मगर अपने व्यक्तित्व की कोई सीमा नहीं है। वह अनंत है, और उतना अनंत है कि हम एक स्थान से पूरी दुनिया को देख सकते हैं, और हम साधनाओं के द्वारा उन सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं जिसके द्वारा जान सकते हैं कि जगदम्बा क्या है, लक्ष्मी क्या है, सिद्धाश्रम क्या है और ऋषि-मुनि, योगी यति ये सब क्या हैं, जैसा कि गुरूदेव कहते हैं, अपने जीवन को बहुत ऊंचाई पर उठा देना है तो किस प्रकार से ऊंचा उठायें, क्या करें? सीढि़यों पर खडे़ होने से तो ऊंचा नहीं हो पायेगा। उसके लिये कुछ छोड़ना पड़ेगा अपने काम, क्रोध, अहंकार को छोड़ना पडे़गा। दस परसैंट छोड़ेंगे तो नब्बे परसैंट आप प्राप्त कर लेंगे, और छोड़ेंगे ही नहीं तो कुछ प्राप्त नहीं कर पायेंगे और उसके बाद जब लगेगा कि आपने हीरे ही गंवा दिये थे, केवल आप कोयले और कंकड़ पत्थर ही एकत्रित कर रहे थे तब आपको एहसास हो पाऐगा।
शरीर को भी हम बाहर से ही जानते हैं। जैसे कोई किसी महल के बाहर घूम ले, दीवालों का बाहरी रूप देख ले और समझे कि यही महल है, ऐसा ही हम अपने शरीर को भी बाहर से देखते हैं। बाहर से दिखाई जो पड़ता है, शरीर वही नहीं है। शरीर को भीतर से देखने पर तत्क्षण शरीर सें छुटकरा हो जाता है। बाहर से तो शरीर का जो रूप दिखायी पड़ता है, वह ढ़का हुआ, आवृत रूप है। भीतर से शरीर की वस्तुस्थिति दिखाई पड़ती है, जैसा शरीर है।
जिस संसार में हम उलझे हैं, जिस संसार में हम दुःख, पीड़ा और संताप से घिर गये हैं, उससे मुक्ति कैसे हो? क्योंकि बिना इसके स्वरूप को जाने इससे छूटने का कोई उपाय नहीं हो सकता। जिससे छूटना हो, उसे ठीक से जान ही लेना पड़ेगा। अज्ञान में ही बंधन निर्मित होते हैं। तो अगर खोलना हो बंधनों को तो ज्ञान से ही उनकी गांठ खुल सकती है। एक दिन बुद्ध सुबह-सुबह अपने भिक्षुओं के बीच आये, तो हाथ में एक रेशम का रूमाल था। सभी भिक्षु चकित हुये। क्योंकि कभी वे कुछ भी लेकर हाथ में भिक्षुओं के बीच बोलने नहीं आते थे। फिर बैठ गये सामने और उस रूमाल पर उन्होंने एक गांठ बांधी, दूसरी गांठ बाधी, पांच गांठे बांधी। और फिर पूछा कि यह रूमाल मैं लेकर आया था, तब इसमें कोई गांठ न थी, अब इसमें पांच गांठें हैं, मैं पूछता हूं तुमसे यह रूमाल बदल गया या वही है?
निश्चित ही कठिनाई हुयी होगी। क्योंकि यह कहना भी गलत है कि रूमाल बदल गया। क्योंकि रूमाल बिलकुल वही हैं। गांठ लगने से रूमाल के स्वभाव में रत्ती भर भी अंतर नहीं पडा़। जितना था, जैसा था, वैसा ही है रूमाल अब भी। लेकिन यह कहना भी उचित नहीं है कि रूमाल बिलकुल नही बदला क्योंकि तब रूमाल खुला था, अब गांठों से घिरा है। इतनी बदलाव जरूर हो गया है।
तो एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा, बड़ा कठिन सवाल पूछते हैं! रूमाल लगभग बदल गया है, और बदला नहीं भी है, अगर हम इसके स्वरूप को देखें तो बदल गया है, अगर हम इसके शरीर को देखें तो नहीं बदला है, अगर नहीं बदला है भीतर से, लेकिन बाहर से गांठ लग गई है और बदलाव हो गया है। आकार बदल गया है, आकृति बदल गई है। अगर इसके परम स्वभाव को हम समझें तो जो रूमाल खुला था, वह काम में आ सकता था। जिस रूमाल में पांच गांठें लग गयी हो वह काम में भी नहीं आ सकता। तो बुद्ध ने कहा एक और सवाल मुझे पूछना है, और वह यह कि मैं इस रूमाल को खोलना चाहता हूं तो क्या करूं? और ऐसा कह कर बुद्ध ने रूमाल के दोनों छोर पकड़ कर जोर से खीचना शुरू कर दिया। गांठें और छोटी हो गयी और बारीक होकर कस गयी।
एक भिक्षु ने चिल्ला कर कहा क्षमा करें जो आप कर रहे हैं, उससे तो रूमाल और बंध जायेगा और खोलना कठिन हो जायेगा। तो बुद्ध ने कहा, पहले जानना होगा कि गठान कैसे बंधी है। क्योंकि जब तक गांठ के स्वरूप को न समझा जा सके, तब तक उसे खोला नहीं जा सकता। तो पहले देखना होगा कि गांठ बंधी कैसे है। जो बांधने का ढंग है, उसके विपरीत ही खुलने का ढंग होता है, और जब तक हमें पता न हो कि बांधने का ढंग क्या है, तब तक ना कुछ करना बेहतर है बजाय कुछ करने के, क्योंकि करने से जाल और उलझ सकता है, गांठ और मुश्किल हो सकती है, सुलझाना और कठिन हो सकता है।
ठीक इसी प्रकार हमारी चेतना पर भी गांठें है, और स्थिति यही है कि हम बिलकुल बदले नहीं है, और बदल गया है, हमारा स्वभाव ठीक वैसा ही है जैसा परब्रह्म का, लेकिन हम पर कुछ गांठें हैं, और वे गांठें जब तक न खुल जायें, तब तक हम उस परम स्वाभाव का अनुभव नहीं कर सकते जो ग्रंथिरहित है। महावीर के लिये एक नाम दिया है जैनों ने बड़ा प्रीतिकर है, वह नाम है निर्ग्रंथ। बुद्ध तो तब भी महावीर के लिये कछ कहते हैं, तो हमेशा निगंठ नाथपुत्तः नाथ परिवार में पैदा हुआ वह लड़का, जो निर्ग्रंथ हो गया, जिसकी गांठें कट गयी जिसकी गांठें खुल गयी।
अपनी आत्मा में ही सब वस्तुओं का आभास केवल आरोपित है, उसको दूर करने से स्वयं ही पूर्ण अद्वैत और क्रिया-शून्य परब्रह्म बन जाता है। गांठ जब रूमाल पर लगती है तो बाहर से कहीं से आती नहीं। कभी आपने गांठ अकेली देखी है बिन रूमाल के बिना रस्सी के? शुद्ध गांठ आपने कभी देखी है? जब भी होगी किसी चीज पर होगी, अकेली तो बाहर से आयेगी कैसे। बाहर से आयी नहीं क्योंकि बाहर कभी गांठ पायी नहीं जाती। न बाहर से आयी है, न भीतर से आई है, रूमाल ने अपने पर आरोपित की है, रूमाल ने निर्मित की है। निर्मित का अर्थ यह है कि रूमाल के स्वभाव में नहीं थी, रूमाल ने अर्जित की है।
इसी तरह संसार जो है, हमारा अर्जन है, एचीवमेंट है। हमने बड़ी चेष्टा करके निर्मित किया है। हमने बड़े उपाय किये हैं, तब निर्मित किया है। गांठ होती नहीं कहीं अस्तित्व में, रूमाल ने बड़ी चेष्टा करके अपने ऊपर आरोपित की है। जैसे कि दर्पण के सामने चीजें आती हैं, दर्पण में दिखायी पड़ती हैं। अगर दर्पण एक भूल करने लगे जो हमने की है, तो दर्पण भी मुसीबत में पड़ जायेगा जिसमें हम पड़ गये हैं। लेकिन दर्पण वह भूल नहीं करता। आत्मा में कोई चीज प्रवेश नहीं करती है, मन में सब चीजें प्रवेश करती हैं, तो जब तक हम मन को हटाने की कला नहीं सीख लें कि संसार और आत्मा आमने-सामने आ जायें, बीच में मन का बांध न हो, बीच में यह मन का जगत न हो, यह मन का विस्तार न हो, तब तक हमें यह पता न हो, ध्यान रहे, शरीर तो आपका हर जन्म में मिट जाता है, लेकिन मन मिटता है, समाधि के बाद।
बहुत समय पहले की बात है एक महा ज्ञानी पंडि़त जी हिमालय की पहाडि़यों में रहते थे, लोगों के बीच रह कर वे थक चुके थे, और अब ईश्वर भक्ति करते हुये एक सादा जीवन व्यतीत करना चाहते थे, उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि लोग दुर्गम पहाडि़यों के सकरे रास्तों, नदी-झरनों को पार कर उनसे मिलने आ जाते थे, उनका मानना था कि यह विद्वान उनकी हर समस्या का समाधान कर सकता है। इस बार भी कुछ लोग ढूंढते हुये उसकी कुटिया तक आ पहुंचे, पंडि़त जी ने उन्हें इंतजार करने के लिय कहा, तीन दिन बीत गये, अब और भी कई लोग वहां पहुँच गये, जब लोगों के लिये जगह कम पड़ने लगी तब पंडि़त जी बोले, आज मैं आप सभी के प्रश्नों का उत्तर दूंगा, पर आपको वचन देना होगा कि यहाँ से जाने के बाद आप किसी और से इस स्थान के बारे में नहीं बतायेंगे, ताकि आज के बाद मैं एकांत में रह कर अपनी साधना कर सकूं, चलिये अपनी-अपनी समस्यायें बताइयें।
यह सुनते ही किसी ने अपनी परेशानी बतानी शुरू की, लेकिन वह अभी कुछ शब्द ही बोल पाया था कि बीच में किसी और ने अपनी बात कहनी शुरू कर दी, सभी जानते थे कि आज के बाद उन्हें कभी पंडि़त जी से बात करने का मौका नहीं मिलेगा, इसलिये वे सब जल्दी से जल्दी अपनी बात रखना चाहते थे, कुछ ही देर में वहां का दृश्य बाजार जैसा हो गया और अतः पंडित जी को चीख कर बोलना पड़ा कृपया शांत हो जाइये। अपनी-अपनी समस्या एक पर्चे पर लिखकर मुझे दीजिये।
सभी ने अपनी-अपनी समस्यायें लिखकर आगे बढ़ा दी, पंडि़त जी ने सारे पर्चे लिये और एक टोकरी में डाल कर मिला दिया और बोले, इस टोकरी को एक-दूसरे को पास कीजिये, हर व्यक्ति एक पर्ची उठायेगा और उसे पढे़गा, उसके बाद उसे निर्णय लेना होगा कि क्या वो अपनी समस्या को इस समस्या से बदलना चाहता है? हर व्यक्ति एक पर्ची उठाता उसे पढ़ता और सहम सा जाता, एक-एक कर के सभी ने पर्चियां देख ली पर कोई भी अपनी समस्या के बदले किसी से अपनी समस्या बदलने को तैयार नहीं होता। ठीक ऐसे ही हमारी समस्यायें हैं, जिन्हें हम स्वयं ही निर्मित करतें हैं, और कहते हैं कि गुरूदेव मेरी समस्या बहुत ज्यादा है। ज्यादा कुछ नहीं है, वैसे ही हमने अपने भीतर एक भय, डर बैठा लिया है, और आप मुझसे पूछें तो समस्या जीवन में होती ही नहीं, यहा वैसा एक शब्द है। मानसिक न्यूनता जैसी कोई चीज नहीं होती, अगर कमी है, तो हमारी साधना में कमी है, क्योंकि मैं आपको जो साधना, ज्ञान दे रहा हूं उसे आप अपने भीतर उतारने की क्रिया ही नहीं कर रहे।
आप साधनाओं में प्रयत्न नहीं कर पा रहे हैं। पूर्ण मनोयोग से उनमें जुट नहीं पा रहे हैं। पूरी तरह से जुटने की जरूरत है, टुकड़े-टुकड़े हो जीवंत होना और सांस लेना, वह कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जीवन वह कहलाता है जहां वक्षस्थल आपका पूर्ण पौरूषवान हो, शरीर ताकतवान और क्षमतावान हो और आप सब कुछ बैठे-बैठे देख सकें कि क्यों घटनायें, घट रही हैं, और अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर उन पहलुओं को देख सकें, और जो ज्ञान को समेटे हुये हैं उन पर्वतों को देख सकें और उस हिमालय को देख सकें, उस मानसरोवर को देख सकें और उन उच्च कोटि की चीजों को देख सकें जो जीवन का मुल है। वे घौंचे, पत्थर नहीं है, वे हीरे हैं।
आप एक बार भी उन्हें अपने जीवन में देखेंगे तो आपको ये सब अपने जीवन की चीजें बहुत मामूली लगने लग जायेंगी। जीवन में एक ही क्षण दूसरी बार नहीं आ सकता। एक बार जो क्षण आ गया और उसे आपने नहीं पकड़ा तो आप चूक गये। मान लो इस क्षण मैं आपको साधना सिद्धि दीक्षा दे रहा हूं, तो यह जरूरी नहीं कि आपके जीवन में दूसरा ऐसा क्षण आये, या मैं वापस आपको यह दीक्षा दूं यह जरूरी या संभव नहीं है। अगर चूक गये तो चूक गये आप। चूक गये तो बहुत बड़ी चीज चूक गये आप। छोटी-मोटी चीज नहीं चूके। आज शायद आप इस बात को एहसास न करें, मगर एक दिन अवश्य करेंगे।
अभी कुछ दिनों पहले श्रावण मास के पूरे महीने रूद्राभिषेक की क्रिया सम्पन्न करवायी आप में से काफी साधकों ने सम्पन्न की किन्तु उस समय जो नहीं कर पाये उनके लिये वह क्षण फिर से नहीं आयेगा इस लॉकडाउन के समय आप सभी का सौभाग्य था कि आप ने अपने घर में बैठ कर, अपने ईष्ट, अपने सद्गुरूदेव के सानिध्य में अनेकों साधना, शक्तिपात दीक्षाओं की क्रियायें सम्पन्न की किन्तु यह समय जरूरी नहीं कि दुबारा आयेगा ही। मैं आपको समुद्र के बीचों-बीच उतारने की तैयारी कर रहा हूं। मैं नहीं चाहता कि आप समुद्र के किनारे बैठे रहें, आप डरपोक बने रहें, भीरू बने रहें। आप घबरायें नहीं कि अंदर कूदूंगा तो मर जाऊंगा, मर जाऐंगे तो मर जायेंगे, मगर यह गांरटी की बात है कि अगर निकलेंगे तो मोती लेकर निकलेंगे, घौंचे, पत्थर लेकर नहीं।
एक आदमी कहीं से गुजर रहा था, तभी उसने सड़क के किनारे बंधे हाथियों को देखा, और अचानक रूक गया, उसने देखा कि हाथियों के अगले पैर में एक रस्सी बंधी हुई है, उसे इस बात का बड़ा अचरज हुआ कि हाथी जैसे विशालकाय जीव लोहे की जंजीर की जगह बस एक छोटी सी रस्सी से बंधे हुये हैं। ये स्पष्ट था कि हाथी जब चाहते तब अपने बंधन तोड़ कर कहीं भी जा सकते थे, पर किसी वजह से वो ऐसा नहीं कर रहे थे। उसने पास खड़े महावत से पूछा कि भला ये हाथी किस प्रकार इतनी शांति से खड़े हैं और भागने का प्रयास नहीं कर रहे हैं? तब उस महावत ने कहा, इन हाथियों को छोटे से ही इन रस्सियों से बांधा जाता है, उस समय इनके पास इतनी शक्ति नहीं होती की इस बंधन को तोड़ सकें, बार-बार प्रयास करने पर भी रस्सी ना तोड़ पाने के कारण उन्हें धीरे-धीरे यकीन होता जाता है कि वो इन रस्सियों को नहीं तोड़ सकते हैं, और बड़े होने पर भी उनका ये यकीन बना रहता है, इसलिये वो कभी इसे तोड़ने का प्रयास ही नहीं करते। आदमी आश्चर्य में पड़ गया कि ये ताकतवर जानवर सिर्फ इसलिये अपना बंधन नहीं तोड़ सकते क्योंकि वो इस बात मे यकीन करते हैं। ठीक इन्हीं हाथियों की तरह ही हममे से कितने ही लोग सिर्फ साधनाओं में या किसी भी कार्य क्षेत्र में पहले मिली असफलता के कारण ये मान बैठते हैं कि अब इस साधना मंत्र जप से कुछ नहीं होगा हमसे कोई काम नहीं हो सकता है, और अपनी ही बनायी हुई मानसिक जंजीरों में जकड़े-जकड़े पूरा जीवन गुजार देते हैं। याद रखिये असफलता जीवन का एक हिस्सा है, और निरंतर प्रयास करने से ही सफलता मिलती है, यदि आप भी ऐसे किसी बंधन में बंधे हैं जो आपको अपने सपने सच करने से रोक रहा है, तो उसे तोड़ डालिये—आप हाथी नहीं इंसान हैं।
और मेरा बराबर यही चिंतन रहता है कि मैं उन दीक्षाओं, प्रयोगों को, उस ज्ञान को, उन प्रवचनों को स्पष्ट करूं। मैं अपने शिष्यों के लिये ही हर क्षण समर्पित हूं, प्रत्येक सांस शिष्यों के लिये है। जो कुछ अंदर है वह मैं आप सब को देना चाहता हूं, और इतना अधिक हिलोर है, समुद्र का कि मैं देता ही रहूं पत्रिका के माध्यम से, प्रवचनों के माध्यम से, दीक्षा, साधनाओं के माध्यम से और आपको जीवित जाग्रत चैतन्य व्यक्तित्व बनाकर कृष्ण और राम की तरह ऊंचा उठा सकूं। वे भी एक व्यक्तित्व थे, आपके जैसे सामान्य। यदि उन्हें आप एक इतिहास की दृष्टि से देखें, भगवान की दृष्टि से तो वे प्रणम्य हैं। मैं तो आपको भी प्रणाम करता हूं, कि आप भी निश्चिंत ही उसी रूप में हैं। मगर आप उस जगह पहुंचेंगे तब पूरा संसार झुक जाऐगा आपके सामने। जगह-जगह आपकी स्तुति हो पायेगी, तब आपको एहसास होगा कि आपके पूर्वज क्या थे।
कोई साधना शिविर होता है तो तीन-तीन दिन तक सोता ही नहीं क्योंकि समय ही नहीं मिल पाता। रात्रि में नीदं लेने का और दिन में सोने का सवाल ही नहीं होता, लेटता हूं तो फिर यह कल्पना होती है कि कल यह दिवस है, अपने शिष्यों को क्या दूं, किस प्रकार से दूं? बीसों चीजें मेरे मानस मैं होती हैं तो बीसों उतनी महत्वपूर्ण भी होती हैं। बीस में से क्या दूं मगर ऐसा दे दू जिससे आप अपने जीवन में उस पूर्णता को प्राप्त कर जीवन में राम व कृष्णमय बन सकें। मैं तो हर क्षण देने को तैयार हूं, आवश्यक है कि आप ग्रहण करें और ग्रहण करने के लिये कोई भी क्षण उपयुक्त हो सकता है। उसके लिये फिर कोई जरूरी नहीं कि सिद्ध मुहुर्त हो। क्योंकि जगदम्बा तो अपने आप में प्रत्येक क्षण चैतन्य है, गुरू तो हर क्षण देने के लिये तत्पर हैं। शास्त्रें में कहा गया है कि आषाढ़ महीने में देव शयन करते हैं, और कार्तिक शुक्ल एकादशी को देवोत्थान होगा या देव उठेंगे। अगर उस समय उठेंगे तो फिर श्रावण के महीने में हम भगवान शिव की पूजा कैसे करते हैं। फिर भगवान शिव तो सोये हुये हैं? फिर शारदीय नवरात्रि में हम जगदम्बा की पूजा कैसे करते हैं, जगदम्बा तो सोई हुई हैं?
देव सोये हुये नहीं हैं, वे तो सदैव चैतन्य हैं। वह तो हमारे अन्दर जो ज्ञान है वह सोया हुआ है। उसको जीवित जाग्रत चैतन्य करके एक-एक देवता की तस्वीर को जीवन्त, जाग्रत करके सामने खड़ा कर सकें, वह ज्ञान, वह चेतना आपमें आनी चाहिये, वह ताकत आपकी आंखों में होनी चाहिये और वही ताकत आपको देना चाहता हूं। एक साधु था, वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था, जो चाहोगे सो पाओगे, जो चाहोगे सो पाओगे। बहुत से लोग वहां से गुजरते थे पर कोई भी उसकी बात पर ध्यान नहीं देता था और सब उसे पागल आदमी समझते थे। एक दिन एक युवक वहां से गुजरा और उसने उस साधु की आवाज सुनी जो चाहोगे सो पाओगे, जो चाहोगे सो पाओगे और वह आवाज सुनते ही उसके पास चला गया। उसने साधु से पूछा महाराज आप बोल रहे थे कि जो चाहोगे सो पाओगे, तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मैं चाहता हूं?
साधु उसकी बात को सुनकर बोला हाँ बेटा तुम जो कुछ भी चाहते हो मैं उसे जरूर दूँगा बस तुम्हें मेरी बात माननी होगी। लेकिन पहले ये तो बताओ तुम्हें आखिर चाहिये क्या? युवक बोला मेरी एक ही ख्वाहिश है मैं हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूँ। साधू बोला कोई बात नहीं मैं तुम्हें एक हीरा और एक मोती देता हूं, उससे तुम जितने भी हीरे मोती बनाना चाहोगे बना पाओगे। और ऐसा कहते हुये साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुये कहा पुत्र मैं तुम्हें दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं, लोग इसे समय कहते हैं, इसे तेजी से हाथ में पकड़ लो और इसे कभी मत गंवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने हीरे बना सकते हो।
युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु ने उसकी दूसरी हथेली पकड़ते हुये बोला, पुत्र इसे पकड़ो यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है, लोग इसे धैर्य कहते हैं, जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम ना मिलें तो इस कीमती मोती को धारण कर लेना, याद रखना जिसके पास यह मोती है, वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर सकता है। युवक गम्भीरता से साधु की बातों पर विचार करता है, और निश्चिय करता है कि आज से वह कभी अपना समय बर्बाद नहीं करेगा और हमेशा धैर्य से काम लेगा। जहां जीवन में आप धैर्य से काम लेते हैं, वहां समय अपने आप आपके अनुकूल बन जाता है। फिर कोई बाधा, परोशानी आपके मार्ग की बाधा नहीं बनती। फिर आप देखेंगे कि उस आनंद का अलग ही मजा है, अपने आप में अलमस्त फकीरी है। मैं कह रहा हूं कि वैसे घौंचे, पत्थर आप बटोरिये मत। बस धैर्य रखिये और समय को पकड़ लिजिये समय के महत्व को समझिये, यह समय फिर नहीं आयेगा लौट कर, फिर इस तरह से साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न तो होंगी पर जो समय अभी है, वह समय नहीं होगा। अभी कुछ दिनों के बाद नवरात्रियों शुरू हो जायेंगी इस नवरात्रि के पर्व पर भी हम ठीक उसी तरह पूजन, साधना, हवन, दीक्षा की क्रियायें सम्पन्न करेंगे।
और फिर जब मैंने आपको आश्वासन दे दिया तो आप मेरे ऊपर भरोसा करिये कि इस समुद्र में मैं आपको डूबने नहीं दूगा, पर उसके लिये आपको भी प्रयास करना होगा। अगर कोई समझदार आदमी हो तो इशारा ही समझ जाता है, मूर्ख व्यक्ति को तो किसी भी तरह नहीं समझा सकते। हम दो आंख कान वाले तो हैं, मगर हम कितने ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं, यह आप द्वारा खुद निर्णय करने वाली बात है। आपको समझना होगा। इस भयावह समय में आपको एक मार्ग दर्शक गुरू के सहारे की विशेष जरूरत है। इसलिये मैं निरन्तर फेसबुक व यूट्यूब के माध्यम से आपका मार्ग दर्शन कर, प्रवचन, साधनाओं व फोटो द्वारा दीक्षाओं के माध्यम से आप सभी मुझसे से जुड़े हैं, पिछले कई जन्मों से जुडे़ हैं। आप इतने साल से मुझसे जुडे़ हैं, और प्रत्येक बात मेरी मानी है और नवरात्रि हो, दीपावली हो आप सभी इंतजार करते हैं कि पंद्रह मिनट के लिये ही सही, गुरूदेव आयें और दीक्षा व प्रवचन दें और कुछ ऐसी क्रिया करें जो हमारे जीवन में अभीष्ट लक्ष्य दायक हों। यों तो साल का प्रत्येक दिन महत्वपूर्ण है। 365 दिन ही महत्वूर्ण हैं मगर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जो अपने आपमें बहुमूल्य बन जाते हैं। उन क्षणों की कोई तुलना नहीं हो सकती। उन क्षण विशेष में कुछ ऐसा कार्य हो जो अपने आप में दुर्लभ हो, अद्वितीय हो श्रेष्ठ हो।
मुझे तुम्हें कुछ बदलना है, तो मुझे चोट करनी ही पड़ेगी। अब कोई मूर्ति-कार अगर अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाना चाहता है तो छेनी-हथोड़ा उठाना ही पड़ेगा। तुम अनगढ़ पत्थर हो। तुमसे बहुत से टूकड़े पत्थर के तोड़ डालने हैं। पीड़ा भी होगी, क्योंकि उन टुकड़ों को तुमने अपनी आत्मा समझा है, यद्यपि वे तुम्हारी आत्मा नही हैं। उनके टूटने पर ही तुम्हारी आत्मा प्रगट होगी। अभी तो मैं तुमसे जो भी छीनता हूं, तुम्हें लगता है कि, बड़ा कष्ट हो रहा है। मुझे घटाया जा रहा है, मुझे छोटा किया जा रहा है, मुझे काटा जा रहा है। जब भी मैं तुम्हें सुबह जल्दी उठने के या योग प्रणायाम, साधना, पूजा, पाठ करने के लिये बोलता हूं, तो तुम्हें लगता है कि क्या गुरू जी रोज-रोज एक की क्रिया करते हो।
जब कोहिनूर हीरा मिला तो आज जितना बड़ा है, उससे तीन गुना बड़ा था। लेकिन तब तुम्हें मिलता अगर तो तुम पहचानते भी नहीं। जिसको मिला था, वह पहचान भी नहीं पाया, उसने बच्चों को खेलने को दे दिया था पत्थर समझ कर। आज दुनिया में सबसे बड़ा हीरा है, हालांकि उसका वजन तीन गुना कम हो गया। क्योंकि निखारा गया, काटा गया। उस पर कारीगर की छैनी चलती रही। जितनी छैनी चली उतनी चमक आयी है। वजन कम हुआ है, चमक बढ़ी है। मूल्य बढ़ा है। तब हीरा नहीं था, तब अनगढ़ा पत्थर था। अब हीरा है।
ठीक इसी प्रकार तुम अनगढ़ पत्थर की तरह मेरे पास आये हो। आये ही इसलिये हो कि अनगढ़ पत्थर हो। खदान से सीधे निकाले गये हो। मैं तुम्हें काटूंगा, छाटूंगा, तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करूंगा। पीड़ा भी होगी, कष्ट भी होगा। तुम्हारी बहुत दिन की पोषित मान्यतायें टूटेंगी। तुम्हारे बहुत दिन के माने हुये विचार खंडित होंगे। लेकिन अगर समर्पण है तो मेरे साथ चलने का निश्चिय कर ले। तो ऑपरेश्न की टेबल पर लेटने को तैयार हो इतना भरोसा दिलाता हूं कि तुमें बेहोश करके जब तुम्हारा पेट काटूंगा तो तुम्हें मरने नहीं दूंगा। तुमने मेरे हाथों में अपना जीवन सौंपा है। गुरू सर्जन है। अब तुम उससे लड़ने लगोगे कि यह मेरा खून निकाल दिया, यह मेरी चमड़ी काट दी, कि क्या मुझे मार ही डालोगे, मैं तो वैसे ही पीड़ा से भरा आया हूं और पीड़ा दे रहे हो। तो फिर सर्जन काम नहीं कर पायेगा। ऐसे लोग तो बहुत हैं, जिनके मन में अवज्ञा भी आती होगी। ज्यादा नहीं हैं, कोई पांच-सात लोग होंगे। उनमें कुछ ऐसे होते हैं, जिनके मन में अवज्ञा होती है। कुछ ऐसे भी हैं जिनके मन में लोभ हैं कि यहां तो इतना मंहगा है, इतना कम मिल रहा है, थोड़ा और कहीं से मिल जाये। मगर लोभी भी है लेकिन लोभी के संबन्ध गुरू से बनता नहीं है। क्योंकि यह नाता लोभ का नहीं प्रेम का है, जहां लोभ है, वहां प्रेम नहीं। जहां प्रेम है, वहां लोभ नहीं।
कृष्णमूर्ति और मेरे काम में बुनियादी फर्क है। कृष्णमूर्ति किसी को शिष्य की तरह स्वीकार नहीं करते। कृष्णमूर्ति का संबंध केवल बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है, हार्दिक नहीं है। कृष्णमूर्ति ने जो कहा वह बात समाप्त हो गयी। मानना हो तो मान लो, न मानना हो न मानो। जो तुम्हें करना है करो। कृष्णमूर्ति तुम्हारी जिम्मेवारी नहीं लेते। मैं तुम्हारी जिम्मेवारी लेता हूं। कृष्णमूर्ति तुम्हारे साथ तटस्थ नहीं हैं। उनका कुछ लेना-देना नहीं है, मैं तटस्थ नहीं हूं, मैं तुमसे प्रतिबद्ध हूं। तुम्हारे भीतर मैंने अपने आपको नियोजित किया है। मैंने अपने को तुम्हारे साथ दांव पर लगाया है। कृष्णमूर्ति ने एक बात कह दी। चलना हो, तो चलो न चलना हो तो न चलो। मैं तुम्हारा हाथ पकड़कर चल रहा हूं। मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी यात्रा के सारे कष्ट उठा रहा हूं। कुछ मैं चलूं, कुछ तुम चलो तो यह यात्रा पूरी होने वाली है।
शिष्य तो वही है, जो कहे, माधव, जन्म तुम्हारे लेखे। वह कहे कि अब यह जीवन तुम्हारा, यह जन्म तुम्हारा। अब तुम जैसा चाहो बनाओ, अब तुम जैसा चाहो मिटाओ। मैं तुम्हारे हाथों में मिट्टी की तरह हूं, घड़ा बनाओ या मूर्ति। अब मिट्टी कभी मेरे हाथ से छलांग लगाकर किसी और के हाथ में चली जाये और कहे कि थोड़ा वहां जा के भी देखें, शायद वहां कुछ हो जायेगा तो तुम कभी घड़ा नहीं बन पाओगे। मैं कुछ बनाऊंगा, दूसरा कुछ और बनायेगा, तीसरा कुछ और बनायेगा यह मिट्टी ही रह जायेगी।
और मुझे खबर है कि कब कौन सी साधना, दीक्षा तुम्हें प्रदान करनी है, कौन क्या कर रहा है, या कौन कैसे चल रहा है। ध्यान रखना, मैं जो तुम्हें कह रहा हूं, उसमें तुम्हारा भविष्य निर्मित है, मैं तुम्हें वह साधनात्मक क्रियायें सम्पन्न करा रहा हूं। मगर तुम दो नावों में पैर रखना चाहते हो। तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगो। दो नावों में कोई यात्रा नहीं कर सकता। ध्यान रखना, मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम इसी नाव में सवार हो जाओ। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि किसी एक नाव में सवार हो जाओ। जिससे तुम इसी जीवन में उस पूर्णता के किनारे पर पहुंच जाओ, यही लक्ष्य है।
मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
परम पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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