लोगों की अपनी समझ है। उस समझ के वे पार नहीं हो पाते। मैं जो कह रहा हूँ, उसे केवल वे ही समझ पाते है जो सारी धारणाओं को एक तरफ हटा कर बैठे हैं। लेकिन तुम्हारा भगवान भय का भगवान है। तुम्हारे सब भगवान तुम्हारे भय से निर्मित हैं। मैं तुम्हें उस भगवान की याद दिलाना चाहता हूँ जो प्रेम में प्रकट होता है, भय में नहीं, जो प्रेम और प्रार्थना में प्रकट होता है! देह तो सदा मन के पीछे जाती है। मन को प्रभु के मंदिर जाना है, तो देह प्रभु के मंदिर ले जाती है, मीठा खाना हो तो मिठाई की दुकान पर देह चली जाती है। चोरी करो तो साथ है, दान दो तो साथ है। भोग, वासना, आलस्य करे तो देह तो तुम्हारी सेवा में रत है। आप चाहें जो भी कर्म करे, यह देह सदैव आपके साथ ही रहती है, आपके मन की गुलाम बनकर।
इसलिये यह आवश्यक है कि अपने मन को बदलो और मन को बदलने की प्रक्रिया ध्यान है, त्याग नहीं। शरीर को सताना नहीं, गलाना नहीं, वरन् सोई हुई चेतना को जगाना, मूर्च्छावस्था को जगाना है। मेरे लिये सन्यास का मौलिक अर्थ है साक्षीभाव और साक्षीभाव के लिये संसार सबसे सुविधापूर्ण अवसर है और इसलिये तो परमात्मा ने तुम्हें संसार दिया है।
जिस तरह भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बिना यह संसार अपनी गति को प्राप्त नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार देवता भी महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली के बिना श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं हो सकते। इसी कारण से जीवन में इन महादेवियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि त्रिदेव की। यदि आपके पास विद्या है पर धन नहीं है तो आप अपना भौतिक जीवन अत्यन्त कठिनाइयों में ही व्यतीत करने को मजबूर हैं और यदि आपके पास विद्या और धन है पर आपके जीवन में अनेकों प्रकार के शत्रु हों जो नित्य आप पर कोई नया षड़यंत्र रचते ही रहते हों, तो भी वह जीवन श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता और यदि आपके पास धन है और आप अपने शत्रुओं पर पूर्ण रूप से हावी होने का बल तो रखतें हैं पर उस धन और बल को सही तरीके से प्रयोग करने की बुद्धि नहीं है तो भी आप जीवन में अपने लिये कठिन परिस्थितियों का निर्माण ही करेंगे और अपने जीवन को श्रेष्ठता की ओर नहीं ले जा पायेंगे। इसलिये सरस्वती दुर्गा व लक्ष्मी की चेतना जीवन में समान रूप से रहनी आवश्यक है।
जिन्दगी उनकी है जो गणित से मुक्त हो जाते है, जो हिसाब-किताब से ऊपर उठते हैं, अतिक्रमण करते हैं, जो प्रेम से जीते हैं। जो हृदय से जीते हैं, जिन्दगी उनकी है और जिनकी जिन्दगी है उन्हीं का परमात्मा है और जिनकी जिन्दगी है उनके जीवन का आनन्द कल में नहीं है, भविष्य में नहीं है, मौत के बाद नहीं है। उनका आनन्द अभी है और यही है। ये आनन्द इसी जीवन में ही हैं। अर्थात् आनन्दमय है, पूर्णमय है। लेकिन मनुष्य के जीवन का एक तर्क है- एक काम करके जब थक जाता है तो तत्क्षण दूसरी अति पर चला जाता है। स्वभावतः उसे लगता है ऐसा करने से नहीं हुआ, इसके विपरित करके देख लूं। छाया तो ठोस चीज की बनती है-शरीर की बनती है, आत्मा की नहीं बन सकती। अगर बिल्कुल पारदर्शी कांच हो तो उसकी छाया नहीं बनेगी। आत्मा तो पदार्थ नहीं है, चेतना है, आत्मा की कोई छाया नहीं बन सकती। देह तो यही छूट जाती है, परलोक में तो सिर्फ आत्मा होती है। आत्मा की कैसी छाया!
जीवन में उसी व्यक्ति को श्रेष्ठता प्राप्त हो सकती है, जिसमे शक्ति होती है, शक्ति का तात्पर्य है, आत्मविश्वास जो साधनात्मक संकल्प के रूप में आता है। संकल्प का अर्थ है कि-जब मैं इस कार्य में प्राण, मन और समग्र शक्ति के साथ संलग्न हो रहा हूँ। इस प्रकार की विचार धारा के साथ दृढ़ता ही जीवन के सभी क्षेत्रे में सफलता की जननी है। वस्तुतः संकल्प तप का, क्रियाशक्ति का स्वरूप है। इसमें अनेक सिद्धियां और वरदान समाहित है। अपने आप को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिये। ‘साधनों के अभाव में किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे?’ ऐसे विचारों को छोड़ना आवश्यक है। स्मरण रखिये, शक्ति का स्त्रोत साधनों में नहीं, संकल्प व आत्मविश्वास में निहित है। यदि जीवन में उच्चता व श्रेष्ठता प्राप्त करने की तीव्र इच्छा व ललक हो तो आपको जिन साधनों का आज अभाव दिखलाई पड़ता है, दृढ़ संकल्प से अपूर्ण साधनों में भी मनुष्य अधिकतम विकास कर सर्वोच्चता पूर्ण आनन्द से युक्त जीवन व्यतीत कर सकता है।
व्यक्ति जीवन में हर समय दूसरों पर भरोसा करता है, सदा अन्य लोगो से अपेक्षा रखता है पर स्वयं पर नहीं। ईश्वर द्वारा हमें जीने के सभी श्रेष्ठ इच्छाओं, उच्चता व श्रेष्ठतम स्थिति को प्राप्त करने हेतु एक श्रेष्ठ कार्य करने हेतु यंत्र के रूप में यह मानव देह प्राप्त हुआ है। इसका हम सद् उपयोग कर इसी जीवन में भौतिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में पूर्णता की स्थिति प्राप्त कर सकते है। जो इसी जीवन में संभव है क्योंकि इस जीवन के पहले हम किस योनि में थे इसका हमे ज्ञान नहीं और अगले जन्म में किस योनि या किस रूप में जन्म लेंगे ये भी हमें नहीं पता।
मनुष्य कितना ही विद्वान, गुणवान, शक्तिशाली है परन्तु यदि स्वयं में विश्वास की कमी है तो वह विद्वान होकर भी मूर्ख है। आत्मविश्वासी मनुष्य अपनी शक्तियो को संगठित करके उन्हें एक दिशा में प्रवाहित करता है जिससे वह सतत् क्रियाशील होकर पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। शारीरिक व मानसिक शक्तियां मनुष्य के आत्मविश्वास पर कार्य करती है। अपने आप में विश्वास करना व शक्तियों पर विश्वास करना एक ऐसा दिव्य गुण है जो आपके हर कार्य को करने योग्य साहस, विचार एवं योग्यता प्रदान करता है। दूसरों पर निर्भर रहने से अपना बल घटता है और इच्छाओं की पूर्ति में अनेक बाधायें उपस्थित होती रहती है। उदाहरण के लिये ध्यान-ध्यान में स्वयं के संकल्प के अभाव से बड़ी कोई बाधा नहीं है। यदि आप में ध्यान में जाने की संकल्प शक्ति है तो दुनिया की कोई भी ताकत आपको ध्यान में जाने से नहीं रोक सकती। इसलिये यदि आपके जीवन के किसी भी मार्ग चाहे व आपके भौतिक रूपी सांसारिक, पारिवारिक जीवन हो चाहे आपके व्यापार-व्यवसाय, चाहे साधना सिद्धि, परमात्मा दर्शन या आध्यात्मिक मार्ग में प्रवेश हो। निरन्तर संकल्प व शक्ति को ही चैतन्य रखते है तो ही सब सम्भव हो पाता है।
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