सोचना कि हसन को फांसी लगती, तो हसन कहता कि तेरी बड़ी कृपा है। तो भी यही कहता। क्योंकि और बड़ी समस्याएं हो सकती थी।
ठीक उसी तरह परमात्मा कोई मन्दिर में विराजमान नहीं है, सही अर्थों में मन्दिर का अर्थ हमारा देह है और देह में ही परमात्मा विराजमान है और उसी परमात्मा की कृपा से यह देह क्रियाशील है और इसी देह में देव भाव भी है और असुर भाव भी। यह हमें प्रतीत नहीं होता और हम भागते चले जाते हैं। किसे खोजने निकले हैं, अनंत से तो खोज रहें हैं, मिला नहीं, जरुर कोई बुनियादी चूक हो रही है। जो भीतर है उसे बाहर खोजेंगे तो कैसे पायेंगे, क्योंकि परमात्मा रूपी मन्दिर ही हमारी देह है, यह देह परमात्मा के विपरीत नहीं है। हमारी देह को परमात्मा ने अपना आवास बनाया है। हमारे देह मन्दिर है, पूजा का स्थल है, काबा है, काशी है, जिसके भीतर यह बात बैठ जाती है, वही परमात्मा को पा सकता है। क्योंकि देह तो परमात्मा की भेंट है, पाप नहीं है। देह पुण्य है व पवित्रतम है, अतः देह का सम्मान करते हुये, उसे निरन्तर सुकर्म युक्त क्रियाशील बनायें।
मुल्ला नसरूद्दीन ने इकटृी चार शादियां कर ली थी। जिस जगह वह रहता था, उस जगह का कानून इसे फांसी के योग्य मानता था, अदालत में मुल्ला नसरूद्दीन को हाजिर होना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने कहा कि जुर्म तो तुमने बहुत भयंकर किया है। फांसी ही इसकी सजा है। लेकिन मुल्ला, हम तुम्हें फांसी नहीं देते। हम तुम्हें माफ करते हैं और यह दंड देते हैं कि चारों स्त्रियों के साथ जाकर रहो। मुल्ला ने कहा, यह फांसी से भी बदतर है। इससे तो तुम फांसी दे दो, बड़ी कृपा होगी।
फांसी से बदतर स्थितियां हो सकती हैं। अगर हसन को फांसी भी लगती, तो वह कहता, तेरी बड़ी कृपा है। नहीं सवाल यह नहीं है कि कौन सी बात हुई है। सवाल इस हृदय का है, जो हर जगह परमात्मा को देख लेता है। तो हमारा अंहकार कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि मैं ब्रह्म हूं। और इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करने वाले साधु-संन्यासी अति अहंकार से पीडि़त हो जाते हैं। अहंकार उनके रोए-रोएं पर लिख जाता है। उसका कारण है। वक्तव्य अगर परमात्मा के पूर्ण होने का स्वीकार किया जाए, तो उस पूर्ण के साथ स्वयं को जोड़ने में शून्य होना कठिन पडे़गा। इसलिए ऋषि कहता है- शून्य उसका स्वभाव हैं। और जब तक तुम शून्य न हो जाओ, तब तक उसे न पा सकोगे।
यद्यपि जो पा लेते हैं, वे उसे पूर्ण भी कह सकते हैं, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उनकी तरफ से अगर ध्यान रखना हो, तो शून्य कहना ही उचित है। क्योंकि परमात्मा को वही बताना उचित है, जो हमें बनना हो। परमात्मा का ऐसा कोई भी संकेत देना खतरनाक है, जो हमारे मिटने में बाधा बन जाए। मिट जाना है, खाली हो जाना है, तो ही हम उससे भर पाएंगें। तो जो हमें हो जाना है, परमात्मा को वही कहना उचित है।
इसलिए शून्य प्रेफरेबल है, चुनाव योग्य है। और ऋषि ने शून्य को ही चुना और कहा कि यह शून्य संकेत नहीं है, ऐसा मत मानना कि हम सिर्फ इशारा करते हैं शून्य से उस परमात्मा का, जो कि पूर्ण है। यह कहा कि वह शून्य ही है। असल में सारा अस्तित्व शून्य से पैदा होता है और शून्य में ही लीन होता है। एक बीज है वृक्ष का, तोडें और खोजें कि वृक्ष उसमें कहां छिपा है। कहीं भी नहीं मिलेगा। पीस डालें, कहीं वृक्ष न मिलेगा। फिर भी इसी बीज से वृक्ष पैदा होता है। यही बीज टूटकर जमीन में बिखर जाता है और अंकुरण निकलता है और वृक्ष बन जाता है। लेकिन बीज में खोजने से वृक्ष कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता।
सारा अस्तित्व शून्य से निकलता है और सारा अस्तित्व शून्य में लौट जाता हैं। जब एक वृक्ष गिरता है और नष्ट होता है, तो पत्ते जमीन में मिलकर फिर मिटृी हो जाते हैं। वे मिटृी से आए थे। रूपरेखा खो गई, बिल्ट-इन प्रोग्रैम था, वह समाप्त हो गया। सत्तर साल वृक्ष को रहना था, वह बात समाप्त हो गई। मिटृी अपनी मिटृी खींच लेती है, पानी अपना पानी वापस ले लेता है, आकाश अपना आकाश मांग लेता है, सूर्य अपनी किरणों को वापस उठा लेता है, लेकिन वृक्ष कहां गया? वह जो जीवन था, जिसने इस मिटृी को इकठ्ठा किया था और हवा को बांधा था और जिसने पानी खीचा था आकाश से और सूरज से किरणें ली थी, वह जो जीवन था,जिसने यह सब संग्रह किया था, यह सारा आर्गनाइजेशन किया था, वह जीवन कहां है? वह शून्य से आया था और शून्य में वापस लौट गया।
परमात्मा को शून्य कहने का कारण है। जो भी दिखाई पड़ता है, वह तो पदार्थ है। जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ है। इस सब दिखाई पड़ने वाले और पकड़ में आने वाले के अतिरिक्त कहीं कोई मूल स्त्रोत जीवन का चाहिए। उसे हम क्या कहें? उसे हम कोई भी नाम देंगे, तो वह पदार्थ जैसा मालूम पड़ेगा। शून्य भर एक शब्द है हमारे पास, जो पदार्थ जैसा मालूम नहीं पड़ता। इसलिए परमात्मा को शून्य कहा है। इसलिए उसे निराकार कहा है, सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। इसीलिए उसे निर्गुण कहा है, इसीलिए उसे सनातन कहा है- सदा एक जैसा रहने वाला-सिर्फ शून्य ही सदा एक जैसा रह सकता है। जैसे ही आकृति आती है, बदलाहट आ जाती है। जैसे ही गुण आते है, परिवर्तन आ जाता है। जैसे ही रूप आता है, जन्म और मृत्यु आ जाती है। सिर्फ शून्य ही अजन्मा, अमृत हो सकता है।
इसलिए ऋषि कहता है, शून्य संकेत नहीं है हमारा, शून्य सत्ता है। विराट जगत उसी से पैदा होता है और उसी में लीन हो जाता है। शून्य परमात्मा की सत्ता, उसका अस्तित्व, उसके होने का ढंग है। इसीलिए वह दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए परमात्मा का दर्शन, ठीक शब्द उपयोग करेंगे। तो इंद्रियों का होगा। परमात्मा की प्रतीति होती है, अनूभूति, एक्सपीरिंसिंग, दर्शन नहीं। कहते हैं, शब्द के लिए उपाय नहीं। परमात्मा शून्य है, इसीलिए तो मौजूद होकर भी मौजूद नहीं मालूम पड़ता। सब तरफ होकर भी अनुपस्थित हैं। जगह-जगह होकर भी कहीं भी नहीं मालूम पड़ता।
स्वामी राम तीर्थ निरंतर एक बात कहा करते थे। वे कहते थे, एक परम नास्तिक था। और उसने कहीं दीवार पर लिखा था- गॉड इज़ नोव्हेयर, ईश्वर कहीं नहीं है। उसका छोटा बच्चा पैदा हुआ, बड़ा हुआ, स्कूल पढ़ने जाने लगा। अभी नया-नया पढ़ रहा था, तो पूरे लंबे अक्षर नहीं पढ़ पाता था। नोव्हेयर काफी बड़ा है। वह बच्चा पढ़ रहा था दीवार पर लिखा हुआ गॉड इज़ नोव्हेयर, उसने पढ़ा, गॉड इज़ नाऊ हियर । तोड़कर पढ़ा। वह नोव्हेयर जो था, उसे तोड़ लिया। बडा़ लंबा शब्द था। उतना लंबा उसकी अभी सामर्थ्य के बाहर था। एक दफा खयाल में आए, तो फिर से भुलाना बहुत मुश्किल हो जाता है। नोव्हेयर, नाउ हियर भी हो सकता है। जो कहीं नहीं है, वह सब कहीं भी हो सकता है। जो कहीं नहीं है, वह यहीं और अभी भी हो सकता है। लेकिन उसकी उपस्थिति अनुपस्थ्तिी जैसी है। हिज़ प्रेजेंस इज़ जस्ट लाइक ऐब्सेंस।
मैने सुना है कि एक ईसाई नन, ईसाई साध्वी, बाइबिल में पढ़ते-पढ़ते इस खयाल पर पहुंच गई। बाइबिल में उसने पढ़ा कि ईश्वर सब जगह देखता है। वह बड़ी मुश्किल में पड़ी। उसे लगा कि वह बाथरूम में भी होता ही होगा। वह कपडे पहनकर स्नान करने लगी कि कहीं ईश्वर ना देख ले। और दूसरी साध्वियों को पता चला। तो उन्होंने कहा तू पागल है। बाथरूम में कपडे़ पहनकर स्नान करती है। वहां कोई भी नहीं है। उस साध्वी ने कहा कि नहीं, जब से मैने पढ़ा है बाइबिल में, उसमें लिखा है, सब जगह वह देख रहा है। तो इसलिए मैं कपडे़ पहनकर ही नहा लेती हूं।
लेकिन उस पागल को पता नहीं कि जो बाथरूम के भीतर देख सकता है, वह कपडे़ के भीतर भी देख सकता है। उसे इसमें क्या कठिनाई होगी? नथिंग इज़ इम्पासिबल फार हिम। अगर दीवार के भीतर ही घुस जाता है, तो कपड़े के भीतर भी तो घुस सकता है, दीवार के भीतर घुस सकता है कोई भी वस्तु उसकी बाधा नहीं बनेगी? और जो इतना सब कहीं है, क्या वह भीतर नहीं होगा? प्राणों में न होगा? लेकिन उसकी मौजूदगी बड़ी नान-वायलेंट है, बड़ी अहिंसात्मक है।
ध्यान रखें, मौजूदगी में हिंसा हो जाती है। बाप बैठा है, तो देखें, बेटे की चाल बदल जाती है। बाप कमरे में बैठा है, बेटा जब निकलता है, तो उसकी चाल बदल जाती है, क्योंकि बाप की मौजूदगी हिंसात्मक होगी, अगर परमात्मा इस तरह मौजूद हो, तो जीवन बड़ी मुश्किल में पड़ जाए। जीना मुश्किल ही हो जाए, उठना, बैठना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए संभव है कि उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। वह सिर्फ उन्हें ही दिखाई पड़ना शुरू होता है, जिन पर उसकी मौजूदगी की कोई हिंसा नहीं होती है। वह सिर्फ उन्हें ही अनुभव में आना शूरू होता है, जो इतने विकाररहित हो गए होते हैं कि अब कुछ भी कर सकते हैं और प्रकट हो सकते हैं। जिनके पास छिपाने को कुछ भी नहीं रह जाता। इसलिए ऋर्षि कहते है। यह संकेत नहीं, उसकी सत्ता है।
तभी तो वह सिद्ध योग संन्यासी का मठ है, वही उसका मंदिर है, वही उसका आवास। सिद्ध हुआ योग। बड़ी जागरूकता ऋषि के मन मे होंगी। सिर्फ इतना ही नहीं कहा कि योग उसका मंदिर है। क्योंकि योग सिर्फ बातों में हो सकता है, चर्चा में हो सकता है, सिद्धांत में हो सकता है। उस योग का कोई मतलब नहीं है। योग म्यूजियम में भी हो सकता है, यह मुझे आज पता चला। एक मित्र निमंत्रण दे गए हैं ब्रह्माकुमारियों का उसमें लिखा है कि राज-योग का म्यूजियम। मुझसे कह गए कि आप जरूर देखें। राज-योग का बिलकुल म्यूजियम बनाकर रखा है।
अभी योग इतना नहीं मर गया है कि म्यूजियम बनाना पड़ें। म्यूजियम तो मरी हुई चीजों के लिए बनाना पड़ता है। बर्ट्रेंड रसेल के ऊपर कोई व्यक्ति थीसिस लिखना चाहता था। तो बर्ट्रेंड रसेल ने कहा कि कम से कम मुझे मर तो जाने दो । अन्वेषण का काम तो मरने के बाद ही शूरू होना चाहिए, अभी तो मैं जिंदा हूं। और अभी तुम कैसे थीसिस लिखोगे? अभी जिंदा आदमी न मालूम और क्या-क्या करेगा। तुम्हारी थीसिस गड़बड़ हो सकती है। तुम थोड़ा वेट करों, थोड़ा ठहरो घबराओ मत, मै भी मरूंगा ही। फिर तुम थीसिस लिख लेना। लेकिन राज-योग के म्यूजियम का क्या मतलब हो सकता है? योग कोई म्यूजियम की बात है? लेकिन हो गई करीब-करीब।
इसलिए ऋषि नहीं कहता कि योग उसका मठ है। सिद्ध हुआ योग। जब वह अनुभूति बन जाए स्वयं की, तभी। वह पतंजलि के शास्त्र में लिखा है, उस शास्त्र को सिर पर लेकर ढोते रहें, तो कोई हल नहीं होता। उस शास्त्र को कंठस्थ कर लें, तो भी कुछ नहीं होता है। उस शास्त्र पर बड़ी व्याख्याएं कर डाले, तो भी कुछ नहीं होता। उस शास्त्र के बडे़ जानकार बन जाएं, वह सिद्ध हो योग। क्योंकि योग जो है, वह विचार नहीं है, अनुभव है।
लेकिन ऋषि शर्त लगाता है, सच्चा और सिद्ध हुआ- ट्राइड एंड एक्सपीरिएंस्ड। यह और कठिन शर्त है। इसका मतलब यह हुआ कि गलत योग भी सिद्ध हो सकता है। इसलिए ऋषि एक शर्त और लगाता है- इस जगत में कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जिसके गलत रूप न हो सके। सब चीजों के गलत रूप हो सकते है। और सही रूप भी होते है जो जानने में बड़ा कठिन होते है, इसलिए गलत रूप चुनना सदा आसान रहता है।
मुल्ला नसरूद्दीन की पत्नी का जन्म-दिन था। तो वह हीरे का हार लेकर आया। पत्नी तो पागल हो गई। लाखों का हार मालूम पड़ता था। उसने कहा, नसरूद्दीन तुम इतना मुझे प्रेम करते हो, यह मुझे कभी पता न था। नसरूद्दीन ने कहा कि बिना हीरे के कहीं प्रेम का पता चलता है? अब तो पक्का है, यह हार देख। पर पत्नी ने कहा, लाखों खर्च हो गए होंगे। नसरूद्दीन ने कहा, हो ही गए। तो पत्नी ने कहा, कि जब लाखों ही खर्च करने थें, तो बेहतर था एक राल्स रायस कार खरीद ली होती। नसरूद्दीन ने कहा इमीटेशन कर कहीं मिलती हैं, तो हम वही खरीद लाते। यह इमीटेशन हार है। यह लाखों का दिखता है, है नहीं। लेकिन कार तो मिलती नहीं कहीं।
जो भी चीज जगत में हो सकती है, उसका इमीटेशन हो सकता है। इमीटेशन सस्ता मिलता है, और आदमी सस्ते को खरीदने को बड़ा उत्सुक होता है। सरलता से मिल जाता है। सस्ते योग भी हैं, इसलिए ऋषि ने कहा, सत्य और सिद्ध हुआ। इमीटेशन योग क्या है, थोड़ी सी बात समझ लेनी चाहिए। सम्मोहन से संबंधित सब योग इमीटेशन योग होते हैं। जैसे कि उदाहरण के लिए ज्रर्मनी में एक बहुत योग्य सम्मोहन विद्या का पांरगत व्यक्ति था इमायल कुवे। इमायल कुवे सिर्फ लोगों की सम्मोहन से चिकित्सा करता था। एक आदमी बीमार है, सिर में दर्द है, तो कुवे कोई दवा नहीं देता था। वह सिर्फ उसे लिटाकर कहता कि तुम शिथिल पड़ जाओ और सोचो मन में कि दर्द नहीं है।
और वह दोहराता कि दर्द नहीं है। वह बाहर से कहता कि दर्द नहीं है, दर्द झूठा है, दर्द नहीं है। मरीज मन में सोचता कि दर्द नहीं है, दर्द नहीं है। अगर यह भाव गहरा प्रवेश कर जाए, तो दर्द मिट जाता है। मिट जाने के दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि निन्यानबे मौकों पर दर्द होता नहीं, सिर्फ खयाल होता है, तो खयाल से मिट जाता है। एक मौके पर दर्द हो भी, तो खयाल, विपरीत खयाल से छिप जाता है। इमायल कुवे को मुल्ला नसरूद्दीन जैसा आदमी नहीं मिला।
पर दूसरे सम्मोहन शास्त्री से मुल्ला नसरूद्दीन की मुलाकात हुई। नसरूद्दीन ने जाकर उससे कहा कि मैं बड़ी तकलीफ में पड़ा हुआ हूं। मुझे घर में बैठे-बैठे सर्दी पकड़ जाती है। भली धूप निकली है, सब ठीक है, अचानक सर्दी पकड़ जाती है। उस सम्मोहनविद ने कहा, कोई फिक्र नहीं। तुम घर में बैठे, आंख बंद किए सोचा करो कि सिर पर सूरज की तेज किरण पड़ रही है। सिर गरम हो रहा है, नसरूद्दीन ने कहा, ठीक है। सात दिन बाद नसरूद्दीन को बताया कि महाशय, आपने क्या कर दिया। उनको घर बैठे-बैठे लू लग गई है। लग ही जाएगी। वह सर्दी भी मन का खेल थी, यह लू भी मन का खेल। जो सर्दी लगा सकता है, वह लू भी लगा सकता है। इसमें कौन सी कठिनाई है। कला तो वही है, ट्रिक तो वही है। जब दर्द और कड़वी बोली दोनों सहन होने लगे तो समझ लेना कि जीना आ गया।
प्रतिभा ईश्वर से मिलती है अतः सदैव ईश्वर के प्रति नतमस्तक रहें। ख्याति समाज से मिलती है अतः समाज के प्रति आभारी रहें। मनोवृत्ति और घंमड स्वयं से मिलता है अतः इन वृत्तियों से सावधान रहें। अपने मन में सिर्फ भाव कर-करके कर सकता है, वे सच्चे योग नहीं है। सम्मोहन का भी उपयोग किया जा सकता है सच्चे योग के मार्ग पर, और किया जाता है, लेकिन बड़ा भिन्न है। आदमी में जो बीमारियां सम्मोहन से पैदा हुई हैं, उनको काट दिया जा सकता है, आदमी के भीतर जो रोग सम्मोहन से ही पैदा हुए हैं, वे सम्मोहन से जरूर काट देने चाहिए, लेकिन सम्मोहन से स्वास्थ्य नहीं पैदा करना चाहिए नहीं तो वह झूठा होगा।
ऋषि कहता है, उस सम्मोहन के झूठ से आपने आप को निकालना होगा, उस आत्मपद को जानना ही पड़ेगा, उस शून्य की क्रिया को समझना होगा, वह जो ब्रह्म है, वह जो चैतन्य है हमारे भीतर छिपा हुआ, आदि चैतन्य है, वह स्व-संवित् है। यह बहुत कीमती विचार है स्व-संवित, सेल्फ-कांशस। यहां हम बैठे है। बिजली बुझ जाए, तो मैं आपको देख रहा हूं। बिजली बुझ गई, तो में आपको नहीं देख सकूंगा। सूरज है, तो मुझे रास्ता दिखाई पड़ रहा है, सूरज ढल गया तो, मुझे रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि रास्ता स्व-प्रकाशित नहीं है। दूसरे से प्रकाशित है।
मुल्ला नसरूद्दीन अपने कमरे में बैठा है। अमावस की रात है। एक मित्र मिलने आया है। सांझ थी, सूरज ढल रहा था, तब आया था। तब सब चीजें दिखाई पड़ती थीं। फिर गपशप में काफी वक्त निकल गया। रात अंधेरी हो गई। तो मित्र ने मुल्ला नसरूद्दीन से कहा कि तुम्हारे बाएं हाथ की तरफ दीया रखा है, ऐसा मैंने सांझ को देखा था। उसे जला क्यों नहीं लेते? मुल्ला ने कहा, आर यू मैड! अंधेरे में पता कैसे चलेगा कि कौन सा मेरा बायां हाथ है और कौन सा दाहिना?
और अगर अंधेरे में पता चलता है कि कौन सा बायां है और कौन सा दायां, तो भीतर कोई शक्ति है जो स्व-संवेदित है, स्व-प्रकाशित है। कुछ पता न चले, इतना तो पता चलता है कि मैं हूं। अंधेरे में अपना तो पता चलता है, तो इसका मतलब यह हुआ कि अपने होने में जरूर केाई प्रकाश होगा, जो अंधेरे में भी दिखाई पड़ता हूं मैं अपने को, कोई चेतना होगी। इतना तो तय है कि मेरा होना किसी और चीज के आधार से मुझे पता नहीं चलता, मेरे ही आधार से पता चलता है।
लेकिन हम भीतर तो कभी जाकर देखते नहीं कि वहां एक स्व-संवित्, स्व-प्रकाशित, ज्योतिर्मय तत्व मौजूद है और कभी अगर देखें भी तो हम ऐसी उल्टी कोशिशें करते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं। जिसे हम बाहर से नहीं जान सकते हैं। जिसे हमें भीतर से ही जानना पडे़गा। जिसे हम भीतर से जान ही रहे है, न मालूम भूल गए हैं, विस्मरण हो गया है, याददाश्त खो गई है।
स्व-संवित् का अर्थ है कि हमारे भीतर वह जो आदि चेतना है, वह जो ओरिजनल कांशसनेस है, वह जो सदा से हमारे भीतर है, क्योंकि हम उस पर ही सवार हैं और उसी को खोज रहे हैं। तो खोजते रहें, ऋषि चिल्लाकर कहते है कि जरा ठहरों, किसे खोजने निकले हो? जरा रूको, जरा सुनो भी। क्योंकि तुम जिसे खोजने निकले हो, कहीं वह तुम्हारे भीतर तो नीं है, कहीं तुम वही तो नहीं हो, जिसको खोजने निकले हो।
स्व-संवित् जिसे जानने के लिए किसी और प्रकाश की जरूरत न पडे़गी, और जिसे पहचानने के लिए किसी से पूछना ना पडे़गा। जिसके होने में ही जिसकी पहचान छिपी है, जिसके होने में ही जिसका प्रकाश छिपा है, जो अपने से ही प्रकाशित है। दूसरे किसी प्रकाश की कोई भी जरूरत नहीं होती है।
अतः परमात्मा ही सम्पूर्ण है और वही पूर्ण सत्य का भाव है। अतः शून्यमय स्थिति को निर्मित कर ही पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि खालीपन अथवा शून्य भाव से ही पूर्णता की क्रिया संभव हो पाती है।
परम पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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