रघुकुल की परम्परा का पालन करते हुये 14 वर्ष वन में ही बिताये, राजपुत्र होते हुये भी राज-पाट को त्याग कर पहाड़- पर्वतों में हिंसक पशुओं के साथ निवास किये। श्रीराम के इस त्याग, मर्यादा, साधना के कारण ही आज उनका नाम लेते ही व्यक्ति में पवित्रता, दिव्यता, चैतन्यता का भाव स्वतः ही गतिमान होने लगता है। परम्परा की उस धारा को प्रवाहमान करते हुये भगवान श्रीराम ने कुलगुरू महर्षि वशिष्ठ से प्रारंभिक विद्या शिक्षा प्राप्त किया। वेद, पुराण, उपनिषद्, राजनीति, अर्थनीति, अस्त्र शस्त्र आदि में ज्ञान से परिपूर्ण हो पाये। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम पूर्णता के प्रतीक हैं।
उनके जन्मोत्सव को ही राम नवमी के रूप में मनाया जाता है। वे तो समाज में मर्यादा, धर्म कर्त्तव्य आदि सत्गुणों को समाज में स्थापित करने के लिये जीवन भर प्रयत्न करते रहे। रामनवमी को अगर हम धर्म और कर्त्तव्य का आह्वान पर्व कहे तो गलत नहीं होगा। श्रीराम के कार्य, कर्त्तव्य आज के युग मे एक प्रेरणा के स्त्रोत है।
भगवान श्रीराम की छवि साधारण जन मानस में यह विश्वास दिलाती है कि लक्ष्य की प्राप्ति, साधना में सिद्धि संकल्प में अडि़ग रहने पर ही प्राप्त होती हैं। यह पर्व पाप पर पुण्य की विजय, बुराई पर अच्छाई की विजय को प्रतिपादित करता है। पिता का पुत्र के लिये, पुत्र का पिता के लिये, पति का पत्नी के लिये, भाई का भाई के लिये अपने कर्त्तव्य को दर्शाता है। विपरीत स्थितियों में भी धैर्यवान, पराक्रमी आज्ञापालन आदि को स्पष्ट रूप से हमारे हृदय में उल्लेखित करता है। मर्यादा पुरूषोत्तम की लीला उनके कार्य, उनके आदर्श, गुरू-शिष्य परम्परा का वह धर्म आज भी भारतीय संस्कृति में उदाहरण के विषय हैं।
संघर्ष करते करते व्यक्ति जीवन में थक जाता है तब वह विशिष्ट शक्तियों द्वारा जीवन मे विजय प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है, राम नवमी का पर्व व्यक्ति को यह प्रेरणा देता है कि किस प्रकार मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने जीवन में सब बाधाओं को झेलते हुये पूर्ण विजय प्राप्त कर संसार में पुनः धर्म की स्थापना की। शत्रु अथवा बाधा बड़ा अथवा छोटा नहीं होता, वह तो केवल व्यक्ति या घटना होती है और उस पर आत्म विश्वास द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है।
जीवन में हर कोई चाहता है कि उसे ऐसी शक्ति का आधार प्राप्त रहे जिससे कि हर संकट के समय उसे सहायता चाहे मानसिक हो अथवा किसी अन्य माध्यम से प्राप्त हो और इसका बड़ा उपाय दीक्षा साधना ही है, जब आप अपने गुरू के प्रति अपने साधना के प्रति लीन होने का भाव उत्पन्न करते हैं तो फिर सफ़लता मिलती ही है। नर्व वर्ष के प्रारम्भिक दिवस पर पुरूषोत्तमय शक्ति से युक्त होने के लिये आप पुरूषोत्तमय शक्ति दीक्षा को आत्मसात् करे। जिससे साधक को आत्मविश्वास से युक्त शक्ति, सौन्दर्य, बल, बुद्धि, पराक्रम की प्राप्ति होगी साथ ही दुःखों को दूर और संकटो का नाश कर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति होगी।
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