योग अब एक अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति भाव बन गया है। विश्व में कोई भी ऐसा प्रांत नहीं है, जहां के लोग इस प्राचीन विद्या में रूचि न रखते हों। किन्तु अभी इसके बारे में अनेक गलत तथा अस्पष्ट धारणायें विद्यमान हैं। कुछ लोग सोचते है कि यह उनके लिये नहीं है, जो सामान्य जीवन से सम्बन्धित है, बल्कि केवल उन लोगों के लिये है, जो आत्म साक्षात्कार तथा उच्च आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं।
संसार में हजारों नवयुवक मादक द्रव्यों के निरन्तर सेवन से अपनी आत्म शक्ति की चेतना को ध्वस्त कर रहें है। दवा व उपचार के आधुनिक साधन उपलब्ध होने के बावजूद भी अक्सर यह देखने को मिलता है कि वे पुनर्जीवन, योग तथा समस्यायें, जो सभ्यता के साथ तनाव, शिराव्याधि तथा स्नाविक विघटन के रूप में मनुष्य जीवन में व्याप्त हो गयी हैं, योगाभ्यास द्वारा इन्हें दूर किया जा सकता है। अनेक पागल-खानों, अपराधियों, बिगड़े बच्चों तथा मानसिक व्याधियों से पीडि़त लोगों के सम्पर्क में आने से यह निश्चित है कि यदि नियमित तथा व्यवस्थित रूप से योगाभ्यास किया जाये, तो असाध्य रोगों का निदान पूर्णता से सम्भव हैं।
योग क्या चीज है? संक्षेप में योग वह विद्या है, जिसके द्वारा मनुष्य के भीतर निहित शक्तिशाली चेतना का विशेष शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, मनोदैहिक तथा आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा अनावरण होता है। योग का शाब्दिक योग मिलन तथा मिश्रण की वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति की निम्न चेतना का उसकी उच्च व शक्तिशाली चेतना से संयोग होता है। जैसे नदी समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है, उसी प्रकार मनुष्य निम्न, सीमित तथा अल्प चेतना, मस्तिष्क तथा सजगता को योगाभ्यास द्वारा उस अनन्त असीम चेतना में मिलाकर अपने रोग, शोक तथा भय से छुटकारा पा लेता है तथा सुखी शांत एवं ज्ञानलोक की चेतना से युक्त हो सकता है। योग के सभी अभ्यास मनुष्य के मन तथा शरीर को विकसित कर उस दशा में पहुँचा देते हैं, जिससे ध्यान, एकाग्रता तथा चिंतन द्वारा मानवीय सत्ता का, सर्वोच्च सत्ता से सम्पूर्ण एकीकरण एक वास्तविकता बन जाती है। साथ, ही आसन-प्राणयाम से केवल शारीरिक लाभ ही नहीं होता, अपितु मन, मस्तिष्क तथा मानसिक रोगों से भी निवृत्ति प्राप्त होती है। मानसिक चिंता, शिराव्याधि, अनिद्रा का सफल उपचार आसनों द्वारा होता है। इस प्रकार आसन न केवल शारीरिक दोषों तथा व्याधियों को दूर करते है। अपितु मस्तिष्क से जुड़े रोगों के लिये भी लाभकारी है।
प्रजापति ब्रह्मा ने योग का सर्वप्रथम उपदेश हिरण्यगर्भ को दिया था। ब्रह्मा सृजनात्मक तथा ब्रह्माण्ड में सृजन शक्ति के प्रतीक है। प्रत्येक व्यक्ति में वह सृजन शक्ति विद्यमान है। इसी ब्रह्माण्ड सृजन शक्ति को वेदों में ब्रह्मा नाम दिया गया है जिसने लोगों को योग का प्रथम उपदेश दिया था।
पतंजलि योग दर्शन
योग के ये आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इनका सतत् अभ्यास करने से साधक शनैः शनै अंतः करण को निरूद्ध करता हुआ आधिभौतिकता को हटाकर अंतः वाहकता को पा जाने पर कैवल्य, पूर्णता से युक्त होता है। यही योगाभ्यास करने का परमोद्देश्य है। महर्षि पतंजलि द्वारा प्रदत्त योग सूत्र सर्वाधिक प्राचीन हैं, पतंजलि से पूर्व हिरण्यगर्भयोग सुप्रचलित था। ‘विष्णु पुराण’ के अनुसार हिरण्यगर्भ ने अर्थात् ब्रह्मा ने स्वाध्याय शील ऋषियों को योग विद्या का उपदेश दिया। योग विद्या के प्रथम प्रचारक हिरण्यगर्भ ही थे, वे चाहे ब्रह्मा हों, कपिल हों या स्वयं नारायण हों, उस काल में योग विद्या ग्रंथ लिखित नहीं था। गुरू शिष्य परम्परा द्वारा ही उसका ग्रहण, धारण एवं पठन-पाठन होता था। मानव समाज में योग विद्या का प्रवर्तन महर्षि कपिल द्वारा ही हुआ। बाद में अनेकानेक योग विद्या पर ग्रंथों का संवाद होने पर योग विद्या अत्यंत विस्तृत और जटिल हो गई। तब इस विद्या के संरक्षण हेतु पतंजलि ने इसे योग सूत्रें के रूप में ग्रंथ बद्ध किया।
महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग
योग के मतानुसार तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती है, जब तक मनुष्य का चित्त विकारों से परिपूर्ण है। अतः योग-दर्शन में चित्त की स्थिरता को प्राप्त करने के लिये तथा चित्तवृति का निरोध करने के लिये योग मार्ग की व्याख्या हुई है।
योगमार्ग की आठ सीढि़यां हैं
यम– यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य और आभ्यन्तर इन्द्रियों के संयम की क्रिया को ‘यम’ कहा जाता है। यम पांच प्रकार के होते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अर्थात् चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। योग दर्शन में मन को सबल बनाने के लिये इन पांच प्रकार के यम का पालन करना आवश्यक समझा गया है इनके पालन से मनुष्य बुरी वृत्तियों से निवृत्त हो जाता है।
नियम– नियम का अर्थ है सदाचार का प्राश्रय देना। नियम के सभी पांच अंग है-शौच (शुद्धता), संतोष, तपस्, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान (अर्थात् ईश्वर के प्रति हृदय से अनुग्रह)। यम और नियम में अंतर यह है कि यम निषेधात्मक गुण है और नियम भावात्मक सद्गुण है।
आसन– आसन का अर्थ है- ‘स्थिर सुखासनम्’ अर्थात् स्थिर भाव से सुख पूर्वक बैठने का नाम आसन है। आसन की अवस्था में शरीर का हिलना और मन की चंचलता का लोप हो जाता है, तन और मन दोनों को ही स्थिर रखना होता है। जो कि योगाभ्यास के लिये आवश्यक है। योग द्वारा शरीर स्वस्थ भी रहता है।
प्राणायाम– इसमें ‘श्वास प्रश्वास योगतिविच्छेदः प्राणायामः’ अर्थात् श्वास प्रश्वास दोनों की गति को संयत करना प्राणायाम कहलाता है। जब तक व्यक्ति की श्वास असंयत चलती रहती है तब तक उसका मन चंचल रहता है। श्वास वायु के स्थगित होने से चित्त में स्थिरता का उदय होता है। कुंभक, रेचक, पूरक आदि इसके अंग हैं।
प्रत्याहार– प्रत्याहार का अर्थ है- अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखना, उन्हें रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द के लोभ मोह में न फंसने देना। इन्द्रियां स्वभावतः अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं, जबकि योगाभ्यासी के ध्यान के लिये इन्द्रियों को वशीवर्ती करना अनिवार्य होता है। अनवरत अभ्यास, दृढ़ संकल्प और इन्द्रिय निग्रह के द्वारा ही प्रत्याहार सम्भव है।
धारणा– धारणा का अर्थ है-चित्त को अभीष्ट विषय पर जमाना। धारणा आंतरिक अनुशासन की पहली सीढ़ी है। धारणा में चित्त को किसी एक वस्तु पर केन्द्रित कर देना होता है, वह वस्तु बाह्य या आंतरिक दोनों हो सकती है, जैसे कोई देव प्रतिमा, गुरू या इष्ट का बिम्ब, स्वरूप आदि। इस अवस्था के बाद साधक ध्यान क्रिया की ओर अग्रसर होता है।
ध्यान– ध्यान का अर्थ है-अभीष्ट विषय पर निरन्तर अनुशीलन। ध्यान की वस्तु का ज्ञान अविच्छिन्न रूप से होता है, जिसके फलस्वरूप विषय का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। मन की एकाग्रता के उपरांत ईश्वर प्राप्ति अथवा बोध ज्ञान के लिये ध्यान किया जाता है।
समाधि– इस अवस्था में ध्यान की वस्तु अर्थात् ध्येय की ही चेतना रहती है। जिसमें मन अपने ध्येय-विषय में पूर्णतः लीन हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसे अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। ध्यान की अवस्था में वस्तु की ध्यान क्रिया और आत्म चेतना रहती है, परन्तु समाधि में यह चेतना भी लुप्त हो जाती है। इस अवस्था की प्राप्ति हो जाने पर ‘चित वृति का निरोध’ हो जाता है। जो कि पतंजली योग दर्शन का उद्देश्य है। यही आत्मा का मोक्ष मार्ग भी है।
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