पांच हजार वर्ष पुरानी सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी स्वस्तिक के निशान मिलते हैं, बौद्ध धर्म में स्वस्तिक को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। नेपाल के स्वस्तिक की पूजा हेरम्ब नाम से की जाती है, बर्मा में महा प्रियन्ने के नाम से इसकी पूजा होती है। मिस्र में एक्टन के नाम से और मेसोपोटेमिया में स्वस्तिक को शक्ति का प्रतीक माना गया है। हिटलर ने भी स्वस्तिक के निशान को महत्वपूर्ण माना था।
स्वस्तिक जर्मन के राष्ट्रीय ध्वज में विद्यमान है। वास्तु शास्त्रानुसार स्वस्तिक से चारों दिशाओं का बोध होता है। हिन्दू धर्म के प्रत्येक मांगलिक कार्य अथवा किसी प्रकार की पूजा आदि में स्वस्तिक को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। साथ ही यह चिन्ह धन की अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी व भगवान गणेश का प्रतीकात्मक स्वरूप माना जाता है।
ब्रह्माण्ड में आकाश तत्व के अन्तर्गत सभी सौर मंडल एक विशेष चुम्बकीय शक्ति के आकर्षन से निश्चित गति में गतिशील रहते हैं उसी तरह से सौर मंडल में पृथ्वी भी अपनी धुरी पर निश्चित गति से गतिशील रहती है तथा इसका चुम्बकीय आकर्षण उत्तरायन से दक्षिणायन की ओर होता है। पृथ्वी को गति देने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत उत्तरायण से दक्षिणायन की ओर होता है। यही संकेत स्वास्तिक देता, उसे किसी भी दिशा में रखे वह बायें से दायीं दिशा की ओर ऊर्जा का संकेत करता है। इस प्रकार भूमण्डल की चारों दिशाओं के विकास, निर्माण, संरचना एवं गतिशीलता का प्रतीक है स्वास्तिक।
मनुष्य एवं अन्य जीवों के शरीर के बाहर भी एक अदृश्य ऊर्जा का क्षेत्र होता है, जिसे ओरा कहते हैं और यह केवल जीवित लोगों में पाया जाता है। यदि मनुष्य स्वस्तिक, ऊँ आदि देव शक्तियों के प्रतीक चिन्ह को अपनी पूजा, साधना, उपासना में सम्मिलित करता है, तो वह स्वस्तिक में विद्यमान ऊर्जा शक्ति को अपनी देह में आत्मसात कर ऊर्जा युक्त हो सकता है।
यही कारण है कि भवन निर्माण, बहीखाता के प्रथम पृष्ठ, साधना, पूजा, अनेक-अनेक मांगलिक कार्यों में स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर पूजा सम्पन्न की जाती है। जिससे वह ऊर्जा शक्ति हमारे जीवन को सौभाग्यता व शुभता प्रदान कर सके। इसके साथ स्वस्तिक को भगवान गणेश का प्रतीक चिन्ह माना जाता है और धन की देवी महालक्ष्मी का भी, गणपति के द्वारा विघ्नों का नाश होता है और महालक्ष्मी के द्वारा सकारात्मक ऊर्जा का आगमन अर्थात शुभ व सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
सीमेन्ट, कंक्रीट की इमारतें, धागो के द्वारा निर्मित वस्त्र आदि से निगेटिव ऊर्जा प्राप्त होती है। जिसका मानव शरीर व उसकी पेशियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जिससे स्वास्थ्य में न्यूनता आती है, ये निगेटिव ऊर्जा , पॉजिटिव ऊर्जा का क्षय करती हैं, इसलिये हमे सदा निगेटिव ऊर्जा को नष्ट करने के उपाय करने चाहिये, जिससे हम स्वस्थ, सुखी एवं सम्पन्न रह सके। भवन निर्माण की प्रक्रिया में उत्तर दिशा का अधिक महत्व है और उत्तर दिशा को अधिक से अधिक खुला रखा जाता है, जिससे इस दिशा की ओर से अलौकिक शक्तियां भवन में प्रवेश कर सौभाग्य प्रदान करें। इसी प्रकार से पूर्व दिशा को भी खुला रखने का प्रमुख कारण सूर्य की किरणों को प्रातःकाल अधिक मात्रा में प्राप्त किया जा सके जो विटामिन डी से परिपूर्ण होती है और स्वस्थ जीवन के लिये अत्यन्त लाभकारी है।
वास्तु शास्त्र में सूर्य को मुख्य ऊर्जा का स्रोत माना गया है तथा अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते रहते हैं। सूर्य की प्रातः कालीन किरणे हमेशा मनुष्य व भवन को मिले और शाम के समय की अल्ट्रावायलेट किरणो से मनुष्य दूर रहे, क्योंकि सुबह 10 बजे तक की किरणें विटामिन से युक्त होती है और उसके बाद से शाम तक की किरणे रेडियोधर्मी (Radioactive) से युक्त हानिकारक होती है। इसलिये भवन निर्माण के समय पूर्व दिशा नीची एवं पश्चिम दिशा ऊँची होनी चाहिये।
जीवनदायिनी शक्ति से युक्त ये किरणे उत्तरी धुव्र से दक्षिण धुव्र की ओर चलती है। इसलिये उत्तर दिशा नीची तथा दक्षिण दिशा ऊँची होना शुभ माना जाता है। उत्तर पूर्व दिशा नीची, हल्की एवं खाली होनी चाहिये और दक्षिण, पश्चिम दिशा भारी ऊँची तथा ढकी हुई होनी चाहिये। इसी प्रकार से दक्षिण पश्चिमी को (नैऋत्य) दिशा भारी, ऊँची, ढ़की हुई एवं उत्तर पूर्व कोण (ईशान) दिशा नीची, खुली हुई तथा हल्की होना उचित होता है। इसी प्रकार से पश्चिम उत्तर कोण (वायव्य) एवं पूर्व दक्षिण कोण (आग्नेय) दिशा को समतल रखना वास्तु शास्त्र के अनुसार आवश्यक होता है। इन सभी का कारण यही होता है।
हमारे जीवन और भवन में सकारात्मक व संवृद्ध शक्तियों का आगमन निरन्तर होता रहे, जिससे हमारा जीवन मंगलमय बन सके। इस प्रकार ये नियम जो सुखमय जीवन के लिये आवश्यक है, इन पर भवन बनाते समय अवश्य अमल करना चाहिये। क्योंकि भवन बनाने का उद्देश्य सुख सौभाग्य व दैवीय ऊर्जा से ओत-प्रोत होना ही होता है, जो धर्म, अर्थ काम एवं पूर्णता की प्राप्ति में सहायक है।
आज कल ऐसा भी देखा जाता है कि मनुष्य जैसे ही घर में प्रवेश करता है तनाव अनिद्रा को महसूस करने लगता है। इसका मुख्य कारण चुम्बकीय एवं प्रकाशीय किरणों में रूकावट एवं व्यवधान होता है। सौर मण्डल में सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा अपनी अपनी परिधि पर करते हुये एक दूसरे ग्रह को प्रभावित करते हैं।
वास्तु शास्त्र में पूजा घर ईशान कोण में बनाने का नियम है, यदि पूजा घर ईशान क्षेत्र में होता है, तो प्रातः कालीन आराधना के समय सूर्य रश्मियों का लाभ पूजक को प्राप्त होता है। इससे स्वच्छ एवं शुद्ध वायु मण्डलीय वातावरण में एकाग्रता प्रज्ञप्त होती है और आत्म चेतना से चिन्तन शुद्ध व सात्विक होता है। चूंकि आराधना के समय हम शरीर पर अधिक वस्त्र नहीं डालते, जिससे ऊर्जा शक्ति हमारे रोम-रोम में स्थापित होती है।
मनुष्य का मस्तिष्क शरीर का सबसे संवेदनशील भाग है। ईशान कोण में पूजा करने पर उत्तर की ओर से आने वाली शुद्ध ऑक्सीजन व चेतना से हमारे मस्तिष्क को ऊर्जा प्राप्त होती है, जिसका स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। वास्तु शास्त्र के सिद्धान्त हमें स्वस्थ रखने के लिये उचित ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा भवन निर्माण में धार्मिक क्रियाओं द्वारा परब्रह्म परमेश्वर से जीवात्मा का सम्बन्ध स्थापित करते है और पूजा, आराधाना व साधना के लिये भवन में ही उपयुक्त चेतना व शुद्धता का मार्ग प्रशस्त होता है।
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