जीवन में कुछ भी असंभव नहीं। हम अपनी कमजोरी से, अपनी अज्ञानता से कार्य को कठिन या असम्भव बना लेते हैं। आप को जीवन में एक चीज की आवश्यकता है कार्य के प्रति विश्वास की यह एक ऐसी शक्ति है जो आपके हर कार्य को सरल व सम्भव बना देती है। हनुमान हर कार्य में जय श्रीराम की ध्वनि से गुंजरित करने के बाद ही कार्य प्र्रारम्भ करते थे। हनुमान को भी अपनी शक्ति का बोध उनके भगवान जय श्रीराम बोल कर हुआ था और वे अद्भुत कार्य कर सके क्योंकि उन्हें अपने भगवान की शक्ति का बोध था। ठीक उसी तरह साधक भी कार्य करते हुये निरन्तर अपने गुरू का स्मरण करते हुये जय गुरूदेव का गुंजरण करे तो अनेक कार्य सरलतम रूप से सम्पन्न हो जाते है।
आपके हृदय भाव में विश्वासरूपी गुरू, साधना, तप और तेज द्वारा शक्ति के साथ-साथ मार्ग दिखाता है और साधक इन शक्तियों को आत्मसात् कर सफलता के उच्च शिखर पर पहुँच ही जाता है। गुरू तत्व रूपी सागर में अपने आप को समाहित करने से ही जीवन में उच्चता प्राप्त की जा सकती है। वहाँ व्यक्तित्व शून्य होता है। इसलिये सांसारिक पथ कितने ही भिन्न हो परन्तु समर्पण का मार्ग तो एक ही होगा। हम गुरू या ईश्वर के नाम अलग-अलग रख सकते है, बस नाम का ही भेद होगा, यथार्थ भिन्न नहीं हो सकता । लेकिन उस यथार्थ की प्राप्ति समाहित होने में ही है।
संसार में सफलता प्राप्त करने की आकांक्षा के साथ अपनी योग्यता और कर्मशीलता में निरन्तर वृद्धि करना आवश्यक है यदि आपको अपने मन पर विश्वास है तो, जैसा होना चाहते है, उसके अनुरूप अपनी योग्यताये बनाने में प्रवृत्त हो जाएंगे तो विधाता को विवश होकर आपकी मन-मर्जी का भाग्य लिखना पडे़गा। जो आत्मनिर्भर हैं, आत्मविश्वासी तथा आत्मनिर्णायक हैं, जिनके पास अपनी बुद्धि और अपना विवेक है, उनका ही जीवन सफल एवं संतुष्ट होता है। स्वावलम्बी को किसी काम के लिये किसी दूसरे का मुँह नही ताकना पड़ता। वह अपने पथ के रोड़े खुद अपने हाथो से हटाता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है। यदि आप जीवन में सफलता, उन्नति, सम्पन्नता एवं समृद्धि चाहते हैं, तो कर्मशील बनना ही पड़ेगा। अपना जीवन पथ खुद अपने हाथों से निर्माण कीजिये सद्गुरू सफलता प्राप्ति में निरन्तर सुचेतना प्रदान करता है और हम इस सुचेतना को निरन्तर आत्मसात् करते है तो लक्ष्यों की प्राप्ति पूर्णता से सम्भव हो जाती है।
भक्त और साधक के मन, शरीर, आत्मा में असंख्य शक्तियों का गूढ़ भंडार छिपा हुआ होता है। लेकिन वह अपने आपको निर्बल व कमजोर साधारण सा प्राणी मानता हैं। जबकि वास्तविक स्वरूप में हमे स्वयं अपने ऊपर विश्वास नही है। ईश्वरीय शक्तियां, विपुल ताकतों, मानसिक, शारीरिक, आत्मिक सम्पदाओं का जो अंश दिव्य शक्तियों के रूप में है, वही आप में भी मौजूद है। संकल्प की मजबूती, धैर्य और साहस से आदमी जीतता है। सफलता का मूल मनुष्य की इच्छाशक्ति में सन्निहित रहता है। मानवीय शक्तियों में उसकी इच्छाशक्ति सबसे प्रबल और प्रमुख होती है।
दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो प्रयत्न और प्रयास से प्राप्त नहीं की जा सकती। प्रयत्न और प्रयास से ही वैज्ञानिकों ने भौतिक जीवन की अनेक सुख-सुविधाये हमें प्रदान की हैं। प्रयत्न और प्रयास से ही सामान्य व्यक्ति सन्त पुरूष अथवा देवतुल्य बन सकता है। प्रयत्न और प्रयास से ही पुरूष पुरूषोतम बनने की क्रिया प्रारम्भ हो पाती है। इसलिये प्रत्येक कार्य करने के लिये सम्यक प्रयास अनिवार्य है। प्रयत्न प्रयास से ही साधक साधनाओं में सिद्धि प्राप्त करता है।
एक चिकित्सक से तो उपचारित नुस्खा मिलता हैं। दो डॉक्टरों से परामर्श लिया जाता है, परन्तु तीन डॉक्टरों से तो हम अपनी मृत्यु स्वयं आमन्त्रित करते है, अतः अनेक-अनेक गुरूओं के चक्कर में पड़कर हम किसी तरह की उन्नति प्रगति या जीवन में चेतना का भाव नहीं आ पाएगा, न ही सही दिशा जान पायेंगे और हम भ्रमित होकर रह जायेंगे और भ्रम-भ्रम में ही पूरा जीवन समाप्त कर देते है। जीवन में कोई मर्म, चिंतन और उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पायेंगे। हमें ध्यान रखना चाहिये कि संकल्प में तो वह शक्ति होती है जो पत्थर में भी परमात्मा प्रकट कर लेता है, फिर आत्मा में सद्गुरू को प्रकट करना सामान्य सी बात है। संकल्प शक्ति से ही एकलव्य ने मिट्टी की मूर्ति से धनुष विद्या में पारांगतता प्राप्त कर सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर बन पाये। संकल्प शक्ति से ही राम ने बलशाली रावण को परास्त किया। संकल्प शक्ति से ही सभी कार्य पूर्ण सफल होते हैं। इसलिये किसी भी कार्य को करने में संकल्प की क्रिया को पूर्णता से आत्मसात् करना आवश्यक है।
जीवन के समस्त कार्यो को पूर्ण करने के लिये विश्वास ही माध्यम है, विश्वास के फलस्वरूप ही श्रद्धा उत्पन्न होती है और जहाँ ये दोनो ही प्रकाश और पूर्णिमा रूपी चन्द्रमा की शीतलता के रूप में साथ-साथ चलती है वहीं जीवन में निरन्तर वृद्धि होती है। इनमें से किसी एक भाव की न्यूनता होने पर जीवन ऊबड़-खाबड़ असंतुलित सा हो जाता है और इससे जीवन में अनेक-अनेक विषमताये उत्पन्न होती है और इन्ही स्थितियों के फलस्वरूप जीवन दुःख विषाद और बाधाओं से घिर जाता है और जीवन में प्रकाश के स्थान पर अंधकार रूपी अन्तहीन बाधाये बनी रहती है और चन्द्रमा की शीतलता के स्थान पर अमावस्या की कालिमा आ जाती है प्रमुख रूप से ऐसी स्थितियों का निर्माण कर्ता व्यक्ति स्वयं होता है।
जीवन यदि सडांध व दुर्गन्ध युक्त है तो निरन्तर गुरू द्वारा प्राप्त चेतना से ही विषमताओं को समाप्त किया जा सकता है। इसीलिये ईश्वर और सद्गुरू के प्रति श्रद्धा और विश्वास की निरन्तरता का भाव बना रहना आवश्यक है।
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