यहूदियों में कथा है कि छत्तीस छिपे हुये संत पृथ्वी पर घूमते रहते हैं। यद्यपि उन्हें किसी से सहायता नहीं मिलती ना ही वे किसी को जगा पाते है, कोई भी उनकी सुनता नहीं मगर वे अपने प्रेम से अपना काम जारी रखते हैं। तुम क्या सोचते हो, मैं तुमसे कह रहा हूं, तो इस भरोसे से कि तुम सुन ही लोगे! तुम सुनोगे, इसकी संभावना बहुत ही कम है। लेकिन मैं निराश नहीं हूं इससे। तुम सुनोगे या नहीं सुनोगे, यह तुम्हारे ऊपर है। मैं कहे चला जाऊंगा। मैं अपनी तरफ से तुम्हारी चिंता करता हूं, तुम नहीं सुनोगे, यह तुम्हारी जिम्मेवारी है।
हजारों-हजारों वर्षो से संत, महात्मा, ऋषि व देव इस सृष्टि में अवतरित हुये हैं और उन्होंने संसार के लोगों को चैतन्य स्वरूप में जगाने की क्रिया की है। ये सभी संत, महात्मा निरन्तर सद्ज्ञान के लिये सांसारिक व्यक्तियों को जगाते फिरते रहते हैं, लेकिन कोई उनकी सुनता नहीं। पहले तो लोग उन्हें पागल समझते हैं, हंसते हैं। फिर धीरे-धीरे उपेक्षा करने लगे। फिर तो उन्होंने हंसना भी बंद कर दिया। फिर तो कोई उसकी बात पर ध्यान ही न देते हैं। लोग बहरे हो गये। लेकिन वे अपनी क्रियायें निरंतर गतिशील रखते हैं।
परमात्मा बड़ी अड़चन में पड़ गया, क्योंकि वह रूके और गांव छोंडे़ तो वह गांव को जला दे। तो इस एक आदमी की वजह से, जो इतनी फिक्र करता है, जो इतनी चिंता करता है, जिसके मन में ऐसी करुणा है। लेकिन उसकी कोई नहीं सुनता है, तो भी वह लगाए जा रहा है अपनी रट—। एक दिन एक बच्चे ने उसे रोका, क्योंकि वह बच्चा उसे देखता था। कभी-कभी संतों और बच्चों के बीच संवाद हो जाता है। क्योंकि संत भी बच्चे हैं और बच्चे भी थोडे़ से संत हैं, इसलिए थोड़ा सा सूत्र मिल जाता है। एक बच्चे ने कहा कि सुनो जी! कितने दफे तुम चिल्लाते हो, कोई सुनता नहीं। बंद क्यों नहीं कर देते ?
तो उसने कहा, पहले मैं चिल्लाता था कि लोग बदल जाएंगे, सुन लेंगे, राजी हो जायेंगे और यह दुर्भाग्य जो आ रहा है, बच जाएगा। उस बच्चे ने कहा, ठीक है, पहले की छोड़ो अब किसलिये चिल्लाते हो? जब कोई नहीं सुन रहा है। उसने कहा अब इसलिए चिल्लाता हूं कि कहीं लोग मुझे न बदल दें। चिल्लाना तो जारी ही रखूंगा। ये लोग बडे़ कठिन मालूम पड़ते है। इनकों मैं तो न बदल पाया, लेकिन कहीं ये मुझे न बदल दें। यह जो प्रश्न है कि आक्रामक शिक्षा है, दीक्षा है, सारा समाज आक्रामक है। इसमें सरल-चित्त लोग, अनाक्रामक लोग, अहिंसक लोग, हृदय से भरे लोग-जिनको स्त्रैण-चित्त कहा जाता है, कहां ये खड़े हों? कहीं ऐसा तो न होगा कि ये लोग अपने जैसा ही करके छोडे़गे?
नहीं, ऐसा न होगा अगर तुम लोगों को जगाने की, उठाने की चेष्टा में संलग्न रहे। अगर तुम लोगों की आक्रमणशीलता को क्षीण करने के उपाय करते रहे, यह जानते हुए भी कि शायद कोई भी न बदलेगा निराश न हुए करूणा कभी निराश नहीं होती करूणा को कोई भी निराश नहीं कर पाया है। करूणा कभी हताश नहीं होती। करूणा ने हताशा जानी ही नहीं है। तो अगर तुम्हें लगता है कि लोग आक्रामक हैं, युद्ध खोर हैं, हिंसक है, तो बैठे मत रहो, चुप मत रहो, जो तुम से बन सके उनकी आक्रमणशीलता को क्षीण करने के लिए, करो यह जानते हुये कि शायद तुम कुछ भी न कर पाओगे। लेकिन तुमसे मैं कहता हूं कि उन्हें बदलने की कोशिश में एक बात कम से कम होगी, वे तुम्हें न बदल पाएंगे। और वह भी कुछ कम नहीं है। वह भी काफी है। इसलिए मुझसे जब कोई पूछता है मित्र कि हम क्या करें? आपकी बात हमारे हृदय को भर देती है। हम चाहते है कि जाकर लोगों को कहें, समझाएं। लेकिन फिर डर लगता है कि कोई सुनेगा नहीं।
सुनी कब किसकी है? बुद्ध की किसी ने सुनी? अगर सुन ही ली होती, तो दुनिया दूसरी होती, सुनाने को कोई बचता ही न। नहीं सुनी है किसी ने। तुम क्यों फिक्र करते हो कि लोग सुनेंगे या नहीं। कम से कम तुम तो सुनोगे अपने को ही बोलते हुए। उससे तुम्हारा बल बढ़ेगा। उससे कम से कम एक बात पक्की है कि लोग तुम्हें न बदल पायेंगे। वह भी कुछ कम नहीं है और गुरु अपनी निरंतर क्रियायें जारी रखता है। जिससे कि सांसारिक मनुष्यों में राक्षसी असुर वृत्तियां समाप्त हो सकें और सभी देवमय सुखमय स्थितियों से परिपूर्ण हो सकें। इसकी भी फिक्र मत करो कि लोग हंसेगे। लोग हंसेंगे ही, वे सदा से ही हंसते रहे हैं लोग अपना स्वभाव नहीं बदलते, तुम अपना क्यों बदलते हो?
तुम्हारे मन में भाव उठा है कि लोगों को कुछ देना है, दे दो, बांट दो। इसकी चिंता मत करो कि वे हंसेगे, फेंक देंगे। यह उनका काम है। यह तुम्हें विचार करने की जरूरत नहीं है। तुम अपने हृदय को उडे़ल दो, उससे तुम हलके हो जाओगे। जैसे कोई बादल आकाश में घिरता है, जल से भरा हुआ बरस जाता है। पहाड़ पर भी बरसता है, झील पर भी बरसता है। पहाड़ इनकार कर देता है। झील स्वीकार कर लेती है, भर लेती है अपनी आगोश में।
तुम इसकी चिंता मत करो कि दूसरों को वह प्रतीति हो पाएगी या नहीं। वह तुमने चिंता की, तो तुम डर जाओगे, सिकुड़ जाओगे और डरा हुआ, सिकुड़ा हुआ आदमी दूसरों के द्वारा बदला जा सकता है और ध्यान रखना अज्ञानी आक्रामक होते हैं। हिंसक अज्ञानी पहल करते हैं। शांत आदमी संकोच करता है, दो दफा सोचता है, कहना कि नहीं कहना। अशांत फिक्र ही नहीं करता वह एकदम हमला कर देता है तुम्हारे ऊपर। तुम्हारी दया, तुम्हारी करूणा, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा ध्यान तुम अगर बांटोगे, तो तुम्हारे चारों तरफ उनसे एक परकोटा बन जाएगा, वह तुम्हें बचाएगा।
उस फकीर ने ठीक ही कहा कि पहले मैं इस आशा में चिल्लाता था कि लोग बदल जाएंगें अब मैं इस आशा में चिल्लाए चला जाता हूं कि कहीं लोग मुझे न बदल लें। संसार में आदमी जीता है सिर्फ इसलिए कि कुछ लोग परमात्मा से जुडे़ रहते हैं, अन्यथा तुम्हारा जीवन बिलकुल सड़ जाए। कोई एक भी उस ड्डोत से जुड़ा रहता है, तो थोड़ी-सी जीवन की धारा आती-जाती है। तुम्हारे मरूस्थल में एक मरूद्यान बना रहता है। तुम्हारी तपती दुपहरी में कहीं कोई एक वृ़क्ष होता है, जिसके नीचे कभी तुम क्षण भर छाया ले लो, विश्राम कर लो।
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