चित्रगुप्त यानि वे घटनायें भी जो उनके सिवा किसी और को नहीं पता होती, उसकी गोपनीय से गोपनीय बात भी चित्र रूप में स्पष्ट हो जाती है। अधिकतर छल, झूठ, कपट, काम, भय, ईर्ष्या आदि से प्रभावित होता हुआ ही व्यक्ति देह त्यागता है, स्व चिंतन, भगवत् चिंतन का उसे ध्यान नहीं रहता।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि- अन्ते मतिः सा गतिः अतः मृत्यु समय से पूर्व जैसे विचार एवं चिंतन होते हैं, उसी प्रकार से व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। जब व्यक्ति विभिन्न इच्छाओं के साथ मरता है, तो कुछ देर तो उसे विश्वास ही नहीं होता, कि वह मर गया उसकी देह उसके समक्ष होती है वह अचम्भित सा देखता रहता है, क्योंकि उसकी कई अपूर्ण इच्छायें होती हैं, जिनकी पूर्ति के लिये उसे भौतिक शरीर की आवश्यकता होती है, इसलिये वह अपनी देह में स्थित अनेक अपूर्ण कामनाओं से ही व्यथित मन से आसपास ही मंडराता रहता है और जब देह जला दी जाती है, तो हताश हो जाता है और इच्छाओं की पूर्ति हेतु भटकता रहता है।
हमारे ऋषियों-महर्षियों ने सम्पूर्ण मानव-जीवन को अर्थात् गर्भ में आगमन से लेकर जन्म और मृत्यु तक, पूर्ण काल चक्र को विभिन्न खण्डों में विभाजित कर दिया है। उन्होंने ऐसा इसलिये किया, जिससे मनुष्य एक अनुशासित और सुव्यवस्थित तरीके से अपने जीवन को व्यतीत करे और साथ ही प्रत्येक कार्य के साथ, वे जो मानव-जीवन को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं, उनके हेतु पिता परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें, उनकी प्रसन्नता और आशीर्वाद प्राप्त कर सके।
सनातन धर्म में इस निर्धारित कार्य को संस्कार के नाम से सम्बोधित किया गया है। बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं ये संस्कार, योग्य पुत्र अथवा पुत्री की प्राप्ति, गर्भ में आगमन के समय पुंसवन संस्कार, जन्म लेने के उपरान्त नामकरण, चूड़ाकर्म संस्कार सम्पन्न किये जाते है। जब बालक थोड़ा बड़ा होता है, अर्थात् पांच से पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक उसका उपनयन संस्कार कर, उसे द्विज स्वरूप में ब्रह्म विद्यार्जन का अधिकार प्रदान किया जाता है।
यौवन का पर्दापण होने पर विवाह संस्कार युक्त गृहस्थ जीवन को सुगम रूप से संचालित करने के लिये विभिन्न संस्कारों से युक्त होता हुआ व्यक्ति जब वृद्धावस्था को प्राप्त कर अपने जर्जर और रोगग्रस्त शरीर का त्याग कर किसी अन्य शरीर को धारण करने के लिये प्रस्थान करता है, तो उसके द्वारा त्यागे गये शरीर को हिन्दू धर्मानुसार पंचतत्व में विलीन करने की क्रिया संस्कार स्वरूप में सम्पन्न की जाती है।
मृत्यु के बाद भी हमारा रिश्ता उस मृतात्मा से जुड़ा रहता है, क्योंकि उससे हमें जीवन में कर्म करने की भावनायें चिन्तन स्वरूप में अनेक सु क्रियायें प्राप्त होती हैं अतः उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने तथा उसकी सुभावनायें हमारे जीवन में विद्यामन रहे इसी हेतु श्राद्ध कर्म संस्कार किया जाता है।
श्राद्ध का महत्व सर्वविदित है, इसके बारे में कोई आवश्यक नहीं है, कि विस्तृत विवेचना की जाय, किन्तु यह बहुत ही कम लोगों को ज्ञात होगा कि श्राद्ध बारह प्रकार के होते हैं-
नित्य-श्राद्ध- जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाय, वह नित्य-श्राद्ध है। तिल, धान्य, जल, दूध, फल, मूल, शाक आदि से पितरों की संतुष्टि के लिये प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये।
नैमित्तिक-श्राद्ध- एकोद्दिष्ट-श्राद्ध के नाम से भी इसे जाना जाता है। इसे विधिपूर्वक सम्पन्न कर एक या दो ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये।
काम्य-श्राद्ध- जो श्राद्ध कामना युक्त होता है, उसे काम्य-श्राद्ध कहते हैं।
वृद्धि-श्राद्ध- यह श्राद्ध धन-धान्य तथा वंश-वृद्धि के लिये किया जाता है, इसे उपनयन संस्कार सम्पन्न व्यक्ति को ही करना चाहिये।
सपिण्डन-श्राद्ध- इस श्राद्ध को सम्पन्न करने के लिये चार शुद्ध पात्र लेकर उनमें गन्ध, जल, और तिल मिला कर रखा जाता है, फिर प्रेत पात्र का जल पितृ पात्र में छोड़ा जाता है। चारों पात्र प्रतीक होते हैं- प्रेतात्मा, पितृ आत्मा, देवात्मा और उन अज्ञात आत्माओं के लिये जिनके बारे में हमें ज्ञान नहीं है।
पार्वण-श्राद्ध- अमावस्या अथवा किसी पर्व विशेष पर किया गया श्राद्ध पार्वण-श्राद्ध कहा जाता है।
गोष्ठ-श्राद्ध- गाय के लिये किया जाने वाला श्राद्ध।
शुद्धयर्थ-श्राद्ध- विद्वान गुरूजनो के आशीर्वाद, पितरों की तृप्ति, सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति के निमित्त ब्राह्मणों के लिये किया जाने वाला कर्म।
कर्मांग-श्राद्ध- यह श्राद्ध कर्म गर्भाधान, सीमन्तोन्नयन तथा पुंसवन संस्कार के समय सम्पन्न होता है।
दैविक-श्राद्ध- देवताओं के निमित्त घी से किया गया हवनादि , व यात्रदि के दिन सम्पन्न किया जाता है।
औपचारिक-श्राद्ध- यह श्राद्ध शरीर की वृद्धि और पुष्टि के लिये सम्पन्न किया जाता है।
सांवत्सरिक-श्राद्ध- यह श्राद्ध में श्रेष्ठ है, और इसे मृत व्यक्ति की पुण्य तिथि पर सम्पन्न किया जाता है।
आत्मायें भौतिक सामग्री नहीं ग्रहण कर सकती, वे तो मात्र हमारी भावनायें ग्रहण करती हैं। ठीक उसी प्रकार वे आपके कर्मो व कर्त्तव्यो को महसूस कर अच्छी या बुरी तरंगें प्रवाहित करता है। अतः आपको चाहिये कि अपने दिवंगत प्रिय के नाम का संकल्प लेकर, उसके लिये ऐसी दिव्य साधनायें निरन्तर सम्पन्न करें, जिसके मन्त्रों की तेजस्वी तरंगों के फलस्वरूप श्रेष्ठ योनि में उत्पन्न हो सके।
पितरों के लिये पूजन या साधना सम्पन्न करने के मुख्य लाभ हैं, प्रथम, आपके पूर्वज या पितृ के कारण ही आपको भौतिक शरीर की प्राप्ति हुई है, यह मानव देह प्राप्त हुई है, अतः यह आपके ऊपर उनका ऋण है, और अगर आप साधना के माध्यम से उनके पुनर्जन्म का मार्ग प्रशस्त करते हैं, तो इस मातृ पितृ ऋण से निवृत हो जाते हैं और उनका सद् आशीर्वाद निरन्तर प्राप्त होता रहता है।
जब तक पितृ का पुनर्जन्म नहीं होगा, उनका सही मार्गदर्शन नहीं होगा, उनकी इच्छायें अतृप्त रहेंगी। इस दशा में उसे देह की तलाश रहती है, जिसकी मदद से वह इच्छाओं को भोग सके और चूंकि उसी के संस्कार आपके शरीर में हैं, मृत्यु के बाद जीवन में मनुष्य की देह तो समाप्त हो जाती है लेकिन सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है, प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कई प्रकार की भौतिक इच्छायें कामनायें रहती हैं और जब ये कामनायें पूर्ण नहीं होती यह सूक्ष्म शरीर में भटकती रहती है उसे मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त नहीं होती है, वे अपनी मुक्ति हेतु अपने घर परिवार में मंडराती रहती है तथा अपने परिवार के सदस्यों से आशा रखती है कि वे उनकी मुक्ति के लिये कुछ करें।
उनकी वेदना छटपटाहट परिवार के सदस्यों के असामान्य व्यवहार द्वारा प्रकट होती है। जो व्यक्ति सोचते हैं कि यह प्रेत बाधा है, तंत्र बाधा है इस तरह की कुस्थितिया निश्चित रूप से पितरो की अशान्तता के फलस्वरूप प्राप्त होती है। दैविक साधना सम्पन्न करते हुये तो तांत्रिक क्रियाओं का प्रभाव आप पर कैसे पड़ सकता है, इसका मूल कारण है पितृ-दोष, और जब तक यह दोष समाप्त नहीं हो जाता है तब तक परिवार में रोग-शोक की स्थिति रहती है।
परन्तु आप साधना द्वारा उसे यदि नवीन जन्म दिलवा दें, तो अपनी इच्छायें पूरी करने के लिये उसे देह मिल जायेगी, वह पुराने संस्कारों को भूलकर नये संस्कारों के अनुसार जीवन जीने लगेगा और आप भी उनके कुप्रभावों से मुक्त हो जायेंगे। और आपके पूर्वज जो आशीर्वाद देंगे वह तो अपने आप में ही अनिर्वचनीय होगा, क्योंकि तब आप अपने जीवन में दिनो-दिन प्रगति की ओर अग्रसर हो सकेंगे, और जीवन में हर प्रकार की श्रेष्ठता, धन, वैभव एवं सफलता प्राप्त कर सकेंगे।
हमारे शास्त्रों में पितृ दोष निवारण से सम्बन्धित कई विशिष्ट साधनायें उल्लिखित हैं। उनमें से मुख्य है पितृ मुक्ति साधना जो कि आत्यधिक तीव्र है और तुरन्त प्रभाव देती है। इस प्रकार की साधना को सम्पन्न करने से पितरात्मा की मुक्ति के साथ ही साथ उनकी विशेष कृपा भी साधक को प्राप्त होती है, जिसके कारण साधक के घर में सुख-शांति बनी रहती है।
इस साधना का विधान सरल है और कोई भी व्यक्ति इसे सम्पन्न कर सकता है। इसे व्यक्ति पितृ पक्ष के किसी भी दिन या अमावस्या के दिन प्रातः काल सम्पन्न करें।
सर्व प्रथम स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ, लाल या पीले आसन पर दक्षिणाभिमुख हो कर पीले वस्त्र धारण कर बैठे। अपने सामने एक थाली में कुंकुम से स्वस्तिक बना ले उसके बाद उस में पितृ मुक्ति यंत्र स्थापित करें, उसके ऊपर पितरेश्वर माला को रखे। कुंकुम से पितृ या पितरों का नाम या व्यक्ति का नाम लेकर यंत्र माला पर कुंकुंम, पुष्प अर्पित करें। धूप, दीप, अक्षत से पूजन सम्पन्न कर पितरो का ध्यान करें-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ।।
पितरेश्वर माला से निम्न मंत्र
की 7 माला जप सम्पन्न करें-
साधना समाप्ति पर निम्न मंत्र की 3 माला 5 दिन तक जप सम्पन्न करें। उसके बाद सभी साधना सामग्री यंत्र व माला को किसी मंदिर में अर्पित कर दें या किसी जलाशय में विसर्जित कर दें।
भारतीय सनातन धर्म में अस्वाभाविक मृत्यु को निम्नतम माना गया है, क्योंकि इसमें व्यक्ति ईश्वर प्रदत्त पूर्ण आयु का उपभोग नहीं कर पाता है और किसी दुर्घटनावश उसकी मृत्यु हो जाती है, इस प्रकार अस्वाभाविक मृत्यु प्राप्त आत्मा के मन में जो इच्छा होती है, उसकी पूर्ति हेतु वह भटकती रहती है।
ऐसे में उसके आत्मीय होने के नाते हमारा कर्त्तव्य बन जाता है, कि उसकी इच्छा पूर्ण करें और साधना द्वारा उसका भटकाव समाप्त करें और उसे आगे के जीवन के लिये अग्रसर करें।
यह साधना विशेषतः उन आत्मीय जनों के लिये है जिनकी अस्वाभाविक या अकाल मृत्यु हुई हो। जिसके भी घर में इस प्रकार किसी की मृत्यु हुई हो, उसे यह साधना अवश्य सम्पन्न करनी ही चाहिये। क्योंकि यह सामान्य श्राद्ध की क्रिया से बिल्कुल अलग ही प्रभाव देने वाली है और इस साधना से मृत व्यक्ति को शांति प्राप्त होती ही है। तथा उनका उद्धार होता है। यह साधना पितृ पक्ष में किसी भी तारीख को अपनी सुविधानुसार रात्रि में दस बजे के बाद प्रारम्भ करनी चाहिये।
इस साधना में स्नान कर सफेद वस्त्र धारण कर सफेद या पीले आसन पर दक्षिणाभिमुख होकर बैठें। सफेद वस्त्र पर मृत्युन्जय दोष निवारण यंत्र और उसके ऊपर मुक्तिदायिनी माला को किसी थाली में स्थापित करें। उसेके बाद यंत्र पर मृत व्यक्ति का नाम कुंकुंम से लिखें। फिर यंत्र व माला का पूजन करें, यंत्र पर दो पुष्प चढ़ावें और पूजन सम्पन्न होने के बाद मुक्तिदायिनी माला से निम्न मंत्र की 5 माला 3 दिन जप करें-
साधना के उपरान्त पूजन सामग्री को जलाशय में विसर्जित कर दें।
यह सही है की आत्मा अविनाशी होती है, किन्तु आत्मा का निवास देह में होता है, पर आत्मा का इसके साथ-साथ आस-पास के वातावरण, परिवार, सगे-सम्बन्धियों, संतान इत्यादि से लगाव होना स्वाभाविक है। मनुष्य की देह की कामना के साथ-साथ मन की कामनायें भी होती हैं क्योंकि मन, प्राण, आत्मा ही देह को संचालित करते हैं। कई बार सांसारिक दुःखों, व्यक्तियों के कारण उसके मन-आत्मा पर एक बोझ आ जाता है। तो मनुष्य मरते समय असीम पीड़ा का अनुभव करता है और उसकी आत्मा मुक्त नहीं हो पाती। ऐसी अतृप्त आत्मा सूक्ष्म रूप में निरन्तर भटकती रहती है और उनकी क्रिया के कारण परिवार में कई बार विचित्र स्थिति, विचित्र घटनायें उत्पन्न होने लगती हैं। आपके पितरेश्वर भी अतृप्त आत्मा हो सकते हैं क्योंकि उनका प्रभाव उनके परिवार पर अवश्य पड़ता है। ऐसे अतृप्त पितरेश्वरों की आत्मा को मुक्ति दिलाना उनकी संतानों का कर्तव्य है। यदि वे अपने इस कर्तव्य को पूरा नहीं करते हैं तो उन्हें जीवन भर परेशानी उठानी पड़ती है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे अपने वंशजों, संतानों अपने प्रियजनों से पिण्डदान लेने के लिये पृथ्वी लोक में आ जाते हैं सूर्य के कन्या राशि में आने पर वे घर के बाहर आ जाते हैं तथा अमावस्या तक वहीं ठहरते हैं। इन सोलह दिनों तक पितरों का तर्पण एवं विशेष तिथि को श्राद्ध अवश्य करना चहिये तभी पितृ व्रत पूर्ण होता है।
श्राद्ध से प्रसन्न होकर पितृगण अपने वंशजों, संतानों तथा प्रियजनों को आयु, धन, विद्या, सौभाग्य, संतान सुख, कार्य, व्यापार वृद्धि स्वरूप में मंगलमय आशीर्वादों को प्रदान करते हैं। पितरों की प्रसन्नता से मनुष्य को पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, अन्न, द्रव्य आदि सुख प्राप्त होते ही हैं।
इस श्राद्ध पक्ष में पूज्य गुरूदेव द्वारा साधना के माध्यम से पितरेश्वरों की मुक्ति व उनके आशीर्वाद स्वरूप पितृ दोष प्रेत बाधा निवारण दीक्षा प्रदान की जायेगी।
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