उस श्लोक में बताया गया है कि मनुष्य अपने आपमें एक अधूरा और अपरिपक्व व्यक्तित्व है, मनुष्य अपने आपको पूर्ण कहता है मगर पूर्ण है नहीं क्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन जरूर रहता है। धन है तो प्रतिष्ठा नहीं है प्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं है, पुत्र है तो सौभाग्य नहीं है, सौभाग्य है तो रोग रहित नहीं है। उसके शरीर में भी कोई विशेषता नहीं है उसमें केवल मांस निकलेगा, हड्डियां निकलेंगी, रूधिर निकलेगा। इसके अलावा इस शरीर में कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे की हम शरीर पर गर्व कर सके। हम किस बात पर गर्व करें? इस शरीर में क्या है जिस पर गर्व करें। हमारे लिये कोई ऐसी युक्ति भी नहीं है कि हम इस शरीर में कुछ ऐसा प्रभाव कुछ ऐसी आभा पैदा कर सके जिसके माध्यम से हमारा शरीर हमारा चेहरा दैदीप्यमान बन सके। हम जो भोजन करते हैं, जो शुद्ध अन्न है, वह भी आगे जाकर मल बन जाता है और ऐसा मल जिसका कोई उपयोग नहीं होता।
हलवा खाये तो भी उसका अंत मल ही है, घी खांये तो भी उसका अंत मल ही है और चाहे रोटी खांये तो भी उसका अंत मल ही है। शरीर में ऐसी क्रिया ही नहीं है जो शरीर को दिव्यता और चेतना युक्त बना सके क्योंकि शरीर अपने आपमें व्यर्थ है खोखला है। एक चलती फिरती देह है और उस देह में उच्च कोटि का ज्ञान, उच्च कोटि की चेतना, उच्च कोटि का चिंतन समाहित नहीं हो सकता क्योंकि इस शरीर में कुछ है ही नहीं।
इस शरीर के भीतर झांक कर भी देखा, इस शरीर को चीर फाड़कर भी देखा, इन आंखों को देखा, हाथ को देखा, टांग को देखा और ऑपरेशन करके भी देखा, उसमें कोई विशेषता मिली ही नहीं और यदि हम कुछ भी लें या खाये पीये तो उसके बाद भी शरीर में किसी प्रकार की कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होती चेहरे पर तेजस्विता प्राप्त नहीं हो सकती दैदीप्य मानता नहीं आ सकती, एक उच्च व्यक्तित्व नहीं बन सकता एक अपूर्वता नहीं बन सकती चाहे हम कुछ भी खा लें या कर लें। क्यों नहीं बन सकती?
फिर मनुष्य शरीर हमने धारण क्यों किया? इसलिये ब्रह्मा पहले श्लोक की आधी पंक्ति में कहते हैं मनुष्य शरीर अपने आपमें एक ऐसा व्यर्थ शरीर है कि उसको हम किसी को चढ़ा भी नहीं सकते अर्पण भी नहीं कर सकते। न गुरू के चरणों में चढ़ा सकते हैं, न देवताओं के चरणों में चढ़ा सकते हैं। अपवित्र चीज नहीं चढ़ा सकते। एक हिसाब से सड़ा हुआ पुष्प है, या फूल है उसे भगवान के चरणों में नहीं चढ़ा सकते। यदि हम अपने शरीर को भगवान के चरणों में चढ़ाये कि भगवान मैं आपके चरणों में समर्पित हूँ तो शरीर तो खुद अपवित्र है जिसमें मल और मूत्र के अलावा कुछ है ही नहीं। ऐसे गंदे शरीर को भगवान के शरीर में कैसे चढ़ा सकते हैं और ऐसे शरीर को अपने गुरू के चरणों में भी कैसे चढ़ा सकते हैं?
उस श्लोक की दूसरी पंक्ति में कहा है कि जीवन का सारभूत और देवताओं का सारभूत तथ्य अगर किसी में है तो वह गुरू रूप में है। क्योंकि गुरू प्राणमय कोष में होता है, आत्ममय कोष में होता है और सप्त कोटि में होता है। उसको गुरू कहते हैं। वह केवल देह रूप में नहीं होता उसमें ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, सहस्रार जाग्रत होता है, एक उच्च जीवन का चिंतन होता है और वह बिना खाये पिये, बिना मल मूत्र विसर्जित किये भी वह सैकड़ों वर्ष व्यतीत कर सकता है।
न उसे भूख लगती है न प्यास लगती है न उसे मूत्र त्याग करने की जरूरत होती है और न मल विसर्जित करने की जरूरत होती है जब भूख प्यास नहीं लगेगी, जब वह कुछ खायेगा पीयेगा ही नहीं तो उसे मल मूत्र विसर्जन की भी जरूरत नहीं होती। इसलिये उच्च कोटि के साधक न भोजन करते हैं, न पानी पीते हैं और न मल मूत्र विसर्जन करते हैं और जमीन से चार फूट पांच फूट ऊपर आसन लगाकर बैठते हैं और साधना करते हैं तो ब्रह्मा ने कहा वे भी मनुष्य ही है जो इस प्रकार की क्रिया कर करते हैं और बाकी लोग भी मनुष्य ही हैं जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, जो मल युक्त हैं, जो गंदगी युक्त हैं। तो इस जगह से उस जगह छलांग लगाने की कौन सी क्रिया है? कैसे हम उच्च कोटि का जीवन प्राप्त कर सकते हैं? अगर हम इस जीवन में साधारण मनुष्य ही बने रहें तो फिर हमारे जीवन में वह स्थिति कब आयेगी जब जमीन से पांच फुट ऊपर बैठकर हम साधना कर सकें। जमीन से ऊपर उठकर साधना करने की क्या आवश्यकता है?
आवश्यकता इसलिये है कि जमीन का कोई ऐसा भाग नहीं है जहाँ पर रूधिर नहीं बहा हो। सैकडों लोग कटे होंगे, मरे होंगे, सैकड़ों शव बिखरे होंगे, सैकड़ों सभ्यताये नष्ट हो गई होंगी। हडप्पा बना, मोहनजोदड़ों बना नष्ट हुए, सैकड़ों बार प्रलय आया और एक-एक धरती इंच, धरती का एक-एक कण रूधिर से सना हुआ है। अपवित्र जमीन है, अपवित्र भूमि है और उस भूमि पर बैठकर साधना कैसे हो सकती है? और वहां बैठकर साधनाओं में सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है?
दो कमियां हमारे जीवन में आई। एक कमी तो यह कि पृथ्वी खून से रंगी हुई है— अगर दिल्ली को ही देखें तो सैकड़ों उस पर अत्याचार हुये। पृथ्वी की कोई जगह नहीं जहां पर खून नहीं बहा हो या जो पूर्णतः पवित्र हो। कहीं पर मल विसर्जन हुआ होगा, कहीं पर मूत्र विसर्जन हुआ होगा। पवित्र कहीं पर भी धरती है ही नहीं। और बिना पवित्रता के इतनी उच्च कोटि की साधनाये सम्पन्न हो ही नहीं सकती और अगर साधनायें सम्पन्न नहीं हो सकती तो फिर जीवन अपने आपमें व्यर्थ है। फिर तो सिर्फ एक मल मूत्र युक्त जीवन है। ऐसा जीवन क्या काम का है? इस जीवन के माध्यम से हम सिद्धाश्रम कैसे पहुँच सकते हैं? उसके माध्यम से हजारों वर्षों की आयु प्राप्त योगियों के दर्शन कैसे कर सकते हैं? और अगर ऐसा नहीं कर पायेंगे तो इस जीवन का अर्थ क्या? फिर जीवन का मतलब क्या? क्या इसी प्रकार घसिट करके जीवन को समाप्त कर देना जीवन है? ऐसे ही जीवन बर्बाद हो जाना है?
ऐसे तो कई पीढि़यों के जीवन बर्बाद हो चुके हैं और आज उनके जीवन का नामो निशान भी नहीं है। आपको अपने दादा परदादा तक का तो नाम शायद याद हो मगर उससे पहले तो आपको नाम ही मालूम नहीं कि कौन मेरे परदादा के पिता थे उन्होंने क्या कार्य किया। केवल जीवन घसीटते हुए उन्होंने बिता दिया।
अगर आप भी ऐसा ही जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो फिर आपको जीवन में गुरू की जरूरत है ही नहीं, फिर जीवन का मतलब ही नहीं है। शरीर पर साबुन लगाने से जीवन स्वच्छ नहीं बन सकता, यदि आप चार दिन स्नान नहीं करे तो शरीर से बदबू आने लग जायेगी। कोई पास खड़ा होगा तो कहेगा क्या बात है तुम्हारे शरीर से इतनी बदबू आ रही है, स्नान नहीं किया क्या? यह शरीर कितना अपवित्र है कि चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता और हम कल्पना करते हैं कि भगवान कृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी। सुगंध तब प्रवाहित होती थी जब गंध या दुर्गंध मिटती है। राम के शरीर से सुगंध प्रवाहित होती थी, उच्च कोटि के योगीयों के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती है तो हममे क्या कमी है कि हमारे शरीर से अष्टगंध प्रवाहित नहीं होती? पास में से निकले और दूसरे अहसास करे कि यह पास में से कौन निकला यह सुगंध कहां से आई। ऐसी सुगंध जो कस्तूरी की नहीं है, केसर की नहीं है और किसी चीज की नहीं है, हिना की नहीं है, इत्र की नहीं है, गुलाब की नहीं है। यह गंध क्या है, यह चीज क्या है, इस व्यक्तित्व में क्यों हैं? अगर ऐसा जीवन नहीं बना तो जीवन का मूल्य, मतलब, अर्थ और चिंतन क्या है?
ब्रह्मा कह रहें कि यह आने वाली पीढि़यां नहीं समझ सकेंगी और अगर ऐसा जीवन नहीं हुआ तो हमे ऐसे ही घिसटते हुए जो पशु या बैल उठता है और एक घाणी के बैल की तरह गोल गोल घूमता रहता है ऐसे ही मनुष्य नौकरी या व्यापार में घूमता रहेगा और एक दिन मर जायेगा। जो यह मनुष्य शरीर भगवान ने दिया है, इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के लिये देवता भी तरसते हैं। वे येन केन प्रकारेण मनुष्य रूप में जन्म लेने का प्रयत्न करते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैं, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं, महावीर के रूप में जन्म लेते हैं, ईसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर के रूप में जन्म लेते हैं और मनुष्य के रूप इसलिये धारण करते हैं कि इस शरीर से कुछ ऐसा हो जो अपने आपमें अद्वितीय है।
हमें मनुष्य शरीर मिला है और हम उसका उपयोग नहीं कर सकते, हम इस शरीर को जमीन से ऊपर नहीं उठा सकते, शून्य में आसन नहीं लगा सकते इस शरीर को ब्रह्म में लीन नहीं कर सकते इस शरीर को अष्टगंध से युक्त नहीं बना सकते। ऐसी कृष्ण में क्या विशेषता थी? राम में क्या विशेषता थी? और हममें क्या न्यूनता है?
ब्रह्मा के दूसरे श्लोक का अर्थ यह है और इस शरीर को पवित्र बनाने के लिये यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में जाये, जब प्राण तत्व में जायेंगे तो देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं। फिर भी हम जीवन के सारे क्रिया कलाप करेंगे मगर फिर मल मूत्र विसर्जन की जरूरत नहीं रहेगी। फिर भूख प्यास नहीं लगेगी, फिर भोजन और पानी की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य में हम आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी, फिर अहसास हो सकेगा की हम कुछ हैं। फिर अंदर एक चेतना पैदा हो सकेगी अंदर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, फिर सारे वेद, सारे उपनिषद अपने आप कंठस्थ हो जायेंगे क्योंकि प्राणमय कोष में होने पर व्यक्ति को वेद पुराण, उपनिषद पढ़ने की जरूरत नहीं होती।
आप कितना पढ़ पायेंगे, कितना याद कर पायेगे, आप कितनी साधनाये करेंगे, कितने मंत्र जपेंगे, कब तक जपेंगे, ज्यादा से ज्यादा साठ साल की उम्र तक पैंसठ साल की उम्र तक या सत्तर साल की उम्र तक। इस जीवन को अद्वितीय कैसे बना सकेंगे? और फिर अद्वितीय भी नहीं बनाया तो फिर जीवन का अर्थ भी क्या रहा?
फिर तो जैसा जीवन है वैसा जीवन व्यतीत करके चले जायेंगे और फिर तो जैसे दूसरे लोग हैं वैसे ही आप हैं, जैसे आपके चाचा हैं वैसे ही आप हैं, जैसे आपके पिता हैं, वैसे ही आप हैं, जैसे आपके मामा हैं, वैसे ही आप हैं। फिर आपमें और उनमें अंतर क्या है? और फिर अंतर नहीं है तो मेरा या गुरू का उपयोग क्या है? फिर मैं गुरू बना ही क्यों? फिर मेरे जीवन का अर्थ क्या, चिंतन क्या अगर मैं शिष्यों को चेतना और ज्ञान नहीं दे सकूं?
ब्रह्मा कह रहें है कि फिर गुरू का जीवन में अर्थ है ही नहीं, ब्रह्मा को भी गुरू कहा गया कृष्ण को भी गुरू कहा गया। कृष्णं वंदे जगद्गुरूं। कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं किया, कृष्ण को जगद गुरू के रूप में याद किया गया। उनको गुरू क्यों कहा गया? इसलिये की उन्होंने उन साधनाओं को प्राप्त किया, उस चेतना को प्राप्त किया, जिसके माध्यम से उसके शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हो सकी। उनके शरीर में चेतना प्रवाहित हुई और प्राण तत्व जाग्रत हुआ। यह जीवन का अर्थ है यह जीवन का धर्म है, यह जीवन की बहुत बड़ी तपस्या है। हजार साल के अध्ययन के बाद भी आप इस चीज को प्राप्त नहीं कर सकते, पुस्तकों से प्राप्त नहीं कर सकते, मंत्र जप से भी प्राप्त नहीं कर सकते, रोज गंगा में स्नान करके भी नहीं प्राप्त कर सकते। अगर गंगा में स्नान करने से कुछ उच्चता बनता है तो मछलियां तो हर समय स्नान करती हैं, वे तो अपने आपमें कभी की उच्च बन जाती। उच्च बनने की तो दूसरी ही क्रिया है और ब्रह्मा कह रहें हैं कि आने वाली पीढि़यां इस चीज को भूल जायेगी। इसलिये ब्रह्मा ने एक गुरू की भी स्थापना की और स्वयं अपने आपको गुरूदेव के रूप में स्थापित किया। उसने कहा- मुझे ब्रह्मा नहीं कहा जाये मुझे गुरू कहा जाये ताकि मैं अपने अट्ठारह पुत्रें को ज्ञान दे सकूं।
उन्होंने अपने अट्ठारह पुत्रें को वह ज्ञान दिया जिसके माध्यम से व्यक्ति जमीन से ऊपर उठ करके शून्य साधना कर सके, उनको यह ज्ञान दिया जिससे वे मल मूत्र विसर्जन मुक्त बन सकें, उनको भूख, प्यास की चिंता नहीं रहे। इसलिये ऐसा किया क्योंकि हिमालय में कहां से भोजन मिलता। जो हिमालय में साधना करते हैं उन्हें भला भोजन और पानी कहा से मिलेगा। मगर फिर भी वे साधनाओं में उच्च कोटि के हैं। हम गृहस्थ में रहते हुए भी उच्च कोटि के व्यक्तित्व बन सकते हैं। वे उच्च कोटि के हैं मगर जरूरी नहीं ऐसा दिखाई दे। कोई करोड़पति हैं तो जरूरी नहीं की करोड़ रूपये दिखाए— उसका चेहरा, उसकी बोली, उसकी ठसक, उसके बोलने की क्रिया अपने आप बता देती है कि वह करोड़पति हैं। शेर अपने मुंह से बोलता नहीं कि मैं शेर हूँ। वह तो उसकी चाल, उसकी ढाल, उसकी चलने की क्षमता, उसका वक्ष स्थल, उसकी तेजस्विता, उसके बिखरे हुए बाल, उसकी दहाड़ एकदम बता देती है कि वह शेर हैं, व्याघ्र है। मरी हुई चाल नहीं है, एक रोती हुई चाल नहीं है, वह दहाड़ता है तो जंगल अपने आपमें दहल उठता है।
आप जब बोलते हैं तो पास वाले व्यक्ति पर प्रभाव भी नहीं पड़ता, इसलिये की आपकी वाणी में वह ओज वह क्षमता नहीं है। आपका व्यक्तित्व तेजस्वी नहीं है, इसलिये की आपका शरीर दुर्गंध युक्त है, इसलिये की आपके शरीर में कुछ है ही नहीं। आपके शरीर में केवल मल मूत्र है और खून, हड्डियां और नाडि़यां हैं। यह जीवन जिसका आप बहुत बखान कर रहे हैं, तारीफ कर रहें हैं यह जीवन तो बहुत तुच्छ और ओछा है। इसमें कुछ है ही नहीं अच्छा जिसकी आप प्रशंसा कर सके। यह ऐसा है जिसका कोई उपयोग ही नहीं हो सकता। गाय मरेगी तो उसकी चमड़े से जूती तो बनेगी, आपकी चमड़ी से तो जूता भी नहीं बन सकता, आपकी हड्डियों से भी कोई चीज नहीं बन सकती। आपके शरीर को केवल राख बन जाना है।
मगर इसके साथ-साथ इस शरीर में यह विशेषता है कि यह शरीर अपने आपमें दैदीप्यमान बन सकता है, तेजस्विता युक्त बन सकता है। वह नहीं बनेगा तो बाकी सारी साधनाये बेकार हैं व्यर्थ हैं तुच्छ है वे हो ही नहीं सकती, संभव ही नहीं है। मैं आपको हीरे लाकर दे भी दूं और आपको हीरों का ज्ञान ही नहीं है तो आप कांच के टुकडे समझ कर एक तरफ रख देंगे क्योंकि आपको उनका मूल्य मालूम नहीं है। मैं आपको मंत्र दूंगा, साधनाये भी दूंगा मगर आप उन साधनाओं का मूल्य, अर्थ और महत्ता नहीं समझ पायेंगे, उस योग्य नहीं बन पायेंगे तो आप उन साधनाओं का उपयोग भी कैसे कर पाएंगे। जीवन में अद्वितीयता हो यह जीवन का धर्म है, हम हैं और हम ही हैं और हमारे जैसा कोई नहीं है ऐसा हम बनें तब जीवन का महत्व है, तब आपका चेतना युक्त व्यक्तित्व है।
ब्रह्मा कह रहें हैं कि ऐसा हो और ऐसा शिष्य को बना सके तब वह गुरू है। मगर उससे पहले गुरू अपने आपमें पूर्ण प्राणवान हो, तेजस्विता युक्त हो, उसकी वाणी में गंभीरता हो, शेर की तरह दहाड़ हो, एक क्षमता हो, आँख में ताजगी हो, एक तेजी हो, जिसको देख ले वह सम्मोहित हो। अगर अपने आपमें क्षमता हो तो वह दूसरों को, शिष्यों को ज्ञान दे सकता है। की परीक्षा गुरू आप कर भी कैसे सकते हैं, आपके पास कोई कसौटी नहीं कोई मापदंड नहीं है। उनसे बातचीत से, उनके पास बैठकर उनकी ज्ञान की चेतना से, उनके प्रवचन से और उनकी सामीप्यता से हम एहसास कर सकते है कि यह गुरू है। एक एहसास है, एक विश्वास है, अपने आप में एक गर्व है कि हम उनके शिष्य हैं। यह गर्व छोटी चीज नहीं हैं, यह बहुत महान चीज है कि एक ऐसे व्यक्तित्व के शिष्य हैं जिनमें हजारों-हजारों पोथियों का ज्ञान है। आप कितने वेद याद करेंगे, कितने पुराण याद करेंगे, कितने शास्त्र याद करेंगे।
याद करने से क्या हो जायेगा आप क्रियमाण नहीं बन पायेंगे। इसीलियें ब्रह्मा ने अपने उस श्लोक की चौथी लाइन में कहा है कि यदि व्यक्ति में समझदारी है, यदि उसमें कुछ भी क्षमता है, समझदारी का एक कण भी है तो उसको यह समझना चाहिये की मुझे ऐसा जीवन जीना ही नहीं, जो कि मल मूत्र युक्त हो। ऐसे जीवन की कोई सार्थकता नहीं है। ऐसे जीवन का कोई अर्थ नहीं है। हमने चालीस साल बिता दिये ऐसे जीवन को जीते हुये और हम रोग के अलावा कुछ पैदा ही नहीं कर पाये। चार बच्चे पैदा कर पाये और छः रोग पैदा कर पाये। मुठ्टी भर दवाइयां लेते हैं और जिंदा रहते हैं। और हमने जीवन में किया क्या? हमने स्वयं में ऐसा क्या किया कि हम दैदीप्यमान बन सकें तेजस्विता युक्त बन सके हमारे शरीर से सुगंध प्रवाहित हो, हम जीवन से ऊपर उठ सकें, प्राण तत्व में जा सकें। जा नहीं सके तो आप धीरे-धीरे जरा युक्त हो जायेंगे, बूढ़े हो जायेंगे, मृत्यु को प्राप्त हो जायेंगे और गुरू आपके पास से निकल जायेगा। आज आप मुझे मिलने आये, कल आप अपने घर चले जायेंगे हम बिछुड जायेंगे। फिर चार छः महीने बाद मिलेंगे, फिर बातचीत करेंगे और हम फिर बिछुड जायेंगे। फिर वह क्षण कब आयेंगा जब मैं आपको दैदीप्यमान बना सकूंगा और आपमें क्षमता आयेगी की मुझे दैदीप्यमान बनना है, अद्वितीय बनना है, श्रेष्ठतम बनना है? फिर वह भावना आपमें आयेगी कब?
मैं आपको चैलेंज के साथ कहता हूँ कि ऐसा हो तब आपका जीवन है नहीं तो जीवन आपका बेकार है, तुच्छ है, व्यर्थ है। और दैदीप्यमान तब हो सकता है जब इस टयूब लाइट के अंदर लाइट होगी तो यह रोशनी देगी अन्यथा इसमें अंधेरा ही रहेगा अंधेरे में रोशनी नहीं पैदा हो सकती। आपके शरीर के अंदर कोई बटन नहीं हैं कोई मशीनरी नहीं है कि मैं बटन दबाऊं और आप तेजस्विता युक्त हो जाये तो फिर कौन सी क्रिया है? साधनाये आप दो सौ साल कर नहीं सकते। अगर मैं आपको अठारह घंटे एक आसन पर बैठने के लिये कहूं तो आप बैठ नहीं सकते। संभव नहीं है और उसके बाद भी आपका मन कितना शुद्ध है यह भी आवश्यक है क्योंकि अशुद्ध शरीर में शुद्ध मन होगा भी कैसे? जब हमारा शरीर दुर्गंध युक्त है तो उसमें सुगंध व्याप्त होगी भी कैसे? आपमें सुगंध कहाँ से आयेगी? बदबू में सुगंध प्रवाहित हो भी नहीं सकती केवल देह तत्व में जिंदा रहने से प्राण तत्व जाग्रत नहीं हो सकते। अगर वैसा नहीं हो सकता तो जीवन बेकार है। हम रिटायर हो जायेंगे और मर जायेंगे। फिर ज्ञान कहां से प्राप्त होगा, चेतना कहां से प्राप्त होगी? फिर शुद्ध मन कहां से पैदा होगा? शुद्ध मंत्र आपको कहां से प्राप्त होगा?
गायत्री मंत्र का उदाहरण है, कहा गया है कि चौबीस अक्षरों की गायत्री मंत्र पूर्ण गायत्री मंत्र माना जाता है। यह गायत्री मंत्र ही आप अधूरा पढ़ रहे हैं। वह पूर्ण मंत्र एक बहुत ही तेजस्वी मंत्र है और उसको आप तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब आप स्वयं तेजस्विता युक्त बने और आप योग्य तब बन सकेंगे जब गुरू प्रसन्न हो और आपमें वह चेतना प्रवाहित कर दें। ब्रह्मा ने उस श्लोक में बहुत महत्वपूर्ण बात कही है। ऋगवेद से भी पहले ब्रह्मा ने यही बात कही। उसने कहा कि एक ही क्रिया है। यदि गुरू प्रसन्न हो तो वह हो सकता है।
गुरू प्रसन्न होता आपकी सेवा से, प्रसन्न होता है आपके साहचर्य से, प्रसन्न होता है आपके हृदय की सामीप्यता से। जब आपके प्राण मेरे प्राणों से जुड़ जाये, जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि इस व्यक्ति को जिंदा रखना है, जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि मेरा जीवन चाहे बर्बाद हो जाये मगर इस व्यक्ति को स्वस्थ रखना है, जब आप हर क्षण यह चिंतन करें कि यह व्यक्ति तेजस्विता युक्त है, प्राणास्विता युक्त है मेरा शरीर तो छोटा सा शरीर है, हजार-हजार शरीर भी इनके आगे समर्पित हो सकतें हैं, यह व्यक्तित्व जिंदा रहे जब ऐसी भावना आपके अंदर आये तब आप मेरे शिष्य हैं, तब मैं आपका गुरू हूँ।
अन्यथा, मैंने आपको सब कुछ दिया ही दिया है मैं आपसे कुछ प्राप्त नहीं कर पाया, आपके धोती कुर्ते से, आपके हीरे के बटनों से, आपके हीरे की अंगूठियों से मैं प्रसन्न होने वाला नहीं हूँ और न मुझे आवश्यकता है। मैं तो टूक आपको कहता हूँ कि आप मेरे चरणों में पाँच पैसे भी नहीं चढ़ायें, कुछ भी नहीं चढ़ाये। मुझे कुछ देने की जरूरत नहीं है आपको। मुझे इस बात की आवश्यकता नहीं है। इस बात की आवश्यकता है कि आप कुछ बनें। बार-बार मेरा जोर इसी बात पर है। यह शरीर सिद्धाश्रम चला जायेगा तो आप बिलकुल अंधेरे में भटकते रहेंगे। कोई आपको रोशनी नहीं मिल पाएगी। कोई आपको भटकाएगा और आप भटक जायेंगे। कुछ भी करिये फिर आप एक जगह से दूसरी जगह भटकेंगे, तीसरी जगह भटकेंगे क्योंकि कुतर्क आपको बराबर भटकायेगा। मगर यह जीवन कृष्णमय कैसे बन पायेगा, राममय कैसे बन पायेगा, सुंगधमय कैसे बन पायेगा, प्राणमय कैसे बन पायेगा और जो भगवान कृष्ण ने ग्यारहवें विराट स्वरूप दिखाया अर्जुन को। ऐसा आपके शरीर में विराट कैसे स्थापित हो पायेगा?
वह नहीं स्थापित हो पायेगा तो मल मूत्र भरी देह आप मेरी चरणों में चढ़ायेंगे भी क्या? जब आप शरीर में गुलाब का इत्र लगाते हैं तो मैं समझता हूँ कि आप क्या भेंट चढ़ा रहें हैं। मल मूत्र से भरा हुआ शरीर चढ़ा रहे हैं। गुरू के चरणों में क्या चढ़ाया जा सकता है? क्या है कुछ ऐसा जो चढ़ाया जा सकता है? चढ़ाया जा सकता है सुगंधित कमल, चढ़ाया जा सकता है सुगंधित जीवन, चढ़ाया जा सकता है प्राणस्विता युक्त जीवन और ऐसा जीवन जो जमीन से ऊपर उठकर साधना सम्पन्न कर सके और इसके लिये जो गुरू इतना ज्ञानवान है, उसको ही अपने शरीर में समाहित कर लें तो फिर शरीर अपने आप ही सुगंधित बन जायेगा। फिर दूसरी किसी चीज की आवश्यकता है ही नहीं, फिर किसी मंत्र की भी आवश्यकता नहीं है।
ब्रह्मा ने कहा है कि आगे की पीढि़यों में व्यक्ति इस बात को समझ नहीं पायेगा और मैं कह रहा हूँ कि ब्रह्मा ने यह कहा तो अपने समय में कहा, मेरे शिष्य इस बात को समझ सकते हैं, इस बात का एहसास कर सकते हैं कि हमें ऐसा घिसा पिटा जीवन जीना ही नहीं हैं। आज मृत्यु आ जाये तो आप मरने को तैयार हैं या फिर उच्च कोटि का जीवन जीने के लिये तैयार है। दोनों में से एक ही होना चाहिये, घिसा पिटा जीवन नहीं चाहिये।
हजारों की भीड़ में आप भी खड़े हैं तो मेरा गुरू बनना ही बेकार है, हजारों की भीड़ में आप अकेले दहाड़ते हुए दिखाई दें, आपका वक्षस्थल आपका चेहरा, आपकी तेजस्विता, एकदम पैनी आँखें दिखाई दें। लोग आपको देंखे तो मुड़-मुड़ कर देखें। तो फिर गर्व से मेरा सीना फैलेगा कि यह मेरा शिष्य है अपने आपमें शेर की तरह व्याघ्र की तरह है, और मेरे लिए मर मिटने के लिए तैयार है। मैं जो कुछ हूँ वह तो मेरे गुरू की देन है। मुझे भी क्रिया करनी पड़ती है आपके बीच में, माया करनी पड़ती है और प्राण तत्व में भी रहना पड़ता है। मुझे दोनों प्रकार का जीवन जीना पड़ता है और दो जीवन एक साथ जीना बड़ा कठिन है। मगर यह एक दूसरा ही प्रसंग है। जब संन्यास जीवन था तब कोई चिंता थी ही नहीं, बस देखा जायेगा, शिष्य है और हम हैं, बाकी कोई परवाह ही नहीं थी। अब गृहस्थ जीवन में है तो गृहस्थ जीवन भी जीना है और सिद्धाश्रम युक्त जीवन भी जीना है। दोनों जीवन में सामंजस्यता लाने में अंदर कितना विलोड़न होगा। आप शायद इसकी कल्पना नहीं कर सकते।
ब्रह्मा ने कहा कि ये शिष्य नहीं समझ पायेंगे, ये लोग नहीं समझ पाएंगे। उनको यह ज्ञान देना ही नहीं है और मैं कह रहा हूँ कि वह ज्ञान काम का भी क्या कि वे योगी कंदराओं में बैठे हैं, साधु संन्यासी मंत्र जप कर रहे हैं, बेकार तुच्छ और घटिया है जो कंदराओं में छिप कर बैठे हैं। यहां बीच में आकर ज्ञान देना चाहिये यह उनका धर्म है यह उनका कर्तव्य है। ऐसे कंदराओं में छिपकर बैठने की जरूरत नहीं है। वह नहीं समझ पाये यह उनका दुर्भाग्य है, वे समझ पाये यह उनका सौभाग्य है।
ब्रह्मा ने कहा हम उन मंत्रें के माध्यम से, चेतना के माध्यम से, तेजस्विता के माध्यम से, अपने शरीर को एकदम से सुगंध युक्त, दैदीप्यमान, सूर्य के समान प्रखर और तेजस्वी, हजारों-हजारों सूर्य के समान तेजस्विता वाला बना सकते हैं। एक सूर्य नहीं हजार सूर्य के समान बना सकते हैं। सारे शरीर से एक सुगंध प्रवाहित हो। हम चलें और एक मील दूर तक सुगंध प्रवाहित हो, एहसास हो सके परिवार को, समाज को और हमको खुद को और उसके लिये क्रिया है अपने आपमें, शरीर में पूर्णता के साथ गुरू को स्थापित कर देना अंदर उतार देना और अंदर गुरू तभी उतर सकेगा जब मल मूत्र युक्त नहीं होगा जीवन। पवित्र होने पर ही अंदर उतर सकेगा वह। गंदगी में वह नहीं बैठ सकेगा।
अंदर उतरना गुरू का कर्तव्य है, गुरू का धर्म है। ऐसा होने पर ही जीवन में सिद्धि और सफलता प्राप्त हो सकती है। ऐसा होने पर ही भूमि से ऊपर उठकर साधनाएं सम्पन्न हो सकती हैं। ऐसा होने पर ही अपने आपमें सौंदर्य निखरता है। ऐसा होने पर ही सारे देवी देवता हाथ जोड़कर खड़े हैं तो यह कोई गलती नहीं है क्योंकि ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मैं स्वयं ब्रह्म हूँ ऐसा शंकराचार्य ने कहा है, ब्रह्मा ने कहा है। मैं स्वयं देवता हूं। मैं देवताओं को प्रणाम करता हूँ इसका मतलब यह नहीं कि मैं एक घटिया व्यक्तित्व हूँ, मैं ओछा व्यक्तित्व नहीं हूँ, उन देवताओं के समक्ष खड़ा रहने वाला व्यक्तित्व हूँ और मैं हूँ यह बहुत बड़ी बात नहीं है आपको भी वैसा उच्चकोटि का व्यक्तित्व बना दूं यह बड़ी बात है और मैं ऐसा ही बनाना चाहता हूँ आपको। यह हो सकता है गुरू रक्त रूपेण स्थापन क्रिया द्वारा। शरीर का कोई भाग नहीं है जहां रूधीर नहीं है, आँख के छोर में भी अठ्टारह नाडियां हैं और उन अट्ठारह नाडियों से पुतली बनती है और उसमें खून बहता है। मैंन गुरू हृदस्थ धारण प्रयोग कराये हैं, गुरू रूधिर स्थापन क्रिया हो कि रक्त के एक-एक कण में गुरू समाहित हो और सारा शरीर अपने आपमें गुरूमय बन जाये, दैदीप्यमान बन जाये, तेजस्विता युक्त बन जाये। एक ही बार में एक ही झटके में सब कुछ प्राप्त हो जाये यह जीवन की श्रेष्ठता है जीवन की पूर्णता है, जीवन की उच्चता है।
जो मंत्र इस गुरू रक्त स्थापन क्रिया में गुरू बोलता है या उच्चारण करता है वह फुल स्केच के चौदह पंद्रह पृष्ठों में एक मंत्र आता है और वह कही पुस्तकों में वर्णित नहीं है क्योंकि वह मंत्र ही नहीं है, पूर्ण स्वामी सच्चिदानंद और समस्त योगी, यदि संन्यासियों के साथ हृदय में गुरू तत्व स्थापन की एक उच्च क्रिया है और यह क्रिया हो जाने पर यदि आप केवल महीने भर या सवा महीने अभ्यास करेंगे तो पहले केवल उंगलियाँ उठेंगी, फिर एक सूत पांव उठेंगे, फिर धीरे-धीरे एक इंच पांव उठेंगे, फिर पाँच इंच पांव उठेंगे और धीरे-धीरे आप शून्य में आसन लगाने की आप क्रिया सम्पन्न कर सकेंगे। तब आप समझ पायेंगे की यह मंत्र और यह क्रिया कितनी तेजस्वी है।
इसके लिये तीस दिन बहुत होते हैं। इक्कीस बाईस दिन बाद ही लगता है जैसे आप ऊपर उठ रहे हैं और तीसवें दिन लगता है कि आप उठ गये हैं और फिर आप अपने किसी परिवार के सदस्य को कहें कि मेरे नीचे से स्केल निकालो कि क्या मेरे पावों और जमीन के बीच से स्केल निकल जाती है और निकल जाये तो समझें कि आप जमीन से ऊपर उठे। आज के युग में यह सब असंभव लग सकता है। परंतु यह एक प्रमाणिक क्रिया है जिसे आप गुरू के माध्यम से सम्पन्न कर सकते हैं, जिसे आप गुरू से प्राप्त कर अपने जीवन को और की उच्चता श्रेष्ठता ओर अग्रसर कर सकते हैं और गुरू वह है जो आपको हर प्रकार का ज्ञान दे सके, हर क्षेत्र का चिंतन दे सके, हर प्रकार की साधना दे सके चाहे वह लक्ष्मी की साधना हो, गुरू प्राण स्थापन साधना हो, भैरव साधना हो या शमशान जागरण साधना हो। गुरू तो हर चीज देने में सक्षम है, आवश्यकता इस बात की है कि आप प्राप्त करने के योग्य बन सकें। यह गुरू का धर्म है कि वह दे, कुछ भी छिपाये नहीं, परन्तु यह भी आवश्यक है कि शिष्य उसे प्राप्त कर सकें, आत्मसात कर सके।
करीब पंद्रह साल पहले मैं हरिद्वार गया था, एक महीने भर हरिद्वार रहा था। पत्नी ने कहा कि कल्पवास करते हैं। कल्प वास का अर्थ है कि महीने भर तक गंगाजी के तट पर रहना, गंगाजी के पानी से आटा गूंथना, खुद के हाथ से रोटी बनाना और खाना या पत्नी के हाथ से रोटी बनाना और खाना और वहीं कुटिया बनाकर के रहना तो हमने कहा चलिये कल्पवास कर लेते हैं। वहां पर एक सन्यासी था। साधू, संन्यासी वहाँ बहुत भटकते रहते हैं।
मगर वह लड़का बहुत समझदार था, हट्टा-कट्टा और मजबूत था और वह रोज सेवा करता। परिचय हो गया पांच सात दिन में और सेवा यह करता कि कभी सब्जी लेकर आ जाता, कभी आलू लेकर आ जाता, मेरे पैर दबवाने की आदत है तो कभी पैर दबा देता, कभी गरम पानी कर देता और निःस्वार्थ भाव से ऐसा करता रहा। हम महीने भर वहां रहे और महीने भर के बाद मैंने ही कहा कि तुम शायद मुझे पहचानते नहीं हो। उसने कहा-गुरूजी मैंने आपको पहचानने के बाद ही सेवा शुरू की है, पहले से मुझे मालूम था आप कौन हैं, इसलिये मैं पागल नहीं हूँ गया-बीता नहीं हूं। मैं घुटा हुआ हूँ। वह बिहार का था, कहीं का। मैंने कहा-तुम बिहारी हो। उसने कहा-हंड्रेड परसेंट बिहारी हूँ। तो मैं समझ गया कि ऐसी बात कोई कह ही नहीं सकता। मैंने कहा- चलो कोई बात नहीं, होशियार हो तुम। तुमने सेवा की क्या सिखाऊं तुम्हें। तुम जो भी कहो, मगर एक ही विद्या सिखाऊंगा तुम्हें।
उसने कहा- मैंने तीस दिन सेवा की आप एक ही विद्या सिखाओगे? मैंने कहा- एक ही सिखाऊंगा। उसने कहा- मैं महीने भर बाद आपके घर आकर सीख लूं तो। मैंने कहा- महीने भर बाद आ जाना। उसके बाद तीन चार महीने तक वह आया ही नहीं। मैं भी भूल गया, मैं भी दूसरे कामों में लग गया। एक दिन वो जोधपुर पहुँच गया। मैंने सोचा इसे कहीं देखा है, मैं उसे कुछ भूल सा गया था। मैंने कहा- मैंने तुम्हें कहीं देखा है, साधू हो तुम? उसने कहा- गुरू जी महीने भर तक मैंने आपकी सेवा की है। आपने कल्पवास किया था।
मैंने कहा- हाँ, हाँ ठीक बिलकुल सही बात है, बोलो क्या चाहते हो तुम? उसने कहा- गुरूजी कुछ नहीं चाहता हूँ, बहुत मर्द हूँ, ताकतवान हूँ, मगर मैं शमशान जागरण करना चाहता हूँ कि भूत कैसे नाचते हैं, प्रेत कैसे नाचते हैं, पिशाच कैसे नाचते हैं। बस एक बार पिशाच किसी के पीछे लगा दिया तो रोयेगा। जिंदगी भर। किसी को भूत लगा दिया तो मरेगा। पहले भूत लगा दूंगा, फिर पांच हजार रूपये लेकर उतार दूंगा।
मैंने कहा- तू मुझसे भी बहुत ऊँचा है, मगर यह विद्या तो मुझे ही नहीं आती। उसने कहा- नहीं गुरू जी आपको आती है। आती है और मुझे सिखानी पड़ेगी। बस भूत लगाऊंगा और पैसे कमाऊंगा और वापस भूत उतार दूंगा, ठीक कर दूंगा। चमत्कार भी हो जाएगा और कमा भी लूंगा। अब मैं वचनबद्ध अलग। हाँ भरू तो खोटा, न कहु तो खोटा। मैंने कहा कल बताऊंगा। उसने कहा- गुरू जी कल आप मना कर देंगे। आप बस बता दीजिये कि कल सिखाऊंगा या महीने भर बाद सिखाऊंगा। आप बता दीजिये मैं यहां बैठा हूँ।
बैठा रहा, रात भर बैठा रहा, दूसरे दिन सुबह भी बैठा रहा, शाम को भी बैठा रहा। अगले दिन पत्नी ने कहा- यह ब्राह्मण है, संन्यासी है भूखा मर रहा है, कितना पाप लगेगा हमको, सेवा की है, आपने अपने मुंह से बोला है कि सिखाऊंगा तो सिखा दीजिये इसे। मैंने कहा- सिखाना तो ठीक है, मगर इसने दूसरा पाइंट एक अलग बताया है कि पहले भूत लगा दूंगा, फिर वह नाचेगा, कूदेगा और पैसे लेकर मैं उतार दूंगा। मंत्र से उतार दूंगा और दो हजार रूपया खर्चा बता दूंगा। यह गड़बड़। मैंने उसे बताया कि तू यह नहीं करेगा। पर वह कहता है कि फिर तो सीखना ही बेकार है।
फिर वह पीछे पड़ा रहा तो मैंने उससे कहा- मैं तुझे यह भूत लगाना भगाना नहीं सिखाऊंगा। बस तुझे जो भूतों का नृत्य देखना है, शमशान जागरण देखना है वह दिखा दूंगा। वह बोला- गुरूजी बस महीने में दो तीन केस मुझे करने दीजिये उससे मेरा काम चल जायेगा, दो तीन केस में मैं पार हो जाऊंगा। मैंने कहा- ऐसा कुछ नहीं मैं सिखाता मगर तू आया है तो तुझे शमशान जागरण दिखा अवश्य दूंगा। जोधपुर में शमशान है, घर से, करीब सात आठ किलो मीटर दूर। पहले मैंने सोचा भी कि इसे शमशान ले जाऊंगा नहीं ले जाऊं मगर उसका शरीर बहुत मजबूत था, बहुत ताकतवान था। एम्बेस्डर गाड़ी थी मेरे पास तो गाड़ी में ले गया उसे शमशान। वहां जो डोम था वह परिचित था कि गुरूजी कभी-कभी शमशान साधना करने आते है। पहले करता था, अब तो छोड दिया, पंद्रह साल हो गए। गाड़ी मैंने पार्क की शमशान के बाहर और उसे कहा चलो अंदर चलो।
चले अंदर। वहां मैने एक घेरा बनाया, बीच में उसे बिठा दिया और कहा देख यहां शमशान जागरण में बहुत भयंकर दृश्य दिखाई देंगे पहले बता देता हूं। पर डरने की बात नहीं है। भूत होंगे, प्रेत होंगे, कोई अट्टहास करेंगे, किसी के सींग होंगे और तुम डर जाओगे तो बहुत मुश्किल हो जायेगी, मैं मंत्र दे रहा हूँ उसका जप करना मगर यह याद रखना कि जो यह घेरा है इसके अंदर कोई नहीं आ पायेगा, बाहर चाहे कुछ भी झपट्टा मारे, तुम घबराना नहीं, न मेरा कुछ बिगड़ेगा। मैंने कहा- बस तू अपना ध्यान रखना। उसने कहा- गुरू जी आप चिंता मत करिये आप चिंता बहुत करते हैं, थोड़ा टेंशन फ्री रहिये गुरू जी।
मैंने सोचा चलो ठीक है। उसके चारों तरफ घेरा बना दिया घेरे में मैं भी बैठ गया और उसे भी बैठा दिया दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके। उसके बाद मैंने शमशान जागरण आरंभ किया, उसके बाद मैंने शमशान जागरण किया ही नहीं, बस वही था लास्ट। तो ज्योहि शमशान जागरण प्रारम्भ क्यिा तो शमशान में जितने भी भूत, पिशाच, राक्षस थे वे उठ-उठ कर आने लगे और कोई नाच रहा है, कोई कूद रहा है, कोई खून पी रहा है, कोई हल्ला कर रहा है, कोई मल्ल युद्ध कर रहा है, किसी के सिंग निकले है, किसी के दांत निकले हैं। मेरा तो रोज का अभ्यास था, संन्यास जीवन में मैं था ही तो मेरे लिये कोई बड़ी बात नहीं थी। पर उसने तो दो चार मिनट देखा फिर आंखें बंद कर ली। मैंने उधर ध्यान ही नहीं दिया कि मजबूत आदमी है, हट्टा कट्टा है, मुझे कोई चिंता की बात ही नहीं है। लेकिन तीन मिनट हुए नहीं कि खट्ट-खट्ट, खट्ट-खट्ट आवाज होने लगी। मैंने सोचा यह आवाज कहां से आ रही है? उधर देखा तो थर-थर कांप रहा है, दांत बज रहे हैं और हा हा हा हा कर रहा है। मैंने सोचा-मर जायेगा यह, एक संन्यासी की हत्या हो जायेगी और बहुत गड़बड़ हो जायेगी।
मैंने फटाफट शमशान को बंद किया उसे जगाया। मैंने कहा क्या हुआ अब तो उठ जा। वह चिल्लाया- अरे भूत, अरे भूत, अरे भूत—मैंने कहा- अरे भाई यहां भूत कुछ नहीं है, हो गया सब। वह बस कांपता रहा और बोलता रहा हर्र, हर्र, हर्र, हर्र— मैंने उसे उठाया, कंधे पर डाला और पीछे कार में डाला। डाल कर घर पर लाया, रास्ते भर चिल्लाता रहा- भूत आया, आया, आया हुर्र हुर्र—। मैंने सोचा यह तो हट्टा-कट्टा था, यह क्या गड़बड़ हो गई? माता जी ने कहा यह क्या लाये। मैंने सिखाया। दो मिनट ही हुये थे, शमशान जागरण आरंभ ही हुआ था उसके पहले इसके दांत ही टूट गये होंगे, कांपते हुये।
अब उसको हिलाऊं, डुलाऊं, पानी उसके ऊपर डाला, जूता सुंघाया मिर्ची की धूनी दी। वह उठा और बोला- भूत, भूत, हुर्र, हुर्र— मैंने कहा- यह मर जायेगा, मुश्किल हो जायेगी। मैंने कहा- भूत वूत कुछ नहीं है, यह शमशान नहीं है मेरा घर है, अब चिंता मत कर तेरे लिये दूध लाया हूँ, केसर डाल कर लाया हूँ अब गुरू जी तुझे अपने हाँथो से पिलायेंगे, अपना सौभाग्य देख। कितना तू महान शिष्य मुझे मिला, बहुत कृपा की तूने। करीब आधे घंटे, पौने घंटे के बाद उसने आँख खोली- मैं कहां हूँ? कहां हूँ? मैंने कहा तू मेरे घर में हैं। तू मेरे पास बैठा है। वह बोला- भूत आया, भूत आया।
मैंने कहा- भूत वूत कुछ नहीं आया, तू देख ले, यह मेरी पत्नी बैठी है तू देख लें। पंद्रह बीस मिनट आँखें फाड़-फाड़ कर देखता रहा, बड़ी देर के बाद वह संभला, उसे दूध पिलाया, कंबल ओढ़ाया। वह बोला- यह क्या हुआ?
मैंने कहा- कुछ नहीं हुआ। यह तो शुरूआत हुई थी, अब जब शुरूआत में यह खेल है तो अंत कहां होगा। उसके बाद छोड़ ही दिया मैंने शमशान जागरण करना या दिखाना। जैसा कि मैंने कहा कि गुरू तो हर चीज देने को तैयार बैठा है, आवश्यकता इस बात की है कि आप लेने के लिए तैयार है या नहीं। अगर गुरू दे और आप ले नहीं पाये, आत्मसात नहीं कर पाये, तो सब बेकार है, नगण्य है। आप लें और पूरी क्षमता के साथ लें यह आवश्यक है। गुरू तो साधनाओं का भंडार है, साधनाओं का सागर है, आप कितना ले पाये यह आप पर निर्भर है। और गुरू रक्त स्थापन क्रिया एक ऐसी क्रिया है, एक ऐसा चिंतन है, एक ऐसी साधना है जिसके द्वारा शिष्य अपने भीतर का सब मल, मैल, ओछापन, न्यूनता समाप्त करता हुआ पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकता है और अगर वह इस तेजस्वी क्रिया को पूर्णता के साथ आत्मसात कर लेता है तो निश्चय ही वह जमीन से पांच छः फूट ऊपर उठकर शून्य में आसन लगा सकता है और ऐसी उच्च स्थिति में सभी साधनाओं में सफलता प्राप्त कर सकता है। क्योंकि मैंने बताया कि जमीन पर बैठकर साधना में पूर्णता प्राप्त हो ही नहीं सकती। जमीन से ऊपर उठकर ही सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। गुरू तो हर क्षण आपके साथ है अगर आपकी श्रद्धा है तो। वह तो हर क्षण आपको सही मार्ग पर गतिशील करने को तत्पर है और मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देता हूँ कि मैं प्रतिक्षण आपके साथ हूँ हर सेकेण्ड आपके साथ हूँ, जीवन के प्रत्येक क्षण का मैं रखवाला हूँ, मैं आपके जीवन की रक्षा करूंगा, उन्नति करूंगा और आप भी जीवन में उच्चता प्राप्त कर पाये सफलता प्राप्त कर पाये ऐसा ही मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ, कल्याण कामना करता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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