भगवान विष्णु ने तो एक ही हिरण्यकश्यप को समाप्त करने के लिये नृसिंह स्वरूप में, पौराणिक गाथाओं के अनुसार अवतार लिया था, किन्तु मनुष्य के जीवन में तो प्रतिदिन नूतन राक्षस आते रहते हैं, जो हिरण्यकश्यप की ही भांति अस्पष्ट होते हैं, यह अस्पष्ट ही होता कि उनका समापन कैसे संभव हो, उनसे मुक्ति पाने का क्या उपाय हो सकता है? और यह भी सत्य है, कि यदि जीवन में अभाव, तनाव, बाधा, दरिद्रता जैसे राक्षसों से एक-एक करके निपटने का चिंतन किया जाये, तो मनुष्य की अधिकांश क्षमता तो इसी विचार-विमर्श में निकल जाती है, शेष जो बचती है, वह किसी भी प्रयास को सफल नहीं होने देती। साथ ही जीवन के ऐसे राक्षसो से तो केवल पूर्ण क्षमता युक्त प्रयास से जूझना आवश्यक होता है, जो साक्षात् नर केसरी की ही क्षमता हो। तभी जीवन में कुछ ऐसा घटित हो सकता है, जिस पर गर्वित हुआ जा सकता है।
पद्म पुराण के अनुसार वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि पर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण किया था। राक्षस हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। इसलिये हिरण्यकश्यप अपने पुत्र प्रहलाद पर अत्याचार करता था और कई बार उसे मारने की कोशिश भी की। भगवान विष्णु ने अपने भक्त को बचाने के लिये आधा शरीर सिंह का और आधा इंसान स्वरूप में नृसिंह अवतार लिया तब ही हिरण्यकश्यप राक्षस को समाप्त किया गया।
नृसिंह रूप भगवान विष्णु का रौद्र अवतार है। ये भगवान के दस अवतारों में चौथा है। नृसिंह नाम के ही अनुसार इस अवतार में भगवान का रूप आधा नर यानी मनुष्य का है और आधा शरीर सिंह यानी शेर का है। राक्षस हिरण्यकश्यप ने भगवान की तपस्या कर के चतुराई से वरदान मांगा था। जिसके अनुसार उसे कोई दिन में या रात में मनुष्य, पशु, पक्षी कोई भी न मार सके। पानी, हवा या धरती पर किसी भी शस्त्र से उसकी मृत्यु न हो सके। इन सब बातों को ध्यान में रख भगवान ने आधे नर और आधे मनुष्य का रूप लिया। दिन और रात के बीच यानी संध्या के समय हवा और धरती के बीच यानी अपनी गोद में लेटाकर बिना शस्त्र के उपयोग के अपने ही नाखुनों से हिरण्यकश्यप को मारा। भगवान विष्णु का ये अवतार बताता है कि जब पाप बढ़ जाता है तो उसको खत्म करने के लिये शक्ति के साथ ज्ञान का उपयोग भी जरूरी हो जाता है। इसलिये ज्ञान और शक्ति को पाने के लिये भगवान नृसिंह की पूजा की जाती है।
यह साधना शत्रु संहार के साथ-साथ अनेक रोगों को समाप्त करने के लिये भी अद्वितीय है। क्योंकि यह साधना जटिल रोगों के साथ अनेक कुभावों को भी समाप्त करती है। इस साधना के बल से भविष्य में भी आने वाली बाधायें अपने आप ही समाप्त हो जाती है और किसी भी प्रकार की समस्या या तनाव नहीं रहता, इसका साधना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि आने वाले अशुभ समय का शमन पहले ही कर देता है।
यह साधना सम्पन्न करने से अकाल मृत्यु का भय, विपत्ति, विकराल बाधा की समस्या नहीं रहती है और मानसिक चिन्ता, कष्ट और तनावो से निवृति प्राप्त होती है अर्थात् जहाँ यह वर्तमान जीवन को अनुकूल और सुखद बनाने में सहायक है, वही दूसरी ओर भविष्य की बाधाओं और अड़चनों को भी पूर्व में ही दूर करने में पूर्ण रूप से सहायक है।
भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार का गूढ़ार्थ रहस्य यही है कि हिरण्यकश्यप रूपी नकारात्मक शक्तियों पर मनुष्य विजय प्राप्त कर अपने जीवन को सकारात्मक ऊर्जा से युक्त कर सके, देव शक्तियों के माध्यम से जीवन में विजय प्राप्त कर ले यह साधना इन्हीं सब नकारात्मकता को समाप्त कर आगे बढ़ने का मार्ग है। इस साधना के माध्यम से साधक सभी नकारात्मक शक्ति के प्रकोप से मुक्त होता है, साथ ही यदि उस पर किसी के द्वारा तंत्र बाधा, बंधन, प्रेत बाधा आदि कुक्रियायें की गयी है, तो वे भी पूर्णतः समाप्त होती है। भगवान नृसिंह आसुरी शक्तियों के प्रकोप को पूरी तरह समाप्त कर जीवन में निर्भयता प्रदान करते हैं, साथ ही साधक सुखी, शांत एवं निरन्तर आनन्द में क्रियाशील रहता है।
नृसिंह जयंती स्वाति नक्षत्र युक्त भौम दिवस पर सांयकाल में स्नानादि से निवृत होकर शुद्ध धुले हुये लाल वस्त्र धारण कर पूजा स्थान में उत्तर दिशा की ओर मुँह कर लाल आसन पर बैठ जाये। धूप तथा घी का दीप जलाकर पंचपात्र से 3 बार आचमन करें-
ॐ केशवाय नमः
ॐ माधवाय नमः
ॐ नारायणाय नमः
अपने सामने बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर किसी पात्र में कुंकुंम से षट्कोण बनाकर उस पर नृसिंह यंत्र को स्थापित करे। साधना काल के दौरान दीपक जलते रहना चाहिये। यंत्र के चारो दिशाओं में निम्न मंत्र उच्चारण कें साथ तिलक लगायें-
श्री अखण्डचन्दनं दिव्यं गन्धाड्यं सुमनोहरं।
विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम्।।
अक्षतान, पुष्पमालां धूपम् दीपम् समर्पयामि नमः।
पूजन के पश्चात् पूर्ण मनोभाव से संकल्प लेकर नृसिंह माला से निम्न मंत्र का 11 माला मंत्र जप सम्पन्न करें-
साधना समाप्ति के बाद नृसिंह शत्रुहन्ता शक्ति लॉकेट धारण कर विष्णु आरती व गुरू आरती सम्पन्न कर गुरूदेव से साधना सफलता की प्रार्थना करें। अगले दिन पीपल पूर्णिमा दिवस को समस्त सामग्री को लाल कपड़े में बांध कर किसी मन्दिर में अर्पित करें।
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