वह कवि आगे बढ़ गया और थोड़ी दूर पर दूसरे मजदूर से उसने पूछा, वह मजदूर भी पत्थर तोड़ रहा था, उसने पूछा कि मेरे मित्र क्या कर रहे हो ? उस मजदूर ने अपनी उदास आंखें ऊपर उठाई, उस कवि को देखा और फिर कहा, बच्चों के लिए रोजी-रोटी कमा रहा हूं और उतनी ही उदासी से उसने फिर पत्थर तोड़ना शुरू कर दिया। जैसे जिंदगी में उसके कोई रस न हो, कोई आनंद न हो, कोई गीत न हो, जिंदगी में उसके कोई सौंदर्य न हो, कोई संगीत न हो, कोई सुख न हो। जीवन जैसे एक बोझ हो जिसे ढ़ोना है और समाप्त हो जाना है।
उसका पत्थर तोड़ना ऐसा था, जैसे एक बोझ को कोई खींचता हो असमर्थता में, बेबसी में, मजबूरी में, जिस बोझ से बचने का कोई उपाय न हो, ऐसे वह पत्थर तोड़ रहा था। वह कवि आगे बढ़ गया और उसने तीसरे मजदूर से पूछा वह भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन वह पत्थर भी तोड़ रहा था और गीत भी गा रहा था। उसकी आंखों में जैसे एक चमक थी, एक खुशी थी, उसके प्राणों में जैसे एक सुगंध थी। वह गीत गाते हुये प्रसन्न भाव से अपने आपको आनन्दित रखते हुये भीतर में ऐसा एहसास कर रहा था कि वह अपने आप में नृत्य मग्न हो, उस कवि ने उससे पूछा कि मेरे मित्र, क्या कर रहे हो? उसने हंसती हुई आंखें ऊपर उठाई और जैसे उसके शब्दों से फूल झर रहे हों, उसने कहा, भगवान का मंदिर बना रहा हूं।
वे तीन मजदूर, तीनों पत्थर तोड़ते थे। वे तीनों एक ही काम करते थे लेकिन उनके काम को करने का भाव भिन्न था। एक उदासी में, बोझ में, अर्थहीनता में। एक आनंद में, किसी मग्नता में, किसी समर्पण में। एक पत्थर तोड़ रहा था, एक रोटी-रोजी कमा रहा था, एक प्रभु का मंदिर बना रहा था। पत्थर तोड़ना आनंद का काम कैसे हो सकता है और रोटी-रोजी कमाने में नृत्य कहां से आएगा, संगीत कहां से आएगा, लेकिन प्रभु का मंदिर बनाना निश्चित ही आनंद हो सकता है। इसी तरह हमारे जीवन में भी, जीवन के मंदिर में भी तीन तरह के लोग होते हैं। जीवन के मंदिर को बनाने में भी तीन तरह के मजदूर होते हैं। अपने जीवन को उदासमय बोझ स्वरूप भी क्रियान्वित रख सकते हैं वरन् इसके विपरीत आनन्द भाव से भी जीवन के सभी कार्य श्रेष्ठता से सम्पन्न करते हुये जीवन में प्रसन्न रह सकते हैं।
हम किस भांति के मजदूर हैं? हम पत्थर तोड़ रहे है, रोटी-रोजी कमा रहे हैं या प्रभु का मंदिर बना रहे हैं और स्मरण रहे कि हम जीवन को जिस भांति देखना शुरू करते हैं जीवन वैसा ही हो जाता है। जीवन अपने आप में बिलकुल कोरी स्लेट अथवा कोरा कागज स्वरूप है। हमारी दृष्टि उस पर कुछ लिखना शुरू करती है और वही लिखा जाता है। हमारे प्राण उस पर थिरकते हैं और कुछ लिख जाते हैं, जैसे भाव से जीवन लिखने की क्रिया करते है उसी तरह हमारे जीवन में स्थितियां निर्मित होती हैं। जीवन लेकर हम पैदा नहीं होते, जीवन को हम रोज निर्मित करते हैं।
जीवन जन्म के साथ नही मिलता, मृत्यु के साथ उपलब्ध होता है। जीवन एक लंबी यात्रा है और इस लंबी यात्रा में रोज हम जैसा देखते हैं और जैसा निर्मित करते हैं, वैसा ही निर्मित होता चला जाता है। अतः जीवन यात्रा में निरन्तर शुभ भाव विचार अपने भीतर में निर्मित करते हुए उन शुभ विचारों को क्रियान्वित करने पर ही हमारा जीवन मंदिर में विराजित देव स्वरूप निर्मित हो जाता हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण स्वरूप में हजारों साल की शिक्षा ने मनुष्य को दुखी होना सिखा दिया हैं मनुष्य की दृष्टि को दुख से भर दिया है। आज तक पृथ्वी पर जीवन के आनंद को स्वीकार करने वाली शिक्षा पैदा नहीं हो सकी है। जीवन का विरोध करने वाली, जीवन का निषेध करने वाली, जीवन की निंदा करने वाली, जीवन छोड़ देने योग्य है यह समझाने वाली, जीवन के बाहर कहीं कोई मोक्ष है, वहां चले जाना है, जीवन से मुक्त हो जाना है।
ऐसा सिखाने वाली शिक्षा तो पृथ्वी पर रही। लेकिन जीवन को ही मोक्ष बना लेना, जो उपलब्ध है उसे ही आनंद में परिवर्तित कर लेना ऐसा विज्ञान, ऐसी शिक्षा उत्पन्न नहीं हो सकी। इसलिए मनुष्य की यह दुर्दशा हो गई है। इस दुर्दशा में अतीत में दी गई विषाद पूर्ण शिक्षा का हाथ है। जीवन दुःख पूर्ण है, इसलिए कि हम जीवन को आनंदपूर्ण बनाने की क्षमता और पात्रता उपलब्ध नहीं कर पाते। जीवन दुःख पूर्ण इसलिए नहीं है क्योंकि हम दुःख भरी आंखों से जीवन को देखने की कोशिश करते हैं। हमारी दृष्टि की दुःख भरी छाया सारे जीवन को अंधकारपूर्ण कर देती है। जीवन भर बाहर, बाहर और क्यों? क्योंकि हमने दुःख पाल रखा है, दृष्टि दुःख की पाल रखी है और यह सारी बात दृष्टि की है।
जीवन को दुःखवादी दृष्टि से देखने के भ्रम को छोड़ दें, खयाल छोड़ दें कि जीवन बुरा है। अगर बुरा हूं तो मैं बुरा हूं और अगर यह स्मरण आ जाए कि मैं बुरा हूं। तो बदलाहट की जा सकती है। जीवन को आप कैसे बदल सकते हैं? बिलकुल ही गलत! अगर जीवन बुरा है तो उसे बदलने का कोई तो उपाय होगा ही क्योंकि जीवन विराट है। एक ही रास्ता है, हमे अपनी सोच बदलनी होगी, अपनी दृष्टि बदलनी होगी, नहीं तो फिर मैं समाप्त हो जाऊंगा इसको आज नहीं बदला तो फिर इससे निराशा, हताशा पैदा होगी, इससे जीवन से भागने की क्रिया विस्तार होगा अथवा इससे जीवन को छोड़ने वाली परंपराएं पैदा होगी।
हम सब उस घेरे में खड़े हैं। इस घेरे को तोड़ दें और विद्रोह करें अज्ञान के प्रति, विद्रोह दुःखवादियों के प्रति, ताकि आनंद की क्षमता का सूत्र शुरू हो जाए, ताकि वह किरण फूट सके जो आनंद की है। अतः निरन्तर सुभाव से जीवन को क्रियान्वित करने से ही जीवन में सुक्रियायें हो सकेंगी।
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