शुभ मांगलिक अवसरों पर दीपक प्रज्जवलित करने का भाव-चिंतन यही रहता है कि हमारे जीवन में जो अन्धकारमय स्थितियां हैं, जिसके फलस्वरूप जीवन में दुःख, पीड़ा, धनहीनता स्वरूप मलिन स्थितियों की निवारण के लिये जीवन में प्रकाशमय वातावरण निर्मित हो, इस हेतु प्रार्थना स्वरूप में दीपक प्रज्ज्वलित किया जाता है।
जब हम किसी भी शुभ कार्य या साधना के समय दीपक प्रज्जवलित करते हुये देवी-देवता का ध्यान चिंतन करते हैं, वही देवी-देवता वही भगवान स्वंय ही उस दीपक की ज्योति में उपस्थित होकर अपने उपासक की सभी इच्छायें पूर्ण करते हैं।
अनादिकाल से ही हमारे हिन्दू धर्म में अग्निदेव की विशेष महत्ता रही है। वैदिक काल से हमारे ऋषियों ने वेदो की ऋचाओं में अग्नि की उपयोगिता एवं स्तुति का वर्णन किया है, अग्नि का ने केवल मानव व सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन से सम्बन्ध है, बल्कि वह हमारे शरीर के निर्माण में भी सहायक पांच तत्वों में सर्वश्रेष्ठ है।
जिसे हमें जठराग्नि के नाम से भी जानते है, जिसकी वजह से हम अपने भोजन को पचा पाते है, और आध्यात्मिक रूप से देखा जाये तो वही अग्नि तत्व हमारे कुण्डलिनी शक्ति का भी संचार करती है, जो हमारे नाभि में स्थित है, जिसे हम मणिपुर चक्र भी कहते है।
यही कारण है कि किसी भी पूजा में देवी-देवताओं के साथ-साथ दीप पूजन भी किया जाता है। अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में अखण्ड दीपक भी प्रज्ज्वलित किया जाता है, नवरात्रि में नौ दिन व रामायण पाठ में 24 घंटे, इसी प्रकार कई ऐसे भी मंदिर है, जहां वर्षो से अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलित है। मान्यता है कि जब तक दीपक रूप में ज्योति प्रज्ज्वलित रहती है तब तक भगवान को वही उपस्थित रहना पड़ता है। इसलिये जिन मंदिरों में वर्षो से दीपक प्रज्ज्वलित है, वहां की गई प्रार्थना पूर्ण होती ही है।
अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलित करने के पीछे धार्मिक अनुष्ठान को सफल बनाना तथा अपने आराध्य देव की कृपा प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य है। ऐसी मान्यता है कि अग्निदेव को साक्षी मानकर उनकी उपस्थिति में किये कार्य अवश्य सफल होते है, इसिलये शादी-विवाह में भी विवाह संस्कार सम्पन्न कर अग्नि की ही परिक्रमा की जाती है, जिससे गृहस्थ जीवन में आने वाली सभी परेशानियां उसी अग्नि में जलकर भस्म हो जायें।
इसलिए किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी शुभारंभ पर दीप प्रज्ज्वलित करना भी अपने आप में एक अनुष्ठान है, यह एक साधना की तरह ही है, जिसमें पूर्ण विश्वास, समर्पण आवश्यक है। श्रद्धालु पूजन उपवास के साथ ही पवित्र और सात्विक रहकर ही अनुष्ठान पूर्ण करते हैं।
अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलित करने के पहले उसका संकल्प लिया जाता है, जिस भी कार्य के पूर्ति के लिऐ कितने दिनों तक अखण्ड दीपक प्रज्ज्वलित रखना है, अतः अच्छी तरह सोच-समझकर ही संकल्प लेना चाहिए। एक बार दीपक जलाने के बाद उसे बुझाना नही चाहिए यह शुभ नहीं माना जाता अनिष्ट को आंमत्रित करना होता है, किन्तु यह सत्य भी नही यहीं आपको समझने की जरूरत अगर अखण्ड दीपक किसी कारण बुझ भी जाता है, तो इसक अर्थ है कि आपके ऊपर आने वाली बाधा की ओर दृष्टि गोचर करता है। लेकिन साधक, उपासक को सदा अखण्ड दीपक का ध्यान रखना अनिवार्य होता उसके प्रति लापरवाही नही होनी चाहिए।
दीप, दीपक, दीवा या दीया वह पात्र है जिसमें सूत की बाती और तेल या घी रख कर ज्योति प्रज्ज्वलित की जाती है, पारंपरिक दीया मिट्टी का होता है लेकिन धातु के दीये भी शुभ हैं। पूजा, आरती के समय सामान्य स्वरूप में भी दीपक प्रज्ज्वलित रखना चाहिये। पूजा सम्पन्न के बाद स्वतः ही दीपक की ज्योति अस्त हो जाये, तो श्रेष्ठ है।
ज्योति अग्नि और उजाले का प्रतीक दीपक कितना पुरातन है, इसका विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। गुफाओं में यह मनुष्य के साथ था। अंधेरी गुफाओं में भी दीपक की सुंदर चित्रकारी मिलती है। अर्थात् दीपक प्रज्ज्वलित करने का माहत्मय आदि काल चला आ रहा है।
इसीलिये नित्य प्रातः-सांय मंत्र जाप, साधना आरती करने से पूर्व दीपक अवश्य प्रज्ज्वलित करें, जिससे घर की अंधकारमय स्थितियां रोग-शोक, पीड़ा से निश्चिन्त रूप से निवृत्ति प्राप्त होती है। साथ ही उचित रहेगा कि अपने रसोई घर में व तुलसी पेड़ के पास भी एक दीपक अवश्य प्रज्ज्वलित करें, जिससे अन्न्पूर्णामय सुख- समृद्धि व जीवन हरा-भरा आनन्दमय बना रहता है। दीपक प्रज्ज्वलित करने से साधक को ज्योर्तिंमय स्थितियों की प्राप्ति होती है।
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