मगर उन्होंने सबसे पहले जिस मंत्र की रचना की या संसार में सबसे पहले जिस मंत्र की रचना हुई वह गुरू मंत्र था, गुरू शरीर नहीं होता, अगर आप मेरे शरीर को गुरू मानते हैं तो गलत हैं आप। यदि मुझमें ज्ञान ही नहीं है तो फिर मैं आपका गुरू हूँ ही नहीं।
यदि आप एक-एक पैसा खर्च करते हैं तो मेरे हृदय में भी उस एक-एक पैसे की वैल्यू है। मैं उतने ही ढंग से आपको वह चीज देना चाहता हूँ और आप उतनी ही पूर्णता के साथ उसे प्राप्त करें तब तो मेरा कोई अर्थ है। अन्यथा ऐसा लगता है कि आप मुझे दे रहें हैं और मैं भी फॉरमैलिटी निभा रहा हूँ। ऐसा मैं नहीं करना चाहता। फॉरमैलिटी बहुत हो चुकी। फूलों के हार बहुत पहन चुका, आपकी जय जयकार बहुत सुन चुका, तांगे, बग्गी गाड़ी में बहुत चढ़ चुका, हवाई जहाज में यात्र कर चुका, विदेश में यात्र कर चुका। यह सब बहुत हो चुका। बेटे, पोते, पोतियां, गृहस्थ और संन्यास जीवन सब देख चुका। संन्यास क्या होता है वह भी उच्च कोटि के साथ देख चुका। अब बस एक बात रह गई है कि जितने शिष्य हैं उन सबको अपने आप में सूर्य बनाये अद्वितीय बनाये। अब केवल इतनी इच्छा रह गई है और कुछ इच्छा ही नहीं रह गई है।
सम्राट होते होंगे, मैंने देखा नहीं सम्राट कैसे होते हैं, मगर सम्राटों के सिर भी गुरू के चरणों में झुकते हैं, उनके मुकुट भी गुरू के चरणों में पड़ते हैं यदि वह सही अर्थों में गुरू है, ज्ञान, चेतना युक्त है। हम अपने आप में इस शरीर को उतना उत्थानयुक्त बना दें, उतना चेतना युक्त बना दें, उस मूल उत्सव को जान लें कि हम क्या हैं? और जब हम अपना पिछला जीवन देखना शुरू कर देंगे तो आपको इतने रहस्य स्पष्ट होंगे कि आपको आश्चर्य होगा कि क्या मेरे जीवन में ऐसा था, क्या मैं इतनी ऊँची साधनायें कर चुका था, फिर मैं इतना गिर कैसे गया? क्या हो गया मेरे साथ? यह कैसे अटैचमेंट था गुरू के साथ? इतना अटैचमेंट था कि मैं गुरू के बिना एक मिनट भी नहीं रह सकता था, अब मैं दो-दो महीने कैसे निकाल देता हूँ। जब आपको अपना पिछला जीवन देखने की क्रिया प्रारंभ होने लगेगी, तब आप एक क्षण भी अलग नहीं रह पायेंगे। तब एहसास होगा की हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं, बहुत बड़े समय से वंचित हो रहे हैं। क्षण एक-एक करके बीतते जा रहें हैं और जो क्षण बीतते जा रहे हैं वे क्षण लौट कर नहीं आ सकते। जो समय बीत गया, बीत गया। बीत गया तो समय निकल गया, इस शरीर में भी एक सलवट और बढ़ गई कल एक और सलवट बढ़ जायेगी।
आपने देखा होगा की सर्प दो साल के बाद अपने ऊपर के खाल को पूरा का पूरा उतार देता है। आपको पता है या नहीं है पर अंदर से बिल्कुल नवीन सर्प बहार निकल जाता है। वही सर्प और उसके ऊपर की जो झुर्रीदार चमड़ी होती है वह पूरी की पूरी उतार देता है। यह क्या है? यह कौन विद्या सी विद्या है जो सर्प के पास है और हमारे पास नहीं है। सर्प ऐसा कैसे कर लेता है? और अगर सर्प ऐसा कर सकता है, कायाकल्प कर सकता है, अपनी पूरी केंचुली को, झुर्रीदार त्वचा को, अपने पूरे बुढ़ापे को निकाल कर एक तरफ रख देता हैं, पूरा नवीन ताजगी युक्त वापस शरीर उसका बन सकता है तो हमारा क्यों नहीं बन सकता। इसीलिये नहीं बन सकता क्योंकि केवल उस वासुकी के पास वह ज्ञान रह गया है और हमने उसे समझा नहीं हमने बस उसको विषैला समझ लिया, जहरीला समझ लिया। हमने उसके ज्ञान को नहीं समझा। आपने मुझे फूलों के हार पहना दिये, जय जयकार कर दिया मगर आप मेरा ज्ञान नहीं समझ पाये। जब ज्ञान नहीं ग्रहण कर पायेंगे तो फिर एक बहुत बड़ा अभाव आपके जीवन में भी रहेगा, मेरे जीवन में भी रहेगा कि यह ज्ञान, यह चेतना आप प्राप्त नहीं कर पाये। यह ज्ञान यह चेतना या तो पुस्तकों में मिल पायेगी या प्रमाणिक होगी और मैं ऐसा कोई ग्रंथ लिखना चाहता भी नहीं कि मेरे मरने के पांच सौ साल बाद भी कोई कहे कि इस में गलती है। पांच सौ साल बाद भी लोग कहे कि यह तो बिल्कुल नवीन और प्रामाणिक है एक चेतना युक्त है। वैसा ग्रंथ मैं आपको बनाना चाहता हूँ सजीव ग्रंथ बनाना चाहता हूँ, जिंदा ग्रंथ बनाना चाहता हूँ।
आप अपने आपको कायर या बुजदिल समझते हैं आप अपने बारे में समझते हैं कि आप कुछ नहीं कर सकते। मैं प्रवचन बोल कर भी जाऊँगा तो मुझे मालूम है कि आप सब कुछ सुनने के बाद भी वहीं खड़े रह जायेंगे कि मैं क्या कर सकता हूँ इस उम्र में भी क्या, अब करने से लाभ भी क्या, अब मैं तो बुढ़ा हो गया मेरा तो शरीर कमजोर है, अब मैं कुछ नहीं कर सकता। यह आपके जीवन की हीन भावना बोल रही है आप नहीं बोल रहें हैं। आपके ऊपर जो समाज ने प्रहार किये, वे बोल रहें हैं, आप नहीं बोल रहें हैं। आपके जीवन में जो दुःख है, उन दुःखों ने आपको इतना बोझिल बना दिया है वह बोल रहा है आप नहीं बोल रहें हैं। वृद्धावस्था आ ही नहीं सकती, संभव नहीं है। बुढ़ापा तो एक शब्द है, नाम है। हमने एक नाम ले लिया कि बुढ़ापा है। बुढ़ापा शब्द क्या चीज है?
मैंने तो नब्बे साल के लोगों को भी मुस्कुराते हुये, खिलखिलाते हुये और ज्ञान प्राप्त करते हुये देखा है। जब इंग्लैंड पर जर्मनी ने बमबारी की और सारा ध्वस्त कर दिया तो 82 साल के चर्चिल ने पूरे इंग्लैंड को संभाला, प्रधान मंत्री बन करके वापस अपने देश को खड़ा कर दिया, ताकतवान बनाकर के। 82 साल की उम्र में! आप पता नहीं 82 साल की उम्र ले भी पायेंगे या नहीं ले पायेंगे। तो क्या गुरूजी हम 82 साल की उम्र ले ही नहीं पायेंगे? क्या चर्चिल ही ले पायेगा? यदि आपके पास वह विद्या हो। यदि आपके पास ज्ञान हो कि मैं कायाकल्प कैसे करूं तो वह चीज आपको प्राप्त हो सकेगी। आपके पास एक भी विद्या रह पायेगी तो आने वाली हजारों पीढि़यां आपसे शिक्षा ग्रहण कर पायेंगी, आप सही अर्थों में ग्रंथ बन पायेंगे, सही अर्थों में सबसे ज्यादा प्रिय मेरे बन पायेंगे। तब मैं गर्व करूंगा कि आप मेरे शिष्य हैं।
मैं तो आपको चैलेंज देता हूँ मैं तो दो टूक साफ करता हूँ। मुझसे भी बड़े विद्वान होंगे, मगर आप बाजार से जाकर कोई ज्ञान का ग्रंथ लाइये। आप लाइये और मैं बीस किताबें और रख देता हूँ, देखिये। इन सबमें सब चीजें ज्यों की त्यों हैं, कुछ लाइनें, इधर कर दी और कुछ लाइनें उधर कर दी है और पोथी भर कर आपके सामने रख दी है। वही चीज हर एक में है चाहे मंत्र महोदधि लाइये, चाहे मंत्र महार्णव लाइये, चाहे मंत्र सिंधु लाइये, मंत्र चिंतन लाइये, मंत्र घटक लाइये। वे ग्रंथ तो मंत्रें पर है पर सबमें एक ही चीज हैं। एक ही बात को रिपीट कर दिया है, उनके छः संस्करण बना दिये हैं।
क्या नवीनता है उनमें? क्या किसी ने कहा है कि सर्प के पास ज्ञान है और हमारे पास क्यों नहीं? किसी ने इस पर चिंतन किया? और आप कह रहें हैं कि आप बुजदिल हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि आप किस कोने से बुजदिल हैं जिससे कि मैं उस कोने को निकाल दूं कि इस कोने से हम कायर हैं, इस कोने से कमजोर हैं तो उस हिस्से को काट दूं और वापस नये सिरे से आपको तैयार कर दूं। आप हैं नहीं कमजोर, आपने मान लिया है और मानना इसलिये पड़ा है क्योंकि आपके जीवन में वास्तव में बाधाये, अड़चनें, कठिनाइयां आई हैं। मगर ये समस्यायें केवल आप पर ही नहीं आईं।
ऐसा नहीं है कि कलियुग में ही साधनायें नहीं हो पा रहीं हैं। गुरू जी कलियुग आ गया और कलियुग में साधनायें नहीं हो पाती और सैकड़ों लोग ऐसा कहते हैं कि अब कैसे हो पायेगी चारों तरफ आप देख रहें हैं। कभी बम विस्फोट हो रहे हैं कभी पंजाब में हो रहे हैं कभी दिल्ली में हो रहे हैं, पूरे भारत वर्ष में हो रहे हैं। यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है?
कुचक्र आज ही नहीं रचे गये, लड़ाई-झगड़े आज ही नहीं हो रहे, कलियुग आज ही पैदा नहीं हुआ, वह तो सतयुग में भी यही समस्या थी जिनसे आज तुम जूझे रहे हो। तुम मुझे बार-बार कह रहे हो कि कलियुग में कैसे साधनायें सम्पन्न करेंगे तो मैं कह रहा हूँ द्वापर युग में, त्रेता में कितने षड्यंत्र हुये महलों में, उस केकैयी के रूप जाल में फंस कर के दशरथ ने जो उनकी नीति थी, धर्म था कि सबसे बड़े बेटे को राजगद्दी पर बिठाया जाये। उसको भुलकार उसे जंगल भेज दिया। छोटे बेटे को राजगद्दी पर बिठा दिया। यह षड्यंत्र नहीं था क्या?
उस केकैयी का षड्यंत्र यह कि राम यहां रहेगा तो फिर लड़ाई झगडे़ होंगे। इसको जंगल में ही भेज दिया जाये। क्या षड्यंत्र उस समय नहीं होते थे? क्या आज ही होते हैं? क्या उस समय अपहरण नहीं होते थे? क्या रावण सीता को नहीं ले गया? क्या द्वापर युग में लड़ाइयां नहीं होती थी? मनुष्य जब तक बदलेगा नहीं, परिवर्तित नहीं होगा तब तक ये घटनायें घटित होंगी। कृष्ण अपने आप में सूर्य थे, युग कैसा था वह आपको बता रहा हूं। युग आज भी वैसा ही है। युग नहीं बदल सकता आदमी बदल सकता है। आदमी ज्ञान ले सकता है। कृष्ण अकेले ने सब करके दिखा दिया। आप कल्पना करें एक तरफ कौरवों की अक्षौहिणी सेना खड़ी हैं, एक तरफ पांडव खड़े हैं बीच में कृष्ण खड़े हैं और उस अकेले व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि मुझे सफलता प्राप्त करनी ही है। उन्होंने कहा कि मैं कोई शस्त्र नहीं उठाऊंगा और उन पांच लोगों के सहारे पर कुरूक्षेत्र की लड़ाई जीत लिया पूरे महाभारत के युद्ध को जीत लिया।
आपके पास एक गुरू बैठा है और इस पूरे संसार को आप जीत नहीं सकते तो फिर आप कमजोर हैं, मैं कमजोर नहीं हूँ, फिर आप में न्यूनता है मुझमें न्यूनता नहीं है। यह मेरी बात थोड़ी कड़वी हो सकती है। मैं भी अपनी पिता जी की प्रशंसा करता रहता हूँ, अपने दादाजी की प्रशंसा करता रहता हूँ कि बहुत महान थे, हम ऋषियों के परंपरा की प्रशंसा ही करेंगे क्योंकि जो मर गये उनकी प्रशंसा ही की जाती है, उनके पास गुरू थे। गुरूओं का सम्मान था, राजा के पुत्र होते हुए भी दशरथ ने अपने पुत्रें को विश्वामित्र के पास भेज दिया कि तुम जाओ और धनुर्विद्या सीखो, तुम्हें वहां जाना पड़ेगा। कहां मथुरा, उत्तर प्रदेश में और कहां मध्य प्रदेश वहां कृष्ण को भेजा क्योंकि उच्च कोटि का ब्राह्मण सांदीपन वहां था। बीच में क्या कोई उच्च कोटि का साधु संन्यासी था ही नहीं? क्यों नहीं उनके पास भेजा? क्योंकि उन्होंने जाना कि वह व्यक्ति अपने आपमें अद्वितीय ज्ञान युक्त हैं, उसके पास भेजना ही पड़ेगा। विश्वामित्र राजा की प्रजा है, दशरथ कह सकते थे कि आपको चार किलो धान ज्यादा देंगे आप यहां आकर पढ़ाइये। ज्ञान ऐसे प्राप्त नहीं हो सकता। ज्ञान के लिये फिर आपको शिष्य बनना पड़ेगा, आपको गुरू के पास पहुँचना पड़ेगा, आपको गुरू के सामने याचना करनी पड़ेगी और हम साधना में सिद्धि इसलिये नहीं प्राप्त कर रहे हैं, क्योंकि हम कमजोर महसूस करने लग गये हैं, कमजोरी आपके मन में, जीवन में आ गई है, कमजोर आप हैं नहीं। जब दक्ष ने महादेव को यज्ञ में नहीं बुलाया था तो—- महादेव तो अपने आप में बहुत भोले हैं। महोक्ष खटवांग परशु फलिण कपालं चेति यः—— शमशान में बैठे रहते हैं और कहीं कोई कमाने की चिंता नहीं बस सांप लिपटाये बैठे हैं मस्ती के साथ में और उसके बाद भी जगदंबा, जो लक्ष्मी का अवतार है, उनके घर में हैं और धन-धान्य की कमी है ही नहीं। निश्चितंता है। निश्चिंत है इसलिये, देवता नहीं कहलाये वो, महादेव कहलाये। उन्होंने साधनायें की। महादेव ने भी की, ब्रह्मा ने भी की, विष्णु ने भी की। इन्द्र ने भी की। बिना साधनाओं के जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। मगर साधना में सफलता तब प्राप्त हो सकती है जब आपकी कमजोरी, आपकी दुर्बलता आपका भय, आपकी चिंता, आपका तनाव दूर हो और तनाव मेरे कहने से दूर नहीं हो पायेगा। मैं यहां से बोल कर चले जाऊं तो उससे आपका तनाव नहीं मिट सकता। मैं कहूं कि अब तकलीफ नहीं आये तो उससे तकलीफ नहीं मिट सकती।
मैं बता रहा हूँ कि वास्तविकता यह है। आप ज्योंहि जायेंगे घर में तो तनाव तकलीफ, बाधाये, कठिनाइयां वे ज्यों की त्यों आपके सामने खड़ी होगी। उनसे छुटकारा पाएंगे तो साधना में बैठ पाएंगे। तो गुरू की ड्यूटी है, गुरू का धर्म है कि उन साधनाओं को प्राप्त करने के लिये शिष्यों को निर्भर बना दिया जाये। निश्चिंत बना दिया जाये, जो कमजोर उनके जीवन के क्षण है जो मन में कमजोरी है या दुर्बलता है उसे दूर कर दिया जाये और क्षमता के साथ ही उन दुर्बलताओं को दूर किया जा सकता है, उन पर प्रहार करके ही विजय प्राप्त की जा सकती है रिझाकर या प्रार्थना करके नहीं और हमारे तो आराध्य महादेव हैं जो प्रखर व्यक्तित्व के स्वामी हैं जो प्रहार करने से विध्वंस करने से कभी हिचकते ही नहीं।
विध्वंसक बन करके, क्रोध में उन्मत्त हो करके महादेव दक्ष के यज्ञ में गये, अपने ससुर के यज्ञ में गए जहां ब्राह्मण ऋषि मुनि, योगी, यति, संन्यासी आहुतियां दे रहे थे, वेद, मंत्र बोल रहे थे। उन्होंने एक लात मारी और यज्ञ को विध्वंस कर दिया, वेदी को तोड़ दिया अग्नि को बुझा दिया।
क्योंकि उससे पहले सती ने सोचा कि सब देवताओं को यज्ञ में बुलाया गया, मेरे पति को नहीं बुलाया गया, इससे बड़ा क्या अपमान हो सकता है तो वह यज्ञ कुण्ड में कूद गई। आधी जली तो बाहर निकाला गया। और भगवान शिव— भगवान वह होता है जिसमें ज्ञान हो। भगवान अपने, आपमें कोई अजूबा नहीं है कि जो नई चीज पैदा हुआ वह भगवान है। भगवान तो आप सब हैं। यह शंकराचार्य स्पष्ट कर चुके हैं। जिसमें ज्ञान है वह भगवान है, जो ज्ञान युक्त है वह भगवान है। प्रत्येक मनुष्य भगवान है और प्रत्येक मनुष्य राक्षस है, हम क्या हैं यह स्वयं को चिंतन करना है। भगवान शिव सती की अधजली लाश को अपने कंधे पर ले कर क्रोध की अवस्था में पूरे भारत वर्ष में घूमें क्रोध शांत नहीं हुआ। इतना बड़ा अपमान कि मेरी पत्नी जल गई और मैं कुछ नहीं कर पाया और क्रोध की चरम सीमा और उस चरम सीमा में दक्ष जैसे वरदान प्राप्त और तांत्रिक व्यक्ति का भी वध किया। ऐसे व्यक्ति का वध किया जाये तो कैसे किया जाये। तो उन्होंने अपनी जटा में से बहुत उत्तेजना युक्त मंत्र के माध्यम से एक रचना की जो कि पूर्ण जगदम्बा से भी सौ गुना ज्यादा क्षमतावान थी, जो साकार प्रतिमा थी जो कि सारी परेशानियों, बाधाओं, अड़चनों, कठिनाओं और शत्रुओं पर एकदम से प्रहार कर सके, समाप्त कर सके। वह चाहे शत्रु आपकी भूख हो चाहे परेशानी हो, चाहे बाधा हो, चाहे मुकदमेबाजी हो, चाहे असफलताये हो, चाहे घर में कलह हो- ये सब बाधाये हैं। पैसे नहीं आ रहें हों व्यापार नहीं हो रहा हो, ये सब बाधाएं हैं। ये समस्याएं हैं, परेशानियां हैं, अड़चने हैं।
भागीरथ ने जब गंगा का प्रवाह किया और उसे भगवान शिव ने अपनी जटा में लिया तो डेढ़ साल तक उन जटाओं में गंगा घूमती रही, उसे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिला। इतनी घनी जटा! भागीरथ ने प्रणाम किया- महाराज! अगर गंगा नदी आपकी जटाओं में घूमती रही तो रास्ता मिलेगा ही नहीं उसको। इतनी घनीभूत जटा है। कृपा करके गंगा को धरती पर उतारे तो उन देवताओं और लोगों का कल्याण होगा।
और मंत्रों के माध्यम से उस देव गंगा को पृथ्वी पर उतारा। ऐसे विकराल, विध्वंसक महादेव! हमने उनका सौम्य स्वरूप देखा है कि आँखें बंद किये शमशान में बैठे हुये हैं, सांप की मालायें पहने हुये हैं, ऊपर से गंगा प्रवाहित हो रही है और ध्यानस्थ बैठे हैं। आपने वह रूप देखा है क्रोधमय रूप नहीं देखा, ज्वालामय रूप नहीं देखा, आँखों से बरसते अंगारे नहीं देखे। देखे इसलिये नहीं कि किसी ने दिखाया नहीं आपको। महादेव इसलिये नहीं बने कि शांत बैठे हैं— आप हाइएस्ट पोस्ट पर पहुँचेंगे तो हाथ जोड़-जोड़ कर नहीं पहुंचेंगे, ज्ञान को गिड़गिड़ाते हुये नहीं प्राप्त कर पायेंगे। आपमें ताकत होगी, क्षमता होगी तो ऐसा कर पाएंगे। महादेव ने उस जटा से जिसको निकाला उसे कृत्या कहते हैं। उस कृत्या ने दक्ष का सिर काट दिया वह तंत्र का उच्च कोटि का विद्वान था, दक्ष के समान कोई विद्वान नहीं था उसे सभी तंत्र का ज्ञान था जिसको यह वरदान था कि तुम मर ही नहीं सकते। उस कृत्या ने एक क्षण में सिर काट कर बकरे का सिर लगा दिया, उसके ऊपर और सारे ऋषि मुनियों को उखाड़-उखाड़ कर फेंक दिया। उस कृत्या ने। एक भी ऋषि योग्य नहीं था। सती जल रही थी और वे चुपचाप बैठे-बैठे देखते रहे।
भगवान शिव उस क्रोध की अवस्था में सती के शरीर को लेकर घूमते रहे। क्रोध में आदमी कुछ भी कर सकता है, और क्रोध होना ही चाहिये, क्रोध नहीं है तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। ऐसा नहीं हो कि शत्रु हमारे सामने खड़े हो और हम गिड़गिड़ाये कि भइया तू मत कर ऐसा। ऐसा हो ही नहीं सकता।
मैं तुम्हें गिड़गिड़ाने वाला नहीं बनाना चाहता, मैं बना ही नहीं सकता, बन भी नहीं सकता, जब मैं खुद बना ही नहीं तो तुम्हें कैसे बनाऊंगा। आज भी इतनी ताकत, क्षमता रखता हूँ, आज से सौ साल बाद भी इतनी ही ताकत, क्षमता रखूंगा आपके सामने। उस कृत्या ने समस्त ऋषि मुनियों को लात मार मारकर फेंक दिया। आज हम उनको ऋषि कहते हैं, उस समय तो वे मनुष्य थे आप जैसे। आप भी ऋषि हैं मगर आप गलत काम करेंगे तो लात मारकर फेंकेंगे ही। भगवान शिव ने कहा- यह तुमने क्या किया? यह यज्ञ कर रहे थे तुम एक औरत उसमें जल गई और आप बैठे-बैठे देखते रहे। कंधे पर रख कर जहां-जहां पूरे भारतवर्ष में घूमे, जहां-जहां गल गल कर जो अंग गिरा वह शक्ति पीठ कहलाये।
आज भारतवर्ष में जिन्हें शक्ति पीठ कहते हैं शक्ति के जो अंग गिरे, वहां जो पीठ बनी, चेतना बनी, मंत्र बने, स्थान बने वे शक्ति पीठ कहलाये। मैं बात यह कह रहा था कि इतने ऋषियों, मुनियों को इतने उच्चकोटि के ज्ञान को, इतने तंत्र के विद्वानों को जो अपनी ठोकरों से मार दे और विध्वंस कर दे। सब कुछ वह क्या चीज थी- वह कृत्या थी और कृत्या से वैताल पैदा हुआ। वैताल जिसने विकमादित्य के काल में एक अद्भूत, अनिवर्चनीय कथन किया की कोई भी काम जिंदगी में असफल हो ही नहीं सकता, हम पहले ही उसका संहार कर देंगे, समाप्त कर देंगे, अगर कृत्या हमारे पास सिद्ध होगी तो।
इस समय ज्ञान के माध्यम से, चेतना के माध्यम से फिर कोई एक व्यक्ति पैदा हो जो आपको वह ज्ञान दे, फिर आपको वह चेतना दे जिसके माध्यम से बम विस्फोट बंद हो सके। यह लड़ाई बंद हो सके, यह सब कुछ बंद हो सके। आप इतने लोग हैं पूरे संसार में इस विध्वंस को इस विनाश को समाप्त कर सकते हैं। इतनी क्षमता आपमें है। इसलिये मैं कह रहा हूँ कि आप कायर नहीं है, आपने अपने आप को कायर मान लिया है। आप ने अपने आपको बुजदिल मान लिया है, अपने आपको बूढ़ा मान लिया है। आपने अपने को न्यून मान लिया है।
औरत कब तक वे घूंघट निकाले बैठी रहेंगी, कब तक वे ज्ञान प्राप्त नहीं कर पायेगी, कब तक वे घर में चूल्हे चौके में ही फंसी रहेंगी। जो पुरूष में क्षमता है वही स्त्री में भी क्षमता है। तुम्हारी नजर में भेद है, मगर साधना के क्षेत्र में पुरूष-स्त्री समान हैं, बराबर है। कोई अंतर है ही नहीं, वेद मंत्र तो वशिष्ठ की पत्नी ने भी सीखे, ब्रह्म ज्ञान सीखा, चेतना प्राप्त की। कात्यायनी ने सीखा, मैत्रयी ने सीखा, कम से कम सैकड़ों ऐसी विदुषियां बनीं। वे पत्नियां थीं और स्त्रियां होते हुए भी उन्होंने उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त किया।
क्या वे औरतें नहीं थीं, क्या उनके पुत्र पैदा नहीं हुए थे। मगर वे ताकतवान थीं, क्षमतावान थीं और पुरूष भी क्षमतावान थे। जो क्षमतावान थे वे जिंदा रहे। देवता तो 33 करोड़ थे वहां, फिर हमें केवल 20 नाम क्यों याद हैं? ऋषियों के 18 नाम ही क्यों याद हैं, बाकी ऋषि कहां चले गये? और उस समय ऋषि पैदा हुये तो अब ऋषि क्यों नहीं पैदा हो रहे? संतान तो पैदा, उन्होंने भी की हमने भी की। दो हांथ-पांव उनके थे तो हमारे भी है। फिर हम ऋषि क्यों नहीं पैदा कर पाये? मैं आपको ताकतवान क्यों नहीं बना पाया? कृष्ण ने गीता में यही कहा था-
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मान सृजाम्याम्।
जब जब भी धर्म की हानी होगी, अधर्म का अर्थ है जहां जहां भी व्यक्ति अपने धर्म को भूल जायेगा, जब भारत की हानी होने लगेगी जब भारत के टूकड़े होने की स्थिति हो जायेगी, आर्यावर्त के टुकड़े होने की स्थिति हो जायेगी, तब तक एक व्यक्ति पैदा होगा जो अपने शिष्यों को ज्ञान और चेतना देगा। उनको एहसास करायेगा कि तुम कायर नहीं हो, बुढ़े नहीं हो, तुममे ताकत है, क्षमता है मगर वह ज्ञान नहीं है। कृत्या जब दक्ष को विध्वंस कर सकती है, सैकड़ों ऋषियों को ऊंचा उठाकर धकेल सकती है, वीर वेताल जैसे व्यक्ति को पैदा कर सकती है, जो पूरे पहाड़ के पहाड़ को उठाकर दूसरे जगह रख सकती है, जिस कृत्या के माध्यम से रावण पूरी लंका को सोने की बना सकता है। आप तो पांच रूपये चांदी के इकट्ठे नहीं कर सकते। आपके पास कागज के टुकड़े तो हैं, एलम्यूनियम के सिक्के तो है पर चांदी के सिक्के पच्चीस, पचास या सौ मुश्किल से होंगे। क्या क्षमता, क्या ताकत है आपमें?
जब वह सोने की लंका बना सका तो हम क्यों नहीं कर पा रहे हममें न्यूनता क्यो है? न्यूनता यह है कि आपमें अकर्मण्यता आ गई है आपमें भावना आ गई है कि हम कुछ नहीं कर सकते। यह हमारी ड्यूटी हमारा काम है ही नहीं और कृष्ण कह रहे हैं जब जब भी धर्म की हानि होने लग जाये तो यह हमारी ड्यूटी है कि हम ताकत के साथ खड़े हो सकें और खड़े होकर बता सके कि तुम्हारा विज्ञान फेल हो रहा है और हम ज्ञान के माध्यम से शांति पैदा कर रहें हैं। यह हमारा धर्म है, हमारा कर्तव्य है। ऐसा अधर्म बना तब कृष्ण पैदा हुए, ऐसा अधर्म बना तब बुद्ध पैदा हुये, ऐसा अत्याचार बढ़ा तब सुकरात पैदा हुये, ईसा मसीह पैदा हुयेा। सब देशों में पैदा हुए कोई भारत वर्ष में ही पैदा नहीं हुये, सभी देशों में महान पुरूष पैदा हुये जिन्होंने अपने शिष्यों को ज्ञान की चेतना दी। आज के युग में नोट की भी जरूरत है बेटों की भी जरूरत है, रोटी की भी जरूरत है, पानी की भी जरूरत है, मगर इससे पहले जरूरी है कि शत्रु समाप्त हों।
हमारे अन्दर दर्द पैदा होना चाहिये और इस सबको मिटाना होगा। विज्ञान इसको नहीं मिटा सकता, बंदूक की गोलियों को विज्ञान नहीं मिटा सकता देख लिया हमने और प्रत्येक के पास यह ताकत होनी चाहिये, एक-एक शिष्य के पास यह ताकत होनी चाहिये। दो चार शिष्य तैयार होंगे उससे नहीं हो पायेगा। एक-एक व्यक्ति, एक-एक पुरूष, एक-एक स्त्री को यह ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है। वह उस साधना को सिद्ध करे कि जिसके माध्यम से वह कृत्या पैदा कर सके। भगवान शिव पैदा कर सकते हैं अगर विक्रमादित्य पैदा कर सकता है फिर हम भी कर सकते हैं। सांप जैसा एक मामूली जीव अगर कायाक्लप कर सकता है, पूरी केचुली उतारकर वापस क्षमतावान बन सकता है तो आप ऐसा क्यों नहीं कर पाते? सांप पूरे दो साल जिंदा रहता है और एक हजार साल तक जिंदा रह सकता है। पच्चीस पचास साल में मरता नहीं। आदमी मरता है सांप नहीं मरता। जब भी बुढ़ापा आता है ऐसा दिखता है कि कमजोरी आ गई तो वह केचुली को उतार कर फेंक देता है। वह ज्ञान एक था जो सिर्फ उसके पास रह गया। पहले नाग योनि थी। जैसे वानर योनि थी गंधर्व योनि थी वैसे नाग भी एक योनि थी। बाद में हमने मान लिया कि सांप ही नाग योनि है। नाग तो अपने आप में एक जाति थी जिनके पास वह विद्या थी। वह कायाकल्प की विधि जब भी आप कहेंगे कि मैं वृद्ध हो गया हूँ तो मैं आपको सिखा दूंगा। मैं तो आपको वृद्ध होने ही नहीं देना चाहता हूँ। सफेद बालों वाला वृद्ध नहीं होता, वृद्धता तो मन की अवस्था है। अगर सफेदी से ही बुढ़ापा आता तो हिमालय आपसे पहले ज्यादा बूढ़ा है। उस पर तो सफेद ही सफेद लगा हुआ है। फिर तो वह बूढ़ा ही बूढ़ा बैठा है वह है ही नहीं ताकतवान।
आपके सिर पर सफेदी है तो उस पर तो ज्यादा सफेदी है। मगर नहीं वह ताकत के साथ खड़ा हुआ है, अडिग खड़ा हुआ है। आपमें हौसला और हिम्मत है और वह चीज वापस कृत्या के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। कृत्या को भगवान शिव ने प्रकट किया और उस क्षमता के माध्यम से जितना अधर्म, जितनी दुर्नीति, जितनी दुष्प्रचार, जितनी दुष्टता, जितनी न्यूनता, जितना घटियापन था वह समाप्त किया, विध्वंस कर दिया और वेद मंत्र उच्चारण कर रहे थे और एक औरत जल रही थी वे स्वाहा बोल रहे थे और एक औरत जल रही थी यह क्या चीज थी? और अगर ऐसे समय क्रोध नहीं आये क्षमता नहीं आये, व्यक्ति जूझे नहीं तो हम मर्द क्यो बने। फिर तो हम एक बहुत घटिया श्रेणी के मनुष्य हुये।
अगर गुरू, शिष्य को क्षमतावान नहीं बना सके तो फिर गुरू को यहां बैठने का अधिकार नहीं है, फूलों का हार पहनने का अधिकार नहीं है, बेकार है सब। मैंने आपको बताया कि आज के युग के लिये क्या आवश्यक है, कोई घिसा पिटा प्रवचन नहीं दिया आपको। मैंने कृत्या के बारे में बताया जिसके दस हाथों में दस चीजें हैं और दस में एक भी फूल नहीं है। उसके तो हाथों में कहीं खडग है, कहीं चक्र है, कहीं कृपाण है, कहीं त्रिशूल है। अपने आपमें वह अकेली ही क्षमतावान है ताकतवान है। उसने शुंभ, निशुंभ महिषासुर, रक्तबीज को समाप्त कर दिया एक अकेली औरत ने कर दिया, इसलिये आज भी उसे पूजा जाता है। आपको भी पूजा जायेगा, यदि आपमें वह साधना होगी तो पूजा जायेगा। नहीं तो आप भी मर कर समाप्त हो जायेंगे कोई पूछेगा नहीं आपको, याद भी नहीं करेगा आपको।
इसलिये आपमें वह क्षमता आनी चाहिये। इनके दस हाथ हैं इसका मतलब कि, दस चीजें चलाने की क्षमता है। अगर आप सोचते हैं कि रावण के बीस हाथ और दस सिर थे तो यह कपोल कल्पना है। रावण के न कोई दस सिर थे न बीस भुजायें थी। यह एक कल्पना है, इसका अर्थ यह है कि उसके पास जितनी बीस भुजाओं में ताकत होती है उतनी ताकत थी, दस सिरों में जितनी बुद्धि होनी चाहिये उतनी बुद्धि थी। उतनी साधनायें थी। उसके पास उतना ज्ञान था उसके पास कि चांदी के सौ पचास सिक्के नहीं पूरे शहर के शहर को सोने के बना दिया और उस समय किया जब दशरथ जैसा राजा भी कुछ कर नहीं पा रहा था। वही लड़ाई, वही झगड़े वही बेटों को बाहर निकाल देना वही मर जाना। और बेटा अपने पिता का अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया। वही एक स्त्री सीता को उठा कर ले जाना। चीजें तो वहीं की वहीं थी, मगर एक विद्या उनके पास थी।
कृत्या प्रयोग, कृत्या साधना को आज तक किसी ने छुआ तक नहीं, इसलिये कि उनके पास ज्ञान ही नहीं था। अगर ज्ञान ही नहीं होगा तो कोई सीखेगा कहां से, कोई बतायेगा कहां से? अगर मुझे उर्दू नहीं आती तो मैं उर्दु बोलूंगा कहां से। मुझे मराठी नहीं आती तो मराठी बोलूंगा कहां से। ऐसा शिष्य मैं आपको बनाना चाहता हूँ। शायद मेरी बात आपको तीखी लगे, शायद मेरी बात क्रोधमय हो गई है। मगर जो क्रोध नहीं करता है उससे घटिया कोई आदमी नहीं होता। सबसे मरा हुआ जीव वह होता है जिसे क्रोध आता ही नहीं।
गांधीजी ने कह दिया अहिंसा परमो धर्मः उस जमाने में जरूरी होगा, यह उनकी धारणा थी, विचार था। उस जमाने में बुद्ध ने जो कहा सत्य कहा होगा। मगर वह उस जमाने में था आज वह मिथ्या नहीं है। उस समय बम विस्फोट नहीं हो रहे थे। उस समय गोलियां नहीं चल रहीं थीं, ए-के-47 राइफल उस समय नहीं थी। तो मैं कह रहा हूँ- कौन करेगा फिर अगर मैं आपको ज्ञान नहीं दे पाऊँगा, आप अगर नहीं कर पायेंगे, आप इस देश को, भारत वर्ष को आर्यावर्त को तैयार नहीं कर पायेंगे। लोग जीवित जाग्रत नहीं हो पायेंगे और लोग इस पर आक्रमण करते रहेंगे और आप चुपचाप देखते रहेंगे तो कौन आगे आयेगा, कहां से आयेगा? फिर शिष्य बनने का क्या धर्म रह जायेगा?
यह धर्म हमारा है क्योंकि हम जीवन में अभावग्रस्त नहीं होना चाहते, हम दरिद्री नहीं रहना चाहते, हम जीवन में तकलीफ नहीं देखना चाहते, हम दुःखी नहीं होना चाहते, हम घर में लड़ाई झगड़ा नहीं चाहते हम जीवन में कायर बुजदिल नहीं होना चाहते, हम बुढ़ापा नहीं चाहते। हम यह सब नहीं चाहते मगर ऐसा तब हो पायेगा जब हम ऐसी साधना सिद्ध कर सकेंगे कि आपका विकराल रूप देख कर मौत भी आपके द्वार के बाहर खड़ी रहे, अंदर आने की हिम्मत नहीं कर सके। तब वह चीज हो पायेगी। मौत आपके पास आकर बैठ जाये तो मर्द ही क्यों हुए आप?
भगवान शिव ने एक उच्च कोटि की साधना के रूप में कृत्या प्रकट की। उस कृत्या को सिद्ध किया विक्रामादित्य ने। बीच में कर ही नहीं पाये कोई। या तो ज्ञान लुप्त हो गया या वे ऋषि मुनि समाप्त हो गये। कुछ को भगवान शिव ने समाप्त कर दिया, कुछ मर गये, कुछ को ज्ञान रहा नहीं और कुछ ऐसे ऋषि हो गये जो अपने शिष्यों को ज्ञान दे नहीं पाये। पहले मुख से देते थे ज्ञान, किताबों में होता ही नहीं था। आज मैंने आठ किताबें तैयार की तो आप दो, पाँच किताब लेंगे कि चलो कम से कम मेरे पास यह ज्ञान की थाती रह पायेगी।
मैं कह रहा हूँ कि गति कुछ होती नहीं है, गति हम उसकी करेंगे जो हमारे घर में गड़बड़ करेंगे, जो हमारे घर में हिंसा लायेगा कमजोरी लायेगा। कारखाने में कोई गोली बननी ही नहीं चाहिये जो आपको लग जाये। जब बनेगी नहीं तो लगेगी कहां से वो। मैं आपको ऐसे क्षमतावान बनाना चाहता हूँ, जो पांच हजार वर्षों में समाप्त हो गया उस ज्ञान को आपको देना चाहता हूँ, उस कृत्या को आपको प्रदान कर देना चाहता है आप तेजस्विता युक्त बनें। सूर्य तो बहुत कम चमक वाला है आप उससे हजार गुना चमक वाले बनें, ऐसा ज्ञान मैं आपको प्रदान करना चाहता हूँ।
मैंने आपको समझाया कि हम कमजोर और अशक्त क्यों हैं, मानसिक रूप से परेशान और रूग्ण क्यों है और ऐसी कौन सी विद्या, कौन सी ताकत है जिसके माध्यम से जो हमारे विकार हैं वे समाप्त हो सकें। हमारे मन में कुल 32 संचारी भाव होते हैं सोलह अनुकूल, सोलह प्रतिकूल। घृणा, क्रोध, प्रतिशोध, दुर्भावना, लोभ, मोह, अहंकार ये सब संचारी भाव हैं और कुछ अच्छे संचारी भाव भी होते हैं, जैसे प्रेम, स्नेह परोपकार।
जीवन का सार बलशाली होना है, जब तक आदमी निर्बल रहेगा तब तक आदमी सफल नहीं हो सकता और बलशाली होने के लिये उसे सोलह जो प्रतिकूल संचारी भाव है उन्हें समाप्त करना होगा। प्रकृति भी निर्बल को सताती है। दिया निर्बल होता है, थोड़ी सी हवा चलती है और उसे बुझा देती है और वही दिया अगर बन जाये तो हवा उसे बढ़ा देती है, हवा भी सहायक बन जाती है। ताकतवान का साथ देती है हवा निर्बल की नहीं बनती। दोनों ही आग है और हवा एक ही है मगर जो ताकतवान है जो क्षमतावान है उसकी वह सहायक बनती है।
आप ताकतवान है तो आप पूर्ण सफलतायुक्त होते ही हैं और वह ताकतवान होना मन से संबंधित है, विचारों से संबंधित है। और कृत्या का अर्थ यही है कि आप ताकतवान और क्षमतावान बनें। एक बार गुरू को धारण किया तो कर लिया, जो उसने कहा वह किया। फिर अपनी बुद्धि, अपनी होशियारी, अपनी अक्ल आप लड़ाएंगे तो आप ही गुरू बन जायेंगे, फिर कोई और गुरू बनाने की जरूरत ही नहीं क्योंकि फिर आप ही गुरू हैं क्योंकि आप मुझसे ज्यादा गाली बोल सकते हैं, मुझसे ज्यादा झूठ बोल सकते हैं और मुझसे ज्यादा लड़ाई कर सकते हैं तो मुझसे योग्य हैं ही आप। मैं आपके जितना क्रोध कर नहीं सकता आपके जितना लड़ाई झगड़ा कर नहीं सकता। जितनी शानदार 2000 गालियां आप दे सकते हैं मैं दे ही नहीं सकता।
मगर साधनाओं में आपसे ज्यादा क्षमता है, आपसे ज्यादा पौरूष है, आपसे ज्यादा साहस आपसे ज्यादा धारण शक्ति है। कृत्या का तात्पर्य यह भी है कि हममें साहस हो, पौरूष हो, धारणा शक्ति हो। कृत्या अपने आपमें एक प्रचंड शक्ति है जो भगवान शिव के द्वारा निर्मित हुई। आपके जीवन में क्षमता, साहस, जवानी, पौरूष कृत्या साधना के माध्यम से ही आ सकती है। कृपणता, दुर्बलता, निराशा आपके जीवन में नहीं है, आप अपने ऊपर जबरदस्ती लाद लेते हैं हर बार लाद लेते हैं कि अब मैं कुछ नहीं कर सकता, मेरे जीवन में कुछ है ही नहीं।
और धीरे-धीरे आप नष्ट होते जा रहे हैं। देश में जो चल रहा है, जो हो रहा है उसके लिये विज्ञान कर क्या रहा है हमारी उपयोगिता फिर क्या है हम फिर क्यों पैदा हुए हैं? ज्ञान क्या चीज है? पहले ज्ञान सही था तो अब ज्ञान सही क्यों नहीं हो रहा है? मैं यह सिद्ध करना चाहता हूँ।
मैं बताना चाहता हूँ कि आयुर्वेद में वह क्षमता है कि प्रत्येक रोग का निवारण कर सके। पहले किसी पौधे के पास खड़े होते थे तो पौधा खुद खड़ा हो जाता था कि यह मेरा नाम है, यह मेरा गुण है, यह मेरा उपयोग है और मनुष्य जीवन के लिये मैं इस प्रकार उपयोगी हूँ। पेड़ पौधे पहले इतना बोलते थे तो आज भी बोलते होंगे जरूर। उस समय वनस्पति खुद बोलती थी। आज भी बोलती है मगर हममें क्षमता नहीं कि हम समझ पाये। आप में क्षमता हो, साहस हो पौरूष हो ऐसा मैं आपको बनाना चाहता हूँ। आप बोले और सामने वाला थर्रा नहीं जाये तो फिर आप हुये ही क्या।
मैंने यह समझाया कि कृत्या क्या है और हमारे जीवन में क्यों आवश्यक है। कृत्या कोई लड़ाई झगड़ा नहीं है, कृत्या मतभेद नहीं है। कृत्या आपको प्रचंड पौरूष देने वाली एक जगदंबा है देवी है। कृत्या किसी को नष्ट करने के लिये नहीं है परंतु आपके पौरूष को ललकारने वाली जरूर है, हिम्मत, और हौंसला देने वाली जरूर है, वृद्धावस्था को मिटाने वाली जरूर है। परन्तु आवश्यकता है कि पूर्ण क्षमता के साथ इस कृत्या को धारण किया जाये और पूर्ण पौरूष के साथ, जवानी के साथ बैठकर इसे सिद्ध किया जा सकता है, मरे हुये मुर्दो की तरह बैठकर नहीं प्राप्त किया जा सकता और अगर मेरे शिष्य मरे हुये बैठेंगे तो मेरा सब कुछ देना ही व्यर्थ है। वृद्धावस्था तो आयेगी मगर जब आयेगी तो देखा जायेगा। पूछ लेंगे मेरे पास आने की क्या जरूरत थी, बहुत बैठें हैं शिष्य उनके पास चली जाओ। मेरे पास तो हलवा पूरी मिलेगी नहीं तुम्हें।
बुढ़ापे जैसी कोई अवस्था होती नहीं है, यह केवल एक मन का विचार है कि हम बूढे़ हो गये हैं और आप जीवन भर पौरूषवान और यौवनवान हो सकते हैं कृत्या सिद्धि के द्वारा। मगर सिद्धि तब प्राप्त होगी जब गुरू जो ज्ञान दे उसे आप क्षमता के साथ धारण करें। शुकदेव ने तो केवल एक बार सुना और उसे सिद्धि सफलता मिल गयी। जब पार्वती ने यह हठ कर ली कि भगवान शिव उन्हें बतायें कि आदमी जिंदा कैसे रह सकता है वह मरे ही नहीं, क्या विद्या है जिसे संजीवनी विद्या कहते हैं तो महादेव बताना नहीं चाहते थे, वह गोपनीय रहस्य था। मगर पार्वती ने हठ किया तो उन्हें कहना पड़ा।
अमरनाथ के स्थान पर शिव ने बताना शुरू किया। भगवान शिव ने डमरू बजाया तो जितने वहाँ पर पशु, पक्षी, कटि, पतंग थे वे सब भाग गये। लेकिन एक तोते ने अंडा दिया था वह रह गया। बाकी बारह कोस तक कोई कटि पतंग भी नहीं रहा। वह अंडा फूट गया और बच्चा बाहर आ गया। भगवान शिव पार्वती को कथा सुनाते जा रहे थे और वह बच्चा सुनता जा रहा था। पार्वती को नींद आ गयी और वह बच्चा हुंकार भरता रहा। कथा समाप्त हुई तो भगवान शिव ने देखा कि पार्वती तो सो गयी। उन्होंने सोचा कि फिर यह हुंकार कौन भर रहा था उन्होंने पार्वती को उठाया और पूछा तुमने कहां तक सुना?
पार्वती ने कहा मैंने वहां तक सुना और फिर मुझे नींद आ गयी। तो भगवान शिव ने कहा- यह हुंकार कौन भर रहा था फिर। पार्वती ने कहा- मुझे तो मालूम नहीं। उन्होंने देखा तो एक तोता का बच्चा बैठा था। महादेव ने अपना त्रिशूल फेंका। तो उस बच्चे ने कहा- आप मुझे मार नहीं सकते क्योंकि मैंने अमर विद्या सीख ली है आपसे। जो आपने कहा वह मैं समझ गया। मुझे कोई मंत्र उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं।
तो वह बच्चा उड़ा और वेद व्यास की पत्नी अर्ध्य दे रही थी भगवान सूर्य को और उसमें मुंह के माध्यम से वह अंदर उतर गया और 12 साल तक अंदर रहा। पहले मातायें 12 साल बाद इसने कहा कि तुम्हें तकलीफ हो रही है तो मैं निकल जाऊंगा, महादेव मेरा कुछ नहीं कर सकते और महादेव बैठे थे दरवाजे पर निकलेगा तो मार दूंगा। उसने कहा महादेव मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्योंकि मैं वह संजीवनी विद्या समझ चुका हूँ। अब महादेव का त्रिशूल मेरा क्या बिगाड़ेगा। हाँ तुम्हें तकलीफ हो तो बता दो। व्यास की पत्नी ने कहा- मुझे पता ही नहीं लगा कि तुम अंदर हो। तुम तो हवा की तरह हलके हो। तुम्हारी इच्छा हो तो बैठे रहो, नहीं इच्छा हो तो निकल जाओ।
वह शुक्रदेव ऋषि बने। शुक याने तोता। यह बात बताने का अर्थ है कि जो मैं बोलूं उसे धारण करने की शक्ति होनी चाहिये आपमें। जैसे शुकदेव ने सुना शिव को और एक ही बार में सारा ज्ञान आत्मसात् कर लिया। अगर धारण कर लेगें, समझ लेंगे तो जीवन में बहुत थोड़ा सा मंत्र जप करना पड़ेगा। धारण करेंगे ही नहीं, मानस अलग होगा तो नहीं हो पायेगा। जो कहूं वह करना ही है आपको। शास्त्रें ने कहा है- जैसा गुरू करे वैसा आप मत करिये, जो गुरू कहे वह करिये। अब गुरू वहां जाकर चाय पीने लगे तो हम भी चाय पीयेंगे, जो गुरू जी करेंगे हम भी करेंगे अब गुरूजी मंच पर बैठे हैं तो हम भी बैठेंगे। नहीं ऐसा नहीं करना है आपको। जो गुरू कहे वह करिये। आपको कहे यह करना है तो करना है।
आप गुरू के बताये मार्ग पर चलेंगे, गतिशील होंगे, तो अवश्य आपको सफलता मिलेगी, गारंटी के साथ मिलेगी और साधना आप पूर्ण धारण शक्ति के साथ करेंगे तो अवश्य ही पौरूषवान, हिम्मतवान, क्षमतावान बन सकते हैं। आप अपने जीवन में उच्च से उच्च साधनायें, मंत्र और तंत्र का ज्ञान गुरू से प्राप्त कर सके और प्राप्त ही नहीं करें, उसे धारण कर सकें, आत्मसात कर सके ऐसा मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूं, कल्याण कामना करता हूँ
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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