जीवन में शक्ति तत्व के महत्व को कोई भी उपेक्षित नहीं कर सकता। दुर्बल व्यक्ति का जीवन पग-पग पर अपमानित होता है। उसे इस संसार और समाज में तो कोई श्रेयता मिलती नहीं, उसके लिये आत्मज्ञान का पथ भी अवरूद होता है। ‘नायम् आत्मा बलहीने लभ्यः’ अर्थात दुर्बल व्यक्ति को आत्मा या आध्यात्म की उपलब्धि नही होती, ऐसा हमारे उपनिषदों का स्पष्ट कथन है। शक्ति तत्व जीवन में दान से नहीं मिल सकता, उसे भक्ति से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता है। उसे तो अपने दृढ़ संकल्प से, अपने पौरूष से अर्जित करना पड़ता है।
शक्ति का विकास विन्यास समझ कर उसे आत्मसात करना पड़ता है और शक्ति से सम्बन्धित समस्त साधनायें वास्तव में समस्या विशेष अथवा मनोकामना विशेष से सम्बन्धित एक विन्यास ही होती हैं। उनसे सम्बन्धित मंत्र, अक्षरों के एक समूह भर न होकर एक प्रकार के गूढ़ संकेत होते हैं।
जीवन की कोई समस्या छोटी नहीं कही जा सकती और न किसी मनोकामना को हेय कहा जा सकता है। ये समाज की बनायी परिभाषायें हैं और जीवन किसी परिभाषा में बाध्य होने का नाम नहीं। ‘विद्या समस्तास्तव देवि भेदाः’ अर्थात समस्त साधनायें विशेषकर शक्ति साधनायें उसी आदि शक्ति से उद्भूत हैं, जिन्हें हम माँ जगत् जननी भगवती जगदम्बा कह कर अभिनन्दन करते हैं।
जितने भी साधक हुये है, उन्होंने किसी न किसी रूप में दुर्गा की साधना अवश्य सम्पन्न की है और उसके बाद ही वे सिद्ध पुरूष बन सके, उनमें तेजस्विता आ सकी। ‘रामकृष्णदेव परमहंस’ जिन्होंने मां काली को स्वयं में आत्मसात कर लिया था, वे काली शक्तिमय बन गये।
तंत्र शास्त्र तो सम्पूर्ण रूप से शक्ति पर आधारित है, श्रेष्ठ साधनायें, उपलब्धियां उस पराशक्ति के द्वारा ही तो प्राप्त होनी सम्भव है। उच्चकोटि के साधनात्मक ग्रंथों का निष्कर्ष यही है, कि विभिन्न साधनाओं और यौगिक क्रियाओं के माध्यम से अपनी शक्ति को जाग्रत कर, जीवन की श्रेष्ठता और अद्वितीयता प्राप्त की जा सकती है।
शंकराचार्य के जीवन की एक घटना-अपने भ्रमण के दौरान शंकराचार्य एक बार काशी पहुँचे। वहां वे किसी रोग से ग्रस्त हो गये, जिसके कारण उनमें अत्यधिक कमजोरी आ गई। उस समय तक वे शक्ति साधनाओं से विमुख थे। उसी अवस्था में वे गंगा तट पर गये, जहां एक स्त्री ने उनसे टोकरी उठाने हेतु मदद मांगी, तो शंकराचार्य ने कहा- हे मां! मेरे अन्दर इस क्षण सामर्थ्य नहीं है, कि मैं आपकी सहायता कर सकूं।
प्रत्युत्तर से उसी स्त्री ने कहा- कि सामर्थ्य कहां से होगा, शक्ति साधना करोगे, तभी तो शक्ति आ पायेगी। इतना कहकर वह अदृश्य हो गई। शंकराचार्य इस घटना से स्तम्भित रह गये, वे विचार करने लगे, कि उनमें शायद यही न्यूनता रह गई होगी, जिस कारण वे पूर्णता का अनुभव नहीं कर पा रहे थे। इस घटना के पश्चात् शंकराचार्य ने शक्ति साधनायें सम्पन्न की और फिर सौन्दर्यलहरी तथा शक्ति उपासना हेतु श्रेष्ठ ग्रंथों में रचना की।
इससे स्पष्ट होता है, कि बिना शक्ति साधना किये कोई भी साधक पूर्णता का अनुभव कर ही नहीं सकता है। रामकृष्ण परमहंस ने जीवन भर अपनी पत्नी को शक्ति का स्वरूप ही माना। तांत्रिक ग्रंथों में शक्ति उपासना हेतु कुछ विशेष क्षणों का वर्णन प्राप्त होता है, जिनमें इस प्रकार की साधनायें सम्पन्न करने पर साधक को शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है।
ऐसे क्षणों में नवरात्रि के दिनों का अत्यन्त महत्त्व है, जब सम्पूर्ण वातावरण भगवती जगदम्बा की चैतन्यता से आप्लावित होता है और वे प्रत्येक साधक पर सहज ही अपनी कृपा दृष्टि करने को आतुर होती हैं।
ज्ञानी साधक, योगी, यति निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं, कि प्रत्येक श्रेष्ठ अवसर पर वह भगवती दुर्गा का साक्षात्कार करें परन्तु जो साधना के आयामों से अपरिचित हैं, साधना के गूढ़ रहस्यों से अनभिज्ञ हैं, उनके लिये तो गुरू का सानिध्य आवश्यक हो ही जाता है। गुरू का सानिध्य प्राप्त होने के उपरान्त ही मां भगवती दुर्गा के साक्षात्कार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो पाती है।
गुरू ही एक मात्र कड़ी है, जो साधक को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने का हेतु बनती है। साधक के लिये भी यह अनिवार्य है, कि वह गुरू पर विश्वास करे, निरन्तर सम्पर्क बनायें रखे और उस ऊर्जा को प्राप्त कर सके, जिसके माध्यम से सफलता उसके कदम चूमे।
जिस प्रकार माँ अपने शिशु की प्रत्येक आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये तत्पर रहती है, उसी प्रकार भगवती दुर्गा अपने साधक की प्रत्येक कामना को पूर्ण करती ही है। जिससे उसे जगत जननी की कृपा प्राप्त हो गई, उसे फिर किस बात की चिन्ता।
ऐश्वर्यमयी, परमशक्ति स्वरूपा भगवती के आश्रय में जब साधक प्रस्तुत हो जाता है, तो फिर वह श्रीहीन, शक्तिहीन रह ही नहीं सकता। उसको धन-धान्य, समृद्धि, यश, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य, बल और तेजस्विता आदि सहज ही प्राप्त हो जाता है।
दुर्गा का यह स्वरूप विशेष प्रबल तथा ज्वलनशील दाहक माना गया है, जो साधक राज्य बाधा, शत्रु-बाधा, मुकदमे इत्यादि से विशेष दुःखी हो, चिन्ताओं का भार बढ़ता ही जा रहा हो, तो यह साधना अवश्य करनी चाहिये। देवी दुर्गा कल्याणी स्वरूप है, जिनके तीव्र प्रभाव से दुष्टात्माओं का नाश हो जाता है और प्रबल से प्रबल शत्रु भी वश में होकर दास स्वरूप बन जाता है।
साधना विधि
पूर्ण तांत्रोक्त साधना है और नवरात्रि में ही किसी एक दिन सम्पन्न की जाती है, इसके लिये विशेष सामग्री तथा विशेष अनुष्ठान की आवश्यकता रहती है, सामग्री सहित सभी व्यवस्था पहले से कर लेनी चाहिये, साधना के बीच में उठने का विधान वर्जित है।
साधना सायंकाल के पश्चात् स्नान कर शुद्ध लाल वस्त्र धारण करें, अपने पूजा स्थान में अथवा एकान्त कमरे में यह साधना सम्पन्न कर सकते हैं, अपने सामने देवी का विकराल स्वरूप का चित्र स्थापित कर सिन्दूर से चित्र पर तिलक कर स्वयं भी तिलक लगायें और आसन ग्रहण करें।
अपने सामने राज राजेश्वरी यंत्र शुद्ध रूप से धो कर सिन्दूर लगा कर काले तिलों की ढ़ेरी पर स्थापित करें, एक ओर एक कलश स्थापित कर उस पर नारियल रखे, सर्व प्रथम कलश पूजन सम्पन्न कर भैरव का ध्यान कर मौली बांध कर एक सुपारी भैरव स्वरूप स्थापित करें, अब एक ओर धूप तथा दूसरी ओर दीपक जला कर एक कटोरे में देवी के सामने खीर का प्रसाद रखें, अब इस साधना में साधक वीर मुद्रा में बैठ कर पूजन कार्य प्रारम्भ करें, साधक का मुंह दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिये, सर्वप्रथम देवी से प्रार्थना कर पूजन की सफलता प्राप्ति का ध्यान करें और अपने सामने यंत्र पर तांत्रेक्त फल स्थापित करें।
ध्यान मंत्र को बोलते हुये काले तिल, सरसों सिन्दूर मिलाकर तांत्रेक्त फल पर चढ़ायें, अपने ललाट पर चंदन से त्रिपुण्ड तिलक बनायें।
दुर्गति नाशिनी माला से 11 माला मंत्र जप कर पूजन कार्य सम्पन्न करें तथा यह मंत्र जप मौन रूप से नहीं अपितु जोर-जोर से बोल कर सम्पन्न करना चाहिये। जब साधना पूर्ण हो जाये तो प्रार्थना और भाव व्यक्त कर आरती सम्पन्न करें। सामने रखे हुये खीर के प्रसाद को ग्रहण करना चाहिये। तांत्रोक्त फल, सरसों तथा तिल को दूसरे दिन किसी एकान्त स्थान पर जाकर गाड़ देना चाहिये तथा यंत्र को पूजन स्थान में स्थापित रहने दें।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में निरन्तर प्रयास कर उन्नति और प्रगति की ओर अग्रसर होने की तीव्र इच्छा से अपने जीवन पथ पर गतिशील रहता है परन्तु अनेक कारणों से वह अपने जीवन में निरन्तर असफलता, कष्ट-पीड़ा, बाधाओं से ग्रस्त रहता है जिसके कारण मानसिक और शारीरिक परेशानियों से त्रस्त होकर वह अपने जीवन का अधिकांश समय परेशानियों बाधाओं से ही बिताता है और अपने जीवन में सुस्थिति हेतु वह नित्य नूतन प्रयत्न में गतिशील रहता है। यदि साधक अपने जीवन में आ रही निरन्तर कष्ट-बाधाओं को पूर्णता से निराकरण हेतु दैविय शक्ति को आत्मसात कर जीवन में गतिशील हो सके तो उसके जीवन में निश्चय रूप से श्रेष्ठता और उज्जवलता प्राप्त करने हेतु राज-राजेश्वरी दुर्गा शक्ति दीक्षा अवश्य ही ग्रहण करें।
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