वेदों में गृहस्थ आश्रम को तपोभूमि कहकर उसकी महत्ता स्वीकार की गयी है। धर्म की दृष्टि से गृहस्थ आश्रम चारों आश्रमों का मुख्य केन्द्र है। वेदों में कहा गया है-
अर्थात् गृहस्थी ही वास्तविक तपस्वी है, चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही सबका सिरमौर है। इस आश्रम में दो पवित्र आत्माओं का परस्पर सामंजस्य होता है तथा वे जीवन में महायुद्ध में प्रविष्ट होते है। उन्हें पग-पग पर उत्तरदायित्व, कठिनाईयां सांसारिक संघर्ष आदि से लड़ते हुये एक-दूसरे को सहयोग करते हुये, तपस्या और साधना को धारण करते हुये पूर्णता प्राप्त करते है।
धर्म अनुसार गृहस्थ जीवन दो जीवात्माओं के पारस्परिक मिलन द्वारा शुद्ध आत्मिक सुख, अपनत्व प्रेम है। वात्सल्य और त्याग की भूमि है। विवाह से मनुष्य समाज का एक अंग बनता है, सामाजिक अपूर्णता से पूर्णता प्राप्त करता है। निर्बलता से सम्बलता की ओर अग्रसर होता है। उसे नये सम्बन्ध, दायित्व और आनंद प्राप्त होते है। भारतीय ऋषियों ने गृहस्थ आश्रम को अनेक व्रत, नियम, अनुष्ठान, पूजा, साधना, दान, सेवा इत्यादि पुण्य कर्तव्यों के गुणों से विभूषित कर उसकी महिमा को सहस्त्र गुणा बढ़ा दिया है।
यह आश्रम मनुष्य जीवन की सर्वोच्चता है, यदि इस आश्रम में अपने कर्तव्यों का भली-भांति पालन किया जाये तो जीवन सर्व आनन्द से युक्त हो जाता है। पति-पत्नी इसके मूल सैद्धांतिक विचार को अपनाकर जीवन को आनन्दमय स्वरूप में निर्मित कर सकते है, पूर्णता प्राप्त करने का सबसे सुगम व सरल मार्ग है गृहस्थ आश्रम। साथ ही नियम अनुसार यदि इस आश्रम का पालन किया जाये तो पथिक के पथ भ्रष्ट होने की संभावना कम होती है, यदि वह सुचारू रूप से इसकी गंभीरता को समझे तो, परन्तु आज के समय में सामाजिक दृश्य इसके विपरीत ही दिखाई पड़ते है।
विवाह संस्कार अत्यन्त आनन्दमय, भावमय, गृहस्थ सुखमय तथा जीवन को हर स्वरूप में पूर्णता देने का भाव है। विवाह के पूर्व कितना उत्साह, उमंग तथा उल्लास रहता है। अग्नि को साक्षी मानकर वर-वधू संकल्प लेते है कि विवाह के पवित्र संस्कार को जीवन भर मर्यादा पूर्ण वहन करेंगे। वैदिक संस्कृति के अनुसार स्त्री-पुरूष दोनों ही अपने-अपने धर्म अर्थात् व्रत पालन एवं कर्तव्य निष्ठा के लिये ही पति-पत्नी रूप में प्रेम की डोर से आबद्ध होते हैं। विवाह का लक्ष्य तो दो हृदयों का मधुर मिलन है। दो आत्माओं का शाश्वत सम्बन्ध हैं।
इस जीवन की गति अत्यन्त ही विचित्र है, व्यक्ति चाहे पुरूष हो अथवा स्त्री, सुखों की तलाश में निरन्तर भटकता ही रहता है। वह अपने छोटे से जीवन में सभी सुखों को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहता है। प्रथमतः भौतिक पूर्णता प्राप्त करना चाहता है व उसके पश्चात् आध्यात्म को अपने जीवन में आत्मसात् करता है, तो वह पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त करने और अनेक गृहस्थ बाधाओं से स्वयं को सुरक्षित कर सकते है।
जीवन यात्र में महत्वपूर्ण पड़ाव विवाह होता है, इस विवाह प्रक्रिया के कारण व्यक्ति के जीवन में एक विशेष परिवर्तन आता है, जो कि उसके जीवन की दिशा ही मोड़ देता है, इस जीवन यात्र में यदि योग्य, भावनानुकूल जीवन साथी मिल जाता है, तो जीवन में रस, आनन्द आता है, जीवन साथी मिलने से जीवन की अनेक कष्ट, पीड़ाये, बाधायें निश्चय ही समाप्त हो जाती है।
यह वैवाहिक जीवन यात्र में अनेक बाधायें,मन-मुटाव, मतभेद, अनुकूल जीवन साथी का ना मिलना, विवाह में विलम्ब, पत्नी का कुमार्गी होना, पत्नी का सहयोगी ना होना अनेक ऐसे कारण है, जिससे गृहस्थ जीवन अभिशाप से कम नहीं होता। विवाह दो विभिन्न विचार धाराओं वाले, विभिन्न वातावरण में पले बढ़े, पुरूष-स्त्री के गृहस्थ जीवन में हर तरह से सामंजस्य स्थापित कर सुख और आनन्द के साथ पूर्णता प्राप्त करना है।
वास्तव में सुखी गृहस्थी की आधारशिला है-प्रेम और प्यार। प्यार का अर्थ क्या है? साथी के दोषों गलतियों को क्षमा करते रहना और अपनी भूलों के लिये क्षमा मांगते रहना। सदा मधुर-भाषी रहना, जहां प्रेम होगा, वहां सहनशीलता, क्षमा के गुण स्वतः प्रकट हो जाते है। ये गुण टूटे परिवार रूपी सूखे पेड़ो में भी हरियाली लाने में सक्षम हैं।
याद रखो, परस्पर दोषों को देखना, कटु आलोचनायें करना दाम्पत्य जीवन के लिये जहर है। एक-दूसरे पर विश्वास करो, दोनों अपने अहंकार को मारो, एक-दूसरे की योग्यता को सम्मान दो, सहनशील बनो और इसे बढ़ाते रहो, ये स्वभाव तुम्हारे गृहस्थ जीवन को स्वर्ग बना देंगे और तुम गृहस्थ जीवन का पूर्ण सुख भोग सकोगे, अपने जीवन को संतुष्ट कर सकोगे।
ऐसे जीवन को ही पूर्ण गृहस्थी कहा गया है, जहां त्याग, प्रेम और अपनत्व की भावना विद्यमान हो। परन्तु आज की अधिकांश स्थितियों में असमानता दिखाई पड़ती है, पति-पत्नि एक-दूसरे से श्रेष्ठ बनने की होड़ में अपने जीवन को नरक युक्त बना रहें है, संदेह की प्रवृति के कारण दोनों के मध्य अविश्वास की गहरी खाई तैयार हो जाती है। जो धीरे-धीरे गृहस्थ जीवन को खोखला बना देती है और नीरसता, ईर्ष्या, कलह-क्लेश आदि का जीवन में आगमन हो जाता है। ऐसी स्थितियों में अपने सम्बन्धों को दोनों केवल मजबूरीवश घसीटते रहते है, उनमें पति-पत्नि के आत्मीय लगाव का अभाव होता है। जिसका प्रभाव सामाजिक तथा पारिवारिक दोनों रूपो में देखने को मिलता है। आपसी ताल-मेल के अभाव में संतान की भी दुर्गति होती है।
विवाह जीवन में सुनिर्माण की नींव होता है। भावी जीवन में सुख निर्माण के लिये इस संस्कार रूपी ज्ञान को चेतना रूप में प्राप्त करना आवश्यक है। जिससे पति-पत्नी आजीवन मित्रवत, एक-दूसरे के सहयोगी बने रहें, सुख-दुःख में साथ चलते रहे।
अपने गृहस्थ जीवन को आदर्श रूप में स्थापित कर आनन्द, हर्ष, प्रेम, करूणा के साथ-साथ गृहस्थ व साधनात्मक चेतना से निरन्तर क्रियाशील है। परम पूज्य सद्गुरूदेव व वन्दनीय माता जी सभी शिष्यों के लिये प्रेरणा स्वरूप हैं। शिष्य सदैव अपने गुरू के आदर्शों पर चलकर उनके ही स्वरूप की चेतना आत्मसात करने की क्रिया करता है। अपने गुरू की भांति सुन्दर श्रेष्ठ संस्कारों से वैवाहिक जीवन को आबद्ध करने की क्रिया 07 जुलाई को गृहस्थ अखण्ड सुहाग सौभाग्य वृद्धि दीक्षा की चेतना से आप्लावित हो सकेंगे, जिससे पति-पत्नी का आत्मिक और मानसिक स्वरूप में वैदिक धर्म अनुसार गतिशील कर पूर्ण आत्मिक सुख प्राप्त कर सकेंगे।
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