यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया।
तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिये उस युवती की मांग की, निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वहीं शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगा। तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा, तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया था। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा।
देवव्रत ने अपनी माता सत्यवती को वचनबद्ध किया था, कि वे आजीवन अविवाहित रहेंगे और कभी भी हस्तिनापुर के नरेश नहीं बनेंगे। देवव्रत ने अपने पिता को हस्तिनापुर के शासन के प्रति हमेशा ईमानदार और उनकी रक्षा और सेवा का वचन दिया।
एक दिन भीष्म अपनी मां सत्यवती को बताते हैं कि काशी के राजा द्वारा उनकी तीन पुत्रियों का स्वयंवर कराया जा रहा है और विचित्रवीर्य भी विवाह योग्य हो गया है और वे तीनों राजकुमारीयों को विचित्रवीर्य के लिये सहर्ष जीत लायेंगे। सत्यवती उन्हें आशीवार्द और आभार देती है, वह उन्हें विचित्रवीर्य के लिये जीत लाने को कहती है। भीष्म अकेले ही अपने रथ में जाते हैं और सभी विरोधी राजाओं को हराकर, राजकुमारियों को जीत लाते हैं। भीष्म तीनों राजकुमारी अम्बा, अम्बिका, अंबालिका को सत्यवती के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। सत्यवती प्रसन्न होती है।
विचित्रवीर्य अंबिका, अंबालिका से विवाह कर लेता है। वहीं अंबा जब अपने चुने हुये वर के पास विवाह के उदेश्य से जाती है तो वह युवक उसे अस्वीकार कर देता है, क्योंकि वह भीष्म द्वारा किसी ओर से विवाह करने हेतु ले जायी गयी थी। अम्बा अत्यन्त क्रोधित होती है, वह भीष्म को ही अपनी इस अवस्था का दोषी ठहराती है, वह मन ही मन भीष्म का नाश करने का निश्चय लेती है। अम्बा परशुराम के पास जाती है क्योंकि उसे ज्ञात होता है कि परशुराम को क्षत्रियों के प्रति घृणा है। वह उनसे भीष्म का वध कर उसका बदला लेने की प्रार्थना करती हैं।
परशुराम अंबा व ऋषियों के साथ हस्तिनापुर प्रस्थान करते है। वहाँ भीष्म उन्हें आदर पूर्वक मिलने आते हैं। भीष्म उनके आने का उद्देश्य पूछते है, तब परशुराम भीष्म को अंबा से विवाह कर लेने के लिये कहते हैं। परन्तु भीष्म विवाह करने से मना कर देते है, क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का वचन दिया होता है। आदेश न मानने के कारण भीष्म और परशुराम में द्वंद युद्ध होता है, जो तेइस दिन तक चलता है और अंत में भीष्म की विजय होती है। परशुराम अम्बा को बताते है कि वे भीष्म को नहीं मना पाये। अब उसे सब कुछ भूल कर भीष्म की छत्रछाया में शरण ले लेनी चाहिये, यही उचित है।
परन्तु अंबा उनका कहा नहीं मानती, वह बारह वर्षो तक भगवान शिव की कठोर तपस्या करती है। यह देख शिव प्रकट होते हैं और वरदान माँगती है क्योंकि उसे लगता था कि भीष्म के कारण वह नारी होने के सभी सुख भोगने से वंचित रह गयी। भगवान शिव उसे ऐसा ही होने का वरदान देते है। अंबा कहती है कि भीष्म ने महान योद्धा परशुराम को भी पराजित कर दिया था, वह तो एक स्त्री है, वह कैसे उन्हें पराजित करें?
भगवान शिव उसे बताते है कि अगले जन्म में वह द्रुपद के पुत्र शिखंडी के रूप में जन्म लेगी, तब वह उनसे युद्ध कर पायेगी। अंबा अग्नि में कूद आत्मदाह कर लेती है, क्योंकि उसे जल्द से जल्द भीष्म का वध करना था और जैसे शिव ने कहा था उसका पुनर्जन्म शिखंडी के रूप में हो जाता है।
अम्बिका व अम्बालिका के एक-एक पुत्र होता है, धृतराष्ट्र और पाण्डु, धृतराष्ट्र के कौरवों के रूप में सौ पुत्र होते हैं व पाण्डवों के रूप में पाण्डु के पाँच पुत्र होते हैं। भीष्म धृतराष्ट्र और पाण्डु की तरह ही उनके पुत्र हो जाने पर उन सभी का पालन-पोषण व उन की शिक्षा-दीक्षा का श्रेष्ठ निरक्षण करते है। कौरवों व पाण्डवों के बचपन की वैमनस्यता उनके बड़े हो जाने पर भी जारी रही।
भीष्म कौरवों को खासकर कि दुर्योधन को सदा यही समझाने का प्रयत्न करते कि जो उनका (पाण्डवों) है, उन्हें सौंप दो वरना वे स्वयं के लिये ही मुसीबत मोल ले लेंगे। परन्तु कौरव नहीं मानते। आगे चलकर इसी कारण कौरवों व पाण्डवों के बीच अठारह दिनों तक चलने वाला महाभारत का युद्ध हुआ। युद्ध प्रारंभ होने से पहले पाण्डवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर अपने पितामह भीष्म के समक्ष आशीर्वाद लेने आये। भीष्म को कौरव व पाण्डव दोनों ही अत्यधिक प्रिय थे, परन्तु महाभारत के समय वे कौरव सेना प्रमुख थे। क्योंकि उस समय कौरवों के पिता धृतराष्ट्र का शासन था। नौ दिवस तक दोनों सेनाओं में युद्ध चला, दसवें दिवस पर शिखंडी (जो अर्जुन का मित्र था) को ढाल बनाकर उसकी आड़ में अर्जुन ने भीष्म पर निशाना साधा, क्योंकि अर्जुन को शिखंडी के पिछले जन्म के बारे में ज्ञात था व भीष्म पितामह को भी ज्ञात था कि शिखंडी पहले एक स्त्री था। इसलिये उस पर निशाना साधना अनुचित होगा।
भीष्म अब अपनी मृत्यु को देखने के लिये तैयार थे, परन्तु शिखंडी के हाथो अपना अंत नहीं चाहते थे। पर जो तीर उन्हें लगा वह बहुत गहरा था, उन्हें ज्ञात था कि यह निशाना उनके परम शिष्य अर्जुन का था और भीष्म गिर पड़े, अर्जुन के बाणों से भीष्म की शैय्या बन चुकी थी।
दोनों सेनाये युद्ध रोक कर अपने परम प्रिय पितामह के चारों और जमा हो गयी, भीष्म ने अर्जुन से कहा कि उन्हें अपने सिर के नीचे सहारा चाहिये, अर्जुन ने तुरन्त तीन बाण उनके शीश के नीचे लगाये और उनके समीप धरती में निशाना साधकर उन्हें जलपान कराया। भीष्म खुश थे। युद्ध पुनः प्रारम्भ हो गया। क्योंकि भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था, वे शेष दिनों के युद्ध के दर्शक बने।
अंत में पाण्डवों की विजय हुई। पाण्डवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर, भीष्म के समीप उनसे आशीर्वाद लेने आये और भीष्म ने उन्हें कुशल शासक के कर्त्तव्यों का ज्ञान दिया। यह कह कर उन्हें अपनी सभी जिम्मेदारियों के पूर्ण होने का संकेत मिल गया था और यही वह शुभ समय था, जो भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु के लिये निश्चित कर रखा था।
इस प्रकार भीष्म ने अपने दीर्घकालीन जीवन में अपने पिता के लिये एक सुपुत्र, अपनी माता व भाई के लिये एक कुशल संरक्षक, उनके आगे की दोनों पीढियों के लिये श्रेष्ठतम गुरू व पितामह के रूप में निःस्वार्थ भाव से सभी उत्तरदायित्वों को पूर्ण किया।
साधना विधान
बुधवार की रात्रि में स्नान आदि से निवृत्त होकर पीली धोती धारण कर पश्चिम् या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर बैठ जायें। गुरू पुजन कर गुरू मंत्र का 1 माला मंत्र जप करें। फिर अपने सामने लकड़ी के बाजोट पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर भीष्म शक्ति यंत्र को स्थापित कर यंत्र का पंचोपचार पूजन करें। इसके पश्चात् दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लेकर शक्ति माला से निम्न मंत्र का 5 माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
मंत्र जप समाप्ति के बाद सम्पूर्ण सामग्री को पवित्र जलाशय में विसर्जित करें।
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