बिना गुरू स्पन्दन के तुम्हारा शरीर भी एक खोखला, प्र्राण रहित, मात्र रक्त मज्जा का शरीर रह गया है, ऐसा शरीर चलता फिरता तो है, पर जिसमें आनन्द नहीं है, ऐसा शरीर जो परिवार के द्वारा उपेक्षित है, न बेटे को जरूरत है, न सगे सम्बन्धियों को इसकी अनिवार्यता है, क्योंकि यह शरीर प्राणश्चेतनाहीन है, ऐसे शरीर को ढ़ोना तुम्हारी मजबूरी बन गई है, ऐसे शरीर को धीरे-धीरे घसीटते श्मशान तक ले जाने के लिये तुम प्रयत्नशील हो और तुम्हारे चारों तरफ का समाज तुम्हें कार्य में सहायता दे रहा है।
तुम्हारी इस मृत देह को प्राणों से अपने प्राण में जोड़ सकों, मेरे हृदय से अपने हृदय को एकाकार कर सको, मेरे अन्दर अपने आप को समाहित कर सको, मेरे इस आनन्द के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सको और मैं हर क्षण तुम्हें अपने साथ मुक्त आकाश में उड़ने के लिये सन्नद्ध कर रहा हूँ और यह विश्वास रखों आकाश में विचरण करते समय, मैं प्रतिक्षण, प्रतिपल तुम्हारे साथ हूँ, किसी भी हालत में तुम्हें नीचे नहीं गिरने दूँगा, किसी भी स्थिति में तुम्हारे शरीर को लहुलुहान नहीं होने दूंगा। किसी भी स्थिति में तुम्हारा साथ नही छोडूंगा।
यदि हमने जीवन में गुरू के प्रति श्रद्धा व विश्वास के दीप को संजो रखा हैं तो यह दीप एक दिन सूरज बनता ही है। जिस क्षण गुरू रूपी सूर्य की तेजस्विता प्राप्त कर लेंगे वहाँ आपके जीवन में व्याधियां, आँधिया व अंधेरा, निश्चिन्त रूप से समाप्त होगा ही और जीवन में चंद्रमा के समान शीतलता, आनन्द, धन लक्ष्मी की निरंतर प्राप्ति होती ही है।
सद्गुरू को यही शब्द बोल कर नमन किया जाता है। इसमें गुरूदेव को पूर्ण आनन्द और परम सुख प्रदान करने वाला कहा गया है, क्योंकि गुरू रूपी शिव अपनी क्रिया शक्ति द्वारा अर्थात् दीक्षा द्वारा शिष्य के चक्षुओं के आगे फैले विकारों, दोषों का नाश करते हैं। जिससे पशुत्व दूर होकर शिष्यत्व आ सके और जब शिष्यत्व शिष्य में समा जाता है, तभी वह अपना मार्ग समझ सकता है, उसके दिव्य ज्ञान चक्षु जाग्रत हो जाते हैं। गुरू के श्रीमुख से प्राप्त ज्ञान द्वारा ही वह प्रकाशवान, ज्ञानवान हो सकता है। इसके लिये सद्गुरू रूपी प्रकाशपुंज आवश्यक है, जो अपनी रश्मियों का भाग देकर उसे प्रकाशवान बनाते हैं। जब शिष्य में सेवा और समर्पण का भाव आ जाता है तो उसे संसार में सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। जब तक शिष्य अहंकार भाव में रहता है और यह सोचता है कि करने वाला मैं हूँ और मेरे ऊपर गुरू की कृपा है, तब तक उसके कार्य पूर्ण रूप से सम्पन्न नहीं हो सकते और न ही वह पूर्ण रूप से शिष्य बन सकता है। जब यह भाव आ जाता है कि जो कुछ हो रहा है वह केवल और केवल गुरू कृपा से ही हो रहा है, तब उसके जीवन में निरन्तर सुस्थितियों का आगमन होता रहता है। समर्पण और अहंकार विपरीत धुव्र हैं।
दोनो का मिलन नहीं हो सकता है। जब शिष्य समर्पित भाव से क्रिया करता है तो वास्तव में गलती की कोई संभावना नहीं रहती क्योंकि वह केवल सेवक की भांति कार्य कर रहा होता है और सेवक का कार्य है, आज्ञा पालन करना, तब वह फल की चिंता किये बिना कर्म करता ही रहता है, क्योंकि शिष्य को ज्ञात है कि गुरू सेवा कार्य से ही निश्चिन्त फल प्राप्ति होती ही है।
इसलिये गुरू की महिमा, लीला, उनकी कृपा और उनकी सभी क्रियायें अपने आप में गूढ़ से भी गूढ़तम होती हैं, वे शिष्य कल्याण के लिये सदा पिता स्वरूप में परम दयालु रूप में विद्यमान होते है, शिष्य की गलतियों, न्यूनताओं और उसके कुभावों का विषपान करके भी वे शिष्य के लिये सुस्थितियों का मार्ग प्रशस्त करते रहते है। वास्तव में गुरू की कृपा अनन्त होती है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एकमात्र गुरू ही सही मार्गदर्शन प्रदान कर शिष्य को सुपथ पर अग्रसर करते हैं, इस विषमता युक्त परिस्थितियों में गुरूदेव ही जीवन की कलुषिताओं, विषमताओं, बाधायें और विपत्तियों से पार लगाने वाले होते हैं।
इसलिये जीवन में निरन्तर गुरू की महिमा व उनकी कृपा का स्मरण करते रहना चाहिये, साथ ही उन्होंने अनन्त जीवों में हमें अपनी शरण दी उसकी इस कृपा का आभार प्रकट करना चाहिये।
जिस उत्सव में गुरूदेव अत्यन्त प्र्रसन्नता पूर्वक अपने पूर्ण स्वरूप में विद्यमान रहते हैं और सबको अपनी कृपा, अपनी करूणा से आपूरित करते हैं। यह तो आनन्द महोत्सव है, जो निमंत्रण दे रहा है प्राणों को झंकृत करते हुये पूर्णत्त्व प्र्राप्त करने के लिये, मस्ती में डूबने के लिये, आनन्द में सराबोर होने के लिये, दुखते हृदय पर अमृत फुहार बरसाने के लिये। वह तो संदेश है उनसे एकाकार होने का, अपने अस्तित्व को भुलाने का, जिनके श्री चरणों में हम सभी शिष्यों के लिये समस्त तीर्थ सिमट आये हैं। क्योंकि यह दिन सामान्य नहीं है, यह तो अनेकों विशेषताओं पूर्ण युगों से निर्मित है, इसीलिये तो यह क्षण पकड़ने योग्य है, क्योंकि ये अमूल्य क्षण है। यह उत्सव प्रत्येक शिष्यों का जीवन पूरी तरह से सुगन्धित होकर समुद्र में मिलने का पर्व हैं।
गुरू अपने आप में समस्त ऐश्वर्य के अधिपति होते हैं। उसके देव रूपी देह में समस्त देवी देवता स्थापित रहते हैं, अर्थात् सद्गुरू सभी देवों के वे समन्वित रूप है सर्व देवमय होने के कारण प्रथम आराध्य एवं पूजनीय है। वे परमेश्वर के साक्षात मूर्तरूप है, मानव रूप में वे समस्त साधनाओं के सूत्रधार कहे जाते हैं।
साधनाओं में सफलता के लिये अन्य साधनाओं से पूर्व गुरू साधना अपेक्षित होती है। कई बार साधको के अनेकों प्रयासों के बाद भी सफलता नहीं मिल पाती, कई अनुभूति भी नहीं होती, इस स्थिति में भी गुरू के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण की भावना तथा दृढ़ निष्ठा होनी चाहिये। गुरू के प्रति अन्तरंगता एवं तादात्म्य न होने से कभी सफलता सम्भव ही नहीं होगी। साधनाओं में सफलता के लिये निरन्तर गुरू चिन्तन, गुरू मंत्र का जप करते रहना चाहिये, यही सफलता का मूल मंत्र है।
निखिल जयन्ती के पावन व चैतन्य अवसर पर सभी सद्गुरूदेव निखिल से एकात्मक भाव से जुड़े, साधक को गुरू आत्म चैतन्य साधना पूर्ण विधि-विधान से सम्पन्न करना ही चाहिये। जिससे वे अपने रोम-रोम, आत्म व हृदय में निखिल तत्व को समाहित कर सकें, क्योंकि गुरू तत्व ही जीवन की पूर्णता का द्योतक है इसी तत्व के माध्यम से ही भौतिक, आध्यात्मिक जीवन प्रगतिशील व लक्ष्य प्राप्ति में सहायक है।
जीवन के प्रत्येक क्षण में सद्गुरू विराजमान हों, उनका सानिध्य व उनकी कृपा के साथ उनकी तपस्यांश शक्ति से जीवन उन्नति-प्रगतिशील बना रहे और गुरूत्व भाव से कभी भी जटिल परिस्थितियों में अथवा ग्रह योगों, पाप-ताप, दोषों या सांसारिक मोह-माया के कारण भी कभी विच्छेद ना हो।
यह साधना प्रत्येक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि गुरू ही एकमात्र जीवन की नाव को लक्ष्य तक पहुँचाने में समर्थ होते है, अन्य देवी-देवता कामनाओं की पूर्ति तो करते ही है, परन्तु जीवात्मा के कल्याण मार्ग गुरू चरणों से ही प्राप्त होता है। सद्गुरू ही एकमात्र ऐसे देव है जो कामनाओं के साथ अपने शिष्य के कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं।
21 अप्रेल निखिल जयंती महापर्व पर साधक प्रातः काल स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण कर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके पूजा स्थान में सामने लकड़ी के बाजोट पर पीला आसन बिछाकर उस पर गुरू चित्र स्थापित करे। दीप और अगरबत्ती जलाकर पूजन प्रारम्भ करे।
पवित्रीकरण- बाएं हाथ में जल लेकर दायें हाथ से तीन बार अपने ऊपर जल छिड़कते हुये पवित्रीकरण करे-
ॐ अपवित्रः पवित्रे वा सर्वावस्था गतोऽपि वा
यः समरेत् पुण्डरीकाक्षं सः बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।
गुरू पूजन- सामने स्थापित गुरू चित्र का पंचोपचार
(स्नान, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य) से पूजन करें
स्नानं समर्पयामि श्री गुरू चरणेभ्यो नमः।।
चरणों में एक आचमन जल अर्पित कर साफ वस्त्र से पोछें।
धूपं, दीपं, पुष्पं, नैवेद्यं निवेदयामि
श्री गुरू चरणकमलेभ्यो नमः।।
गुरू र्ब्रह्मा गुरू र्विष्णुः गुरू र्देवों महेश्वरः।
गुरूः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
किसी ताम्र पात्र में कुंकुंम से स्वस्तिक बनाकर गुरू चैतन्य यंत्र, सिद्धाश्रम गुटिका व सद्गुरू माला का निम्न मंत्र उच्चारण करते हुये स्थापित करे-
ॐ अस्य श्री मुरू मंत्रस्य मम आत्मस्य गुरू चेतन्य
प्राप्यर्थे सर्व दक्षिणमूर्ति ऋषिः सिद्धाश्रम सिद्धिये।
सभी सामग्री का पूजन निम्न मंत्र 3 बार उच्चारण करते हुये वस्त्र, कुंकुंम, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप व नैवेद्य से करें
सिद्धाश्रम वस्त्रं समर्पयामि नमः।।
गुरूत्व तिलकं नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
लक्ष्मी चैतन्य अक्षतान् समर्पयामि नमः।।
सद्गुरू सुगन्धिम् धूपं दीपं दर्शयामि नमः।।
गुरूचरण कमलेभ्यो पुष्पं समर्पयामि नमः।।
अपनी मनोकामना शांत भाव से सद्गुरूदेव से व्यक्त करे
यनोदात्त तपः चयेन सततं सन्रूस्तमाभूषितं।
ब्रह्मानन्द रसेन सिक्ति मनसा शिष्याश्च संभाविताः।।
ब्रह्माण्डं नवराग रंजित वपुः हस्तामलकवद् धृतं।
सो{यं भूति विभूषितः गुरूवरः निखिलेश्वरः पातु माम्।।
फिर सद्गुरू माला से निन्म मंत्र का 4 माला मंत्र जप करें-
सद्गुरू चरणों में पुष्पांजलि समर्पित करें-
ऋतं सत्यं ब्रह्मा पुरूषं कृष्णपिंगलं।
ऊर्ध्वरेतं विरूपाक्षं विश्वरूपय वै नमो नमः।।
नारायणाय विछ्महे दिव्यदेवाय धीमहि।
जाग्रय जाग्रय तन्नो गुरूः प्रचोदयात्।।
श्री गुरू चरणेभ्यो नमः पुष्पांजलिं समर्पयामि।
निखिल आरती व गुरू आरती सम्पन्न करे व घर के सभी सदस्यों को प्रसाद वितरण करे, अक्षय तृतीया 14 मई तक सभी सामग्री को पूजा स्थान में रहने दे, जिससे अक्षय रूप में सद्गुरू शक्तियों से युक्त हो सके। अगले दिन सभी सामग्री को किसी मंदिर या गुरू चरणों में अर्पित करे।
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