दोनों बातें हैं। सब का सब व्यर्थ भी गया और सब का सब काम भी आया। थोड़ा जागकर समझना, तो ही समझ पाओगे। थोड़ा अपने चैतन्य को झकझोर कर समझना, तो ही सही समझ पाओगे। ऐसा उत्तर नहीं है- कि कुछ भी काम नहीं आया। ऐसा भी नहीं है- कि सब काम आ गया। पहली बातः वह छह वर्ष जो उन्होंने मेहनत की, उससे कुछ भी नहीं मिला। क्योंकि मिलने का कोई संबंध मेहनत से नहीं है, बाहर है ही नहीं। तुम छह वर्ष दौड़ो, या साठ वर्ष दौड़ो- मिलेगा तो रूककर। इस बात को तुम अपने अंदर खूब गहराई से बैठा दो। मिलेगा तो रूककर। दौड़ना जब जाएगा, तब मिलेगा।
तुम छह वर्ष दौड़े कोई व्यक्ति बारह वर्ष दौड़ा, कोई साठ वर्ष दौड़ा-इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। छह वर्ष दौड़ने वाला जब रूका, तब उसे मिला। बारह वर्ष दौड़ने वाला जब रूका, तब उसे मिला। साठ वर्ष दौड़ने वाला जब रूका, तब उसे मिला अर्थात् अपने आपको सांसारिक बंधनों रूपी स्थितियों से मिटाने से ही सर्वश्रेष्ठता प्राप्त हो पाती है।
मंजिल दूर नहीं है कि चलने से मिल जाए। मंजिल तो अपने भीतर ही लिए हो, इसलिए चलने के कारण चूकते रहोगे। रूक जाओ, तो पा लोगे। इसलिए कहता हूं कि सब व्यर्थ गया। और फिर यह भी तुमसे कहना चाहता हूं- कि सब काम भी आ गया। क्योंकि बिना दौड़े कोई रूक नहीं सकता। जो खूब दौड़ लेता है, वही रूकता है। नहीं तो दौड़ने की खुजलाहट बनी रहती है! दौड़कर जो रूकता है। रूकना कुछ आसान बात नहीं है। तुम कहो चलो, हम रूक जाते हैं! तुमने कहां कि ठीक! छह वर्ष के बाद बुद्ध रूके।
हम अभी रूक जाते हैं। तुम्हें नही मिल जाएगा रूकने से। क्योंकि तुम्हारे रूकने में और बुद्ध के रूकने में एक बुनियादी फर्क रहेगा। बुद्ध जानकर रूके कि दौड़-दौड़कर नहीं मिलता। तुम बिना जाने होशियारी से रूक गए कि चलो, उसको बिना दौड़े मिला हम भी बैठ जाएंगे बगल में ही। हम भी खोज लें एक बोधि वृक्ष बहुत हैं। जहां-जहां बड़ के वृक्ष है-कहीं भी बैठ जाओ। बोधि वृक्ष के नीचे हम भी बैठ जाऐं। हम को भी मिल जाएगा। सुबह आंख खोलकर देखोगे कि अब आखिरी तारा डूब रहा है, अब तारा भीतर कब उगे? कुछ नहीं उगेगा। थोड़ी-बहुत देर बैठकर लगेगा कि अब नाश्ते का वक्त हुआ। अब आज का तो दिन ऐसे ही बीत गया। बुद्धत्व नहीं मिला। और भूख बहुत जोर से लगी है, और रातभर सो भी नहीं पाए। और बोधिवृक्ष समाधि वगैरह कहां। तुम खयाल रखना, बोधि वृक्ष के नीचे समाधि ही नहीं है। मच्छर है। रातभर सो भी न पाए। कहां की झंझट में पड़ गए। कम से कम मच्छरदानी तो ले आतें अपने घर शांति से तो सोते थे। और रातभर डर भी लगेगा कि कहीं कोई जंगली जानवर इत्यादि न आ जाए। कोई चोर-लुटेरा न आ जाए। और रातभर तुम कई बार आंख खोल-खोलकर देखोगे कि अभी तक बुद्धत्व नहीं मिला। कब मिलता है देखें?
शक भी होगा कई बार कि अरे पागल हुए हो ऐसे कहीं मिलता है? ऐसे बैठे-ठाले मिलता होता, तो सभी को मिल गया होता। बैठ-ठाले कहीं बुद्धत्व मिलता है? अरे उठा कुछ घर चलो अपने काम में लगो। ऐसे समय मत गंवाओं। मन में विचार आएंगे कि किसी फिल्म को ही देख लेते कि किसी संगीत की मंडली में ही चले गए होते। कुछ नहीं होता तो टी-वी ही देख लिए होते। यह रात ऐसी ही गयी। पछताओगे बहुत । तो दूसरी बात तुमसे कह दूं कि वह छह वर्ष के दौड़ने का परिणाम आया। छह वर्ष के दौड़ने से सत्य नहीं मिला लेकिन छह वर्ष के दौड़ने से बैठने की क्षमता मिली। इसलिये दोनों बातें मैं एक साथ कहना चाहता हूं। छह वर्ष बुद्ध न दौडे़ होते तो रूकने की कला न आती। दौड़ने वाला ही रूकना जानता है। दौड़नें की असफलता ही रूकने की पात्रता बनती है। और फिर छह वर्ष यह मत सोचना कि छह वर्ष का भी कोई संबंध है। कि चलो, छह वर्ष हम भी दौड़ें यह भी इस पर निर्भर करेगा कि तुम कितनी प्रगाढ़ता से दौड़ें कितनी परिपूर्णता से दौड़ें बुद्ध की तरह चाहिए, तो छह वर्ष में हो गया नहीं तो साठ वर्ष में भी नहीं होगा।
सांसारिक मनुष्य जीवन भर उक्त तरह की अनेक-अनेक क्रियाओं में धीरे-धीरे दौड़ें ऐसे लंगड़ाते-लंगड़ाते चलता रहता है, घड़ी देखते रहे कि अब ये छह वर्ष कब पूरे होते है। देखें। चलो, और थोड़ा चल लें। किसी तरह घसीटते रहे। तो इस घसीटने से छह वर्ष में काम पूरा नहीं होगा। छह जन्म भी लग जाएंगें तब भी जीवन की बोधित्व स्थिति प्राप्त नहीं हो पायेगी और इस तरह से अनेक-अनेक जन्म लेकर जीवन समाप्त करते रहते हैं।
जबकि सब दांव पर लगा दिया बुद्ध नें। धन लगा दिया, पद लगा दिया, प्रतिष्ठा लगा दी। सब लगा दिया दांव पर। देह-तन-मन, सब समर्पित कर दिया उसी खोज के लिए। कुछ बचाया नहीं कंजूसी नहीं की। दौड़ आधी-आधी नहीं थी, कुनकुनी नहीं थीं सौ डिग्री पर उबले, तो भाप बने अर्थात् जो निरन्तर ईश्वर प्राप्ति के लिये या साधना सिद्धि के लिये अपना सब कुछ देह-तन-मन समय चेतना समर्पित कर देता है, वही पूर्णता की प्राप्ति कर सकता है।
इसीलिये ज्ञानोपलब्धि से पहले बुद्ध ने छह वर्षों तक जो घोर तप किया तो कर्ता मर गया। उस अकर्ता भाव में ही क्रांति घटी, सूर्योदय हुआ। हमें भी अपने जीवन में सूर्योदयमय स्थितियां प्राप्त करनी है तो अपने कर्ताभाव को समाप्त करने के लिये साधना रूपी तप आवश्यक है। ग्रन्थों और पुस्तकों में पढ़कर साधना सिद्धि का भाव भी आता है, परन्तु यह भाव क्षणिक रहता है और फिर हम पूर्वा अवस्था में ही विचरित करने लगते हैं। क्योंकि हम परिस्थिति से दुखी होते हैं, परिस्थिति से सुखी होते हैं कारण होता है हमारे दुख का और कारण होता है हमारे सुख का जबकि सुख भी बाहर होता है और दुख भी बाहर होता है अकारण जो अवस्था वह भीतर होती है, इसीलिये आनन्द भीतर होता है।
पूरे समय हमारे भीतर ही यही सब चलता रहता है, कहने को तो हम अकेले हैं, परन्तु वास्तव में अकेले होते नहीं हैं, जबकि जीवन का भाव संन्यासी की तरह होना चाहिये, जिस तरह से संन्यासी कोई कल्पना नहीं करता, कोई योजना बनाकर नहीं चलता जो मिल जाये तो उसके लिये भी धन्यवाद और जो ना मिले उसके लिये भी उतना ही धन्यवाद। अर्थात् वह अपने से नहीं जीता परमात्मा पर छोड़ कर जीता है। परमात्मा जहां ले जाये, वहीं चला जाता है। ठीक वैसा ही भाव जीवन में सन्यस्तमय रहने से ही पूर्णत्व को प्राप्त हो पाते हैं।
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