इतिहास साक्षी है कि जब-जब मनुष्य का गुरू से, ईश्वर से, प्रकृति से विश्वास समाप्त हुआ है, तब-तब उसके जीवन में निराशा व हताशा का विस्तार होता है, और इस अविश्वास का मुख्य कारण है- अयोग्य व्यक्तियों का गुरू पद पर स्थापित हो जाना। वास्तव में गुरू शब्द ज्ञान का सूचक है और ज्ञान की कभी कोई सीमा नहीं होती और न ही उसे सीमा में बांधा जा सकता है। जो ज्ञान को सीमाओं में बांध देते हैं अथवा बांधने का प्रयास करते हैं, वे ही वास्तव में गुरू की अयोग्यता के सूचक हैं। गुरू तो एक दर्पण की भांति होता है, जो अपने शिष्य को उसकी छवि दिखाकर उसे सही रास्ते पर गतिशील करता है, भयमुक्त बनाकर उसे जीवन में गतिशीलता प्रदान करता है।
वर्तमान में यदि हम किसी भी गुरू के समीप जायें, तो स्पष्ट होता है कि उनके पास जो ज्ञान है वह कुछ शास्त्रें-गीता अथवा रामायण के कुछ मनोहर दृष्टांतों तक ही सीमित रह गया है। तब यह प्रश्न उठना सहज-स्वाभाविक है, कि क्या उनमें इतनी ज्ञान की चेतना है, जिससे अपने शिष्यों को अभय प्रदान कर, जीवन के विविध पक्षों को जीते हुये, ज्ञान के सरोवर में डुबकी लगाने की कला सिखा सकें? अपने शिष्य को अभय प्रदान कर पूर्ण ब्रह्मत्व प्रदान करें— और केवल ब्रह्मत्व प्रदान ही नहीं करें, अपितु शिष्य को पूर्ण ब्रह्म स्वरूप में स्थापित कर सकें? एक महात्मा के पास एक व्यक्ति नित्य ही जाता रहता था। उसका एक ही आग्रह था, कि उसे पूर्ण ब्रह्म से साक्षातकार हो जाये। वह नित्य नियम से जाता, बैठता और अपनी जिज्ञास प्रकट करता। शनैः शनैः उसे कुछ हताशा और खीझ होने लग गई, कि क्यों नहीं उसे ब्रह्म से साक्षात् हो रहा, जबकि वह गुरूदेव के आश्रम रोज ही जाता था। उनके दर्शन भी करता था और भजन-कीर्तन में बढ़-चढ़कर भाग लेता था। प्रारम्भ में तो उसने प्रकटतः कुछ नहीं कहा, किन्तु गुरू तो गुरू ही होते हैं, वे उसके मनोभावों को भली-भांति पढ़ ही रहे थे।
जब उसके चेहरे से विक्षोभ प्रकट ही होने लगा, तो एक दिन उस महात्मा ने उसे बुला कर पूछ ही लिया, कि वह खिन्न क्यों रहता है। उत्तर में वह व्यक्ति फट पड़ा और बोला यदि आप जैसे महात्मा के सान्निध्य में रहकर भी ब्रह्म का साक्षात्कार, पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सका, तो मेरा आपके पास आने का अर्थ ही क्या? उत्तर में महात्मन् मुस्कुराये और उसे अपने साथ नदी तक चलने को कहा। वह व्यक्ति प्रसन्न हो गया, कि आज संभवतः मुझे केाई दीक्षा मिलेगी और मैं ब्रह्म के दर्शन कर लूंगा। नदी के तट पर पहुंच कर महात्मा ने उस व्यक्ति को भी अपने साथ नदी में उतरने को कहा और बीच धारा में पहुंचने पर उसका सिर बलात् पानी के भीतर दबा दिया तथा कुछ क्षण बाद छोड़ दिया। व्यक्ति ने ऊपर निकल कर हांफते-हांफते पूछा आपकी इस क्रिया का क्या अर्थ? उत्तर में उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा, जब तुम पानी के भीतर थे, तब तुम्हारे मन में क्या भाव था? व्यक्ति ने कहा काश! मुझे किसी भी तरह से श्वास लेने का अवसर मिल जाये। तब महात्मा ने कहा जिस दिन तुम्हें इतनी छटपटाहट ईश्वर के लिये उत्पन्न हो जायेगी, उसी दिन तुम उसके साक्षात्कार का उपाय भी प्राप्त कर लोगे।
गुरू दीक्षा व शक्तिपात की क्रिया के माध्यम से अपने शिष्य के मन में भी आलोड़न-विलोड़न का तीव्र दबाव देते हैं, और जिनके मन में अपने ईष्ट व गुरू के प्रति लालसा होती है, उस क्षण ब्रह्म से साक्षात्कार कर पूर्णत्व की प्राप्ति हो जाती है। तो उस चैतन्य सत्ता की पावनता शुद्ध वायु की तरह प्राप्त होगी ही। लेकिन उसके लिये हमें पहले शिष्य बनाने की क्रिया करनी पडे़गी। अपने भीतार छटपटाहट पैदा करनी होगी। और लोगों को शिष्य बनने की प्रक्रिया का ज्ञान ही नहीं है, यदि एकाध को है भी, तो भी उन्हें अपने अन्दर शिष्यत्व धारण करने के लिये सर्वप्रथम अपने अहंकार, मैं को समाप्त करना होगा-और जब ऐसा होगा, तब व्यक्ति में श्रद्धा, विश्वास और गुरू-चरणों के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न होगा।
अतः यह ठीक ही कहा गया है, कि शिष्यता प्राप्त करना एक कठिन कार्य ही नहीं, अपितु दुष्कर कार्य है। अपने जीवन को, अपने अस्तित्व को समाप्त कर देने की कला ही शिष्यता है। एक योग्य शिष्य अपने-आप को गुरू की आज्ञा से इतना समरस कर लेता है, कि वह स्वयं समाप्त हो जाता है और तब उसके स्थान पर स्वयं गुरू खड़ा हो जाता है। समस्त द्वैत समाप्त होकर अद्वैत का भाव आ जाता है। प्रकृति का प्रकृति में, ब्रह्म का ब्रह्म में शून्य का शून्य में विलय हो जाना ही शिष्यत्व है, गुरूत्व है और परम तत्त्व है।
जिस प्रकार जल भरा हुआ एक कलश, नदी में बहता है और जब कलश का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, तब उस कलश का जल, नदी के जल के साथ एकाकार हो जाता है, तब कलश और नदी के जल में भिन्नता नहीं होती, दोनों को नदी का जल ही कहा जाता है, इसी प्रकार जब शिष्यत्व का एकाकार गुरूत्व में हो जाता है, तो केवल और केवल मात्र गुरूत्व ही रह जाता है और यही सही अर्थों में जीवन की श्रेष्ठता है, यही जीवन का लक्ष्य भी है।
और जब एक शिष्य के जीवन में इस प्रकार की घटना घटित होती है, तब वह जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है, तब अद्वैत भाव आने पर उसकी स्वतः पूर्ण कुण्डलिनी जागरण की क्रिया सम्पन्न होती है, फिर वह उस कदम्ब के वृक्ष का रूप धारण कर सकने में सक्षम हो पाता है, जिसकी छाया तले समस्त विश्व, समस्त मानव जाति और यह समाज सुख-शांति का अनुभव करता है, ज्ञान की शीतलता प्राप्त करता है, ब्रह्मत्व की चांदनी में दमकते हुये अमृतत्व के मानसरोवर में अवगाहन करता है।
इस झूठ, छल, प्रपंच, कपट, माया-मोह के बंधनों को तोड़ता हुआ जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करता है— और तब इस समाज के अतृप्त लोग स्वतः कह उठते हैं- ‘‘चलो दूर कदम्ब की छांव तले’’।
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