इसके अलावा शरीर के अन्दर कुछ ऐसी चीज नहीं हैं, जिससे कि इस शरीर पर गर्व किया जा सके। हम भोजन करते हैं, वह भी मल बन जाता है। हम चाहे हलवा खायें, चाहे घी खायें, चाहे रोटी खायें, उसको परिवर्तित मल के रूप में ही होना है। सामान्य मानव शरीर में ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जो उसे दिव्य और चेतना युक्त बना सके और ऐसा शरीर अपने आप में व्यर्थ है, खोखला है, उस देह में उच्चकोटि का ज्ञान, उच्चकोटि की चेतना समाहित नहीं हो सकती।
आप चाहे कुछ भी खा पी लें, उससे इस शरीर में किसी प्रकार की कोई विशेषता उत्पन्न नहीं हो सकती, चेहरे पर कोई तेजस्विता प्राप्त नहीं हो सकती। क्यों नहीं प्राप्त हो सकती?
फिर मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ ही क्या रहा? जो पुष्प मल में पड़ा हुआ है, उसको उठा कर भगवान के चरणों में नहीं चढ़ाया जा सकता। यदि हम शरीर को भगवान के या गुरू के चरणों में चढ़ायें- हे भगवान! या हे गुरूदेव! यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है, तो शरीर तो खुद अपवित्र है, जिसमें मल और मूत्र के अलावा है ही कुछ नहीं। ऐसे गन्दे शरीर को भगवान के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं? ऐसे शरीर को अपने गुरू के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं?
देवताओं का सारभूत अगर किसी में है, तो वह गुरू रूप में है, क्योंकि गुरू प्राणायम कोष में होता है, आत्ममय कोष में होता है। वह केवल मानव शरीर धारी नहीं होता। उसमें ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसका सहस्रार जाग्रत होता है। न उसे अन्न की जरूरत पड़ सकती है, न पानी की जरूरत हो सकती है, न तो उसे मूत्र त्याग की जरूरत होगी, न मल विसर्जन की जरूरत होगी। जब भूख-प्यास ही नहीं लगेगी, तो मल मूत्र विसर्जित करने की जरूरत नहीं होगी।
इसलिये उच्चकोटि के साधक न भोजन करते हैं, न पानी पीते हैं, न मल मूत्र विसर्जित करते हैं जमीन से छः फुट की ऊँचाई पर आसन लगाते हैं और साधना करते हैं। जो इस प्रकार की क्रिया करते हैं, वे सही अर्थों में मनुष्य हैं। जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, जो मलयुक्त हैं, जो गन्दगी युक्त हैं, वे मात्र पशु हैं। इस जगह से उस जगह तक छलांग लगाने की कौन सी क्रिया है? कैसे वहाँ पहुँचा जा सकता है, जीवन में मनुष्य कैसे बना जा सकता है?
जीवन में वह स्थिति कब आयेगी, जब जमीन से छः फुट ऊँचाई पर बैठ करके साधना कर सकेंगे? जमीन का ऐसा कोई सा भाग नहीं है, जहाँ पर रूधिर न बहा हो। धरती का प्रत्येक इंच और प्रत्येक कण अपने आप में रूधिर से सना हुआ है, अपवित्र है, उस भूमि में साधना कैसे हो सकती है? बिना पवित्रता के उच्चकोटि की साधनाये सम्पन्न नहीं हो सकती, हजारो वर्षो की आयु प्राप्त नहीं की जा सकती, सिद्धाश्रम नहीं पहुँचा जा सकता और जब नहीं पहुँचा जा सकता तो ऐसा जीवन अपने आप में व्यर्थ है, किसी काम का नहीं है, वह सिर्फ जन्म मरण की यात्र ही कर सकता है। ऐसा जीवन तो आपकी पिछली अनेक पीढि़यां व्यतीत कर चुकी है और अब उनका नामोनिशान भी बचा नहीं है। आपको अपने दादा परदादा के सब नाम तो मालूम हैं, लेकिन आपको यह नहीं मालूम कि आपके परदादा के पिता कौन थे, उन्होंने क्या कार्य किया और किस प्रकार उन्होंने अपना जीवन बिताया, यदि आप भी ऐसा ही करना चाहते हैं, तो फिर आपको जीवन में गुरू की कोई जरूरत नहीं है।
यह शरीर कितना अपवित्र है, कि चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता। यदि आप चार दिन स्नान नहीं करें, तो आपके शरीर से बदबू आने लगेगी, कोई आपके पास बैठना भी नहीं चाहेगा, बात भी करना नहीं चाहेगा। जबकि भगवान श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हुई, राम के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हुई, बुद्ध के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी, उच्चकोटि के योगियों से अष्टगंध प्रवाहित होती है।
तो आप में क्या कमी है, जो अष्टगंध प्रवाहित नहीं होती? आप जब निकलें, तो दुनियां वाले मुड़ कर देखें, कि आप में से ऐसा क्या निकला? यह सुगंध कहाँ से आई? इसके व्यक्तित्व में क्या है?
यदि ऐसा व्यक्तित्व नहीं बना, तो जीवन का मूल अर्थ, मूल लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सकता, जिसके लिये देवता भी इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिये तरस्ते हैं। राम के रूप में जन्म लेते हैं, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं, महावीर के रूप में जन्म लेते हैं, ईसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर मोहम्मद के रूप में जन्म लेते हैं। इस शरीर को पवित्र बनाने के लिये, यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले जायें। जब प्राण तत्व में जायेंगे, तो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं। फिर जीवन के सारे क्रियाकलाप तो होंगे, मगर फिर मल-मूत्र की जरूरत नहीं रहेगी, फिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगा की आप कुछ हैं।
प्राण तत्व में जा कर आप में चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे वेद, सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेंगे। आप कितनी साधना करेंगे? कितने मंत्र जपेंगे? कब तक जपेंगे?
ज्यादा से ज्यादा साठ साल उम्र तक, सत्तर तक। लेकिन आपके जीवन का अधिकांश समय तो व्यतीत हो चुका है, जो बचा है, वह भी सामाजिक दायित्वों के बोझ से दबा हुआ है। फिर वह जीवन अद्वितीय कैसे बन सकेगा? और अद्वितीय नहीं बना, तो फिर जीवन का अर्थ भी क्या रहा? कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं किया, कृष्ण को जगत गुरू के रूप में याद किया जाता है। उनको गुरू क्यों कहा जाता है? इसलिये कि उन्होंने उन साधनाओं को, उस चेतना को प्राप्त किया, जिसके माध्यम से उनके शरीर से अष्टगंधा प्रवाहित हुई। उनका प्राण तत्व जाग्रत हुआ।
मैं आपको एक अद्वितीय साधना दे रहा हूँ, हजार साल बाद भी आप इस साधना को अन्यत्र प्राप्त नहीं कर पायेंगे, पुस्तकों से आपको प्राप्त नहीं हो पायेगा, गंगा के किनारे बैठ करके भी नहीं हो पायेगा, रोज-रोज गंगा में स्नान करने से भी नहीं प्राप्त हो पायेगा। यदि गंगा में स्नान करने से ही कोई उच्चता प्राप्त होती, तो मछलियाँ तो उस जल में ही रहती हैं, वे अपने आप में बहुत उच्च बन जातीं।
जीवन में अद्वितीयता हो, यह जीवन का धर्म है। हमारे जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं। ऐसा हो, तब जीवन का अर्थ है। ऐसा जीवन प्राप्त करने के लिये बस एक ही उपाय है, कि हम ऐसे गुरू की चरण में जायें, जो अपने आप में पूर्ण प्राणवान हो, तेजस्विता युक्त हों, वाणी में गम्भीरता हो, आँख में तेज हो, वह जिस को देख लें, वह सम्मोहित हो, अपने आप में सक्षम हों और पूर्ण रूप से ज्ञाता हो।
लेकिन आपके पास कोई कसौटी नहीं है, कोई मापदण्ड नहीं है। आप उनके पास बैठ कर उनके ज्ञान से, चेतना से, प्रवचन से एहसास कर सकते हैं। यदि आपके जीवन में सद्गुरू की प्राप्ति हो गई, तो आपको जीवन का अर्थ समझ में आयेगा, तब आपको गर्व होगा कि आप एक सद्गुरू के शिष्य हैं जिनके पास हजारों-हजारों पोथियों जैसा ज्ञान है।
यदि व्यक्ति में जरा भी समझदारी है, यदि उसमें समझदारी का एक कण भी है, तो पहले तो उसे यह चिन्तन करना चाहिये कि उसे ऐसा जीवन जीना ही नहीं है, जो मल मूत्र युक्त है, क्योंकि ऐसे जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है और फिर उसे सद्गुरू को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, जो उसे तेजस्विता युक्त बना सकें, जो उसे प्राण तत्व में ले जा सकें, जो उसके शरीर को सुगंध युक्त बना सकें।
यदि ऐसा नहीं किया, तो भी यह शरीर रोग ग्रस्त और वृद्धावस्था को ग्रहण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो ही जायेगा। फिर वह क्षण कब आयेगा, जब आप दैदीप्यमान बन सकेंगे? कब आप में भावना आयेगी कि मुझको दैदीप्यमान बनना ही है, अद्वितीय बनना हैं, सर्वश्रेष्ठ बनना है?
ऐसा तब सम्भव हो सकेगा, जब आपके प्राण गुरू के प्राणों से जुड़ेंगे, जब आपका चिन्तन गुरूमय होगा, जब आपके क्रियाकलाप गुरूमय होंगे और इसके लिये एक ही क्रिया है- अपने शरीर में पूर्णता के साथ गुरू को स्थापित कर देना, जीवन में उतार देना।
शरीर में उनका स्थापन होते ही उनकी चेतना के माध्यम से यह शरीर अपने आप में सुगंध युक्त, अत्यन्त दैदीप्यमान और तेजस्वी बन सकेगा, जीवन में अद्वितीयता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगी, जीवन में पवित्रता आ सकेगी, प्राण तत्व की यात्र सम्भव हो सकेगी और उनका ज्ञान आपके अन्दर उतर सकेगा।
साधना विधान
इस साधना में आवश्यक सामग्री ‘गुरू हृदयस्थ स्थापन यंत्र’ व ‘साफल्य माला’ है इस साधना को आप किसी भी गुरूवार अथवा किसी भी महीने की 21 तारीख को प्रारम्भ कर सकते हैं। साधक इस साधना हेतु पीले रंग का वस्त्र धारण करें तथा पीला आसन बिछायें, गुरू पीताम्बर अवश्य ओढ़ लें। बाजोट पर पीले रंग का वस्त्र बिछाकर उस पर ‘गुरू हृदयस्थ स्थापन यंत्र’ को स्थापित करें घी का दीपक लगायें।
यंत्र को केसर, अक्षत, पुष्प तथा नैवेद्य अर्पित कर पूजन करें। फिर पंजो के बल खड़े होकर निम्न मंत्र का एक माला मंत्र जप करें, ऐसा 21 दिन तक करें-
21 दिन के पश्चात् यंत्र व माला को नदी में प्रवाहित कर दें। यह मंत्र अपने आप में अत्यन्त चैतन्य मंत्र है। इतना अवश्य ध्यान रखें कि यह साधना पंजों के बल खड़े हो कर ही करनी है, बैठ कर या किसी अन्य आसन में इस साधना को सम्पन्न नहीं किया जा सकता।
इस साधना के माध्यम से गुरू आपके रक्त के कण-कण में स्थापित हो सकें और आपका जीवन दिव्य, उदात्त, पवित्र और श्रेष्ठ बन सके।
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