या श्री स्वयं सुकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी पापात्मनां कृतघियां हृदयेषु बुद्धि
श्रद्धा सतां कुलजन, प्रभवस्य लज्जा ता त्वां नतास्मि परिलय न देवि विश्वम्
मैं जगदम्बा के चरित्र को उसके ध्यान को एक विशेष धारणा के साथ में, एक विशेष चिंतन के साथ में आपके सामने स्पष्ट कर रहा हूँ। हमारे जीवन में कुछ अद्वितीय हो, हम याद रख सकें और आने वाली पीढि़याँ हमें याद रख सकें और वे ही लोग जिंदा रह सके हैं, जिनमें संघर्ष करने की क्षमता थी, ताकत थी। वे मर गये जो कायर थे, कमजोर थे, बुजदिल थे, अशक्त थे और अपने आप में हीन भावना से ग्रस्त थे। संघर्ष नहीं है तो जीवन नहीं है। मगर इस श्लोक में यह पूछा गया है कि संघर्ष क्या है? संघर्ष का तात्पर्य क्या है? किसको संघर्ष कहते है?
क्या संघर्ष घर में लड़ाई झगड़े को कहते है? क्या संघर्ष शत्रुओं से परास्त होना है? क्या संघर्ष मुकदमें बाजी में है कि हम बराबर वकील बदलते रहें और कोर्ट में लड़ते रहें? क्या संघर्ष संतान नहीं होना है और हम उसके लिये प्रयत्न कर रहें हैं? क्या संघर्ष पुत्र कुपुत्र हो रहे हैं इसमें हैं? क्या संघर्ष वह है कि हम व्यापार कर रहे हैं और उसमें सफलता नहीं मिल पा रही है? आखिर संघर्ष का तात्पर्य क्या है?
आप जीवन में समस्याओं के अलावा कुछ झेल नहीं रहे है। यदि आप सुबह से शाम तक देखें तो समस्याओं के अलावा कुछ और आपके जीवन में नहीं है। आपके जीवन में आनन्द जैसी कोई बात है ही नहीं, प्रफुल्लता जैसी बात है ही नहीं, हास्य, विनोद जैसी बात है ही नहीं, हंसी खुशी है ही नहीं और अगर मैं कहूं कि आप दीर्घायु बनें तो आप अगर चिंताओं से घिरे हुए होंगे तो दीर्घायु कहां से होंगे क्योंकि मृत्यु तो मन से होती है शरीर से तो मृत्यु होती नहीं। वह तो आप कहें तो मैं आपको सिखा दूंगा कि कैसे व्यक्ति अपने को समाप्त करके पूर्ण कायाकल्प कर सकता है। मैं आपको बता सकता हूँ कि कायाकल्प करने के लिये शंकराचार्य ने कौन से ज्ञान को प्राप्त किया।
मगर कई बार मैंने मार्कण्डेय पुराण पढ़ा, कई बार दुर्गा सप्तशती का पाठ किया, एक लाख पाठ कर लिये होंगे मैंने। जब मैं चार साल का था। तभी मुझे ज्ञान दे दिया गया था कि दुर्गा सप्तशती को कंठस्थ कर लेना है। आज भी दोनों अध्याय करता हूँ, पूरे तेरह अध्याय न भी कर पाऊं तो भी दो अध्याय तो कर ही लेता हूँ। मगर कई बार यह ध्यान, यह चिंतन उठा कि यह श्लोक मार्कण्डेय ने क्यों नहीं लिखा?
या श्री स्वयं सूकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी—
क्या गलत है? क्या यह उधार ली हुई चीज हैं? यह क्या चीज है? मार्कण्डेय ने जो लिखा पूर्ण सात्विक भाव से लिखा, दुर्गा चरित्र को श्रेष्ठतम लिखा। मगर जब तक आपको तंत्र ज्ञात नहीं होगा जब तक आप में तांत्रिक विद्या नहीं होगी, चैतन्यता नहीं होगी तब तक आप उस दुर्गाचरित्र को नहीं समझ सकते, आप दुर्गा साधना में सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकते।
इसीलिये जगदम्बा को जगदम्बा कहा ही नहीं गया है, तांत्रेक्त स्वरूपा कहा गया है। उसे दुर्गा कहा गया है, भवानी कहा गया है, उसे भद्रा, कपालिनी कहा गया है और यह श्लोक जो मैंने बताया कई गूढ़ रहस्यों को लिये हुये है और यह श्लोक रावण के लिये लिखा और रावण ने पूर्ण तांत्रेक्त विधि से साधनाये संपन्न की और उसमें अद्वितीय सफलता प्राप्त की। वही ज्ञान अमरनाथ के स्थान पर महादेव ने पार्वती को देना चाहा और अमरनाथ में महादेव बैठे, पार्वती बैठी और महादेव ने अमरत्व के ज्ञान को स्पष्ट किया। अमरनाथ नाम इसीलिये पड़ा कि वहां मृत्यु हो ही नहीं सकती। महादेव का नाम अमरनाथ इसीलिये पड़ा। आप अगर अमरनाथ गये हो तो देखा होगा कि वहां कोई पशु पक्षी है ही नहीं केवल एक कबूतर कबूतरी का जोड़ा है। जो कि बारह महीने उस मंदिर में रहता है और हजारों साल से रहता है। मर जाता हैं तो बच्चे रहते हैं मगर होते जरूर हैं। यह बात का प्रतीक है कि उन्होंने उस अमरकथा को सुना।
ज्योहि महादेव ने कहना शुरू किया तो वहाँ एक अंडा था वह फट गया और उसमें से जीव निकला। निकलते ही तो वह उड़ नहीं सका क्योंकि उड़ने की क्षमता तो चार पांच घंटे बाद आती है। वह सुनता रहा और हुकांर करता रहा और महादेव अपनी पीनक में ज्ञान देते रहे, चेतना देते रहे और पार्वती सुनते-सुनते सो गई। और जब महादेव ने त्रिशूल उसके ऊपर छोड़ा तो वह उड़ा और उसने निश्चय कर लिया कि महादेव उसे मार तो सकते नहीं। त्रिशूल क्या सुदर्शन चक्र भी आये तो मृत्यु हो ही नहीं सकती क्योंकि अमर कथा सुनी है और वेदव्यास की पत्नी अर्घ्य दे रही थी वह उसके मुंह में प्रवेश कर गया।
अब आप कहेंगे कि यह अजीब सी बात है मुंह में कैसे घुस गया? मैं आपको कहता हूँ कि मेरी बातें आपको समझ नहीं आयेगी, कई बात आपको आश्चर्यजनक लगेंगी। जब तक आपको वह ज्ञान प्राप्त नहीं होगा तब तक आपको मालूम नहीं पड़ेगा कि कायाकल्प क्या होता है, सौंदर्य क्या होता है, तेजस्विता क्या होती है, चेतना क्या होती है, वह तो पूर्णता प्राप्त होने पर ही हो पायेगा। कुछ युग पहले औरतें इक्कीस महीने का गर्भ धारण करती थी। उसके बाद बच्चे पंद्रह महीने बाद होने लगे, फिर दस महीने बाद होने लगे, नौ महीने बाद होने लगे और आज आठ महीने बाद नर्स कहती है बच्चा पैदा कर लो नहीं तो चीर फाड़ करके ही निकाल लेते है क्योंकि उस दर्द को झेल नहीं पाती हैं महिलाये और डर रहता है कहीं गड़बड़ नहीं हो जाये और आपरेशन कर लेते हैं और आजकल एक नया फैशन शुरू हो गया कि ग्रह नक्षत्र सही हो, जब तब आपरेशन से बच्चा निकाल लो। इससे ग्रह नक्षत्र अच्छे हो जायेंगे, यह एक नया खेल और शुरू कर दिया।
मगर इन बच्चों में वह प्रखरता नहीं आ रही, वह बुद्धि नहीं आ रही, वह ऋषिपन नहीं आ रहा, वह तेजस्विता नहीं आ रही। वह तेजस्विता आ सकती है केवल और केवल जगदम्बा की साधना के द्वारा केवल भगवान शिव द्वारा रचित उस तंत्र के द्वारा। उस जगदम्बा की साधना रावण ने की। रावण ने जब साधना की तो रावण भी अपने आप में एक ऋषि था। हमने उसे एक दूसरे ढंग से देखा, हमारा देखने का नजरिया दूसरा हो गया। रावण ने प्रार्थना की और उसने कहा मैं और कुछ नहीं चाहता हूँ, मैं भगवान शिव को साक्षी करके वह चीज सीखना चाहता हूँ जो आज तक नहीं पैदा हुई वह विद्या सीखना चाहता हूँ और तंत्र के माध्यम से सीखना चाहता हूँ और महादेव जब प्रकट हुये तो उन्होंने कहा- अगर तू मेरा भक्त है, अगर तूने मेरी उपासना की है, सैकड़ों वर्षों तक मेरी उपासना की है तो मेरी ड्यूटी है, मेरा कर्त्तव्य है, मेरा धर्म है कि मैं तुझे वह ज्ञान दूं जो अद्वितीय हो। मगर उसके बाद दूसरी बात नहीं पूछेगा। दूसरा ज्ञान नहीं प्राप्त कर पायेगा, एक ज्ञान दूंगा। अब जो कुछ ज्ञान तुम्हें प्राप्त करना है कर लो।
तो, दो क्षण रावण विचलित रहा कि यह तो अंत हो जायेगा। अब महादेव ने कह दिया तो एक ही हो पायेगा। दूसरा ज्ञान मैं कहां से प्राप्त कर पाऊंगा? कैसे कर पाऊंगा? जब इन्होंने निश्चय कर लिया तो एक ही ज्ञान देंगे। उसने सोचा-चलो नहीं से तो एक अच्छा है। तो उसने कहा-आप एक ज्ञान ही दे दीजिये मगर ज्ञान ऐसा दीजिये जो अपने आप में अपूर्व हो। आपने पार्वती को ज्ञान दिया तो वह पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाई, क्योंकि निद्रा मग्न हो गई। तो महादेव इस श्लोक की रचना की
या श्री स्वयं सूकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी—
मैं उस देवी की उत्पति करता हूँ जिसका जागरण तुम्हें अपने मंत्र के माध्यम से करना है और यदि तुम्हें ज्ञान प्राप्त करना है तो तंत्र के माध्यम से करना है और तंत्र अपने आपमें पूर्ण सौम्यता युक्त हो। सौम्यता युक्त का अर्थ है कि वह तंत्र लगे ही नहीं और उसका मंत्र भी पूर्ण तेजस्वी हो। मैं आपको कहता हूँ- आप मेहरबानी करके मुझे भोजन करा दीजिये, यह मैं मंत्र बोल रहा हूँ और मैं आपका गला पकड़ कर कहूं- आप मुझे भोजन कराओ, सुनो।
शब्द वही कहे मगर दूसरी बार आप एकदम से दस रूपये जेब से निकालेंगे और कहेंगे- ले भोजन कर ले तू। मेरा गला छोड़। यह दूसरा तंत्र है। पहला मंत्र था कि मैं हाथ जोडूं, प्रार्थना करूं कि दो रूपये दे दीजिये। आप मानें या नहीं मानें। रावण ने कहा आप मुझे तंत्र विद्या सिखाइये, ऐसी चीज बताइये जो अद्वितीय हो ऐसा ज्ञान जो पैदा नहीं हो, जो आगे पैदा हो भी नहीं। महादेव ने कहा- वह नहीं हो सकता। मैं तुम्हें ज्ञान दे सकता हूँ, अद्वितीय ज्ञान दे सकता हूँ, मगर वह आगे रहे ही नहीं यह संभव नहीं। अमर कथा भी गोपनीय नहीं रह पाई, वह भी किसी ने सुन ली और उसका आगे चलकर शुक्राचार्य ने प्रयोग किया जहां सैकड़ों दैत्य मरते थे तो वह संजीवनी विद्या प्रयोग करता था और वे वापस जीवित हो जाते थे। देवता वापस पैदा नहीं हो पा रहे थे मगर दैत्य हो रहे थे। रक्तबीज जिसका देवी ने वध किया, उसकी रक्त की, एक बूंद गिरती थी और फिर एक दैत्य पैदा हो जाता था। आज नौ महीने बाद पैदा होते है उस समय एक क्षण में पैदा कर देता था शुक्राचार्य की संजीवनी विद्या के माध्यम से।
तो रावण ने कहा कि मेरे पास ऐसी विद्या हो कि मैं जीवन मैं उच्चता को प्राप्त कर सकूं। आपके बारे में देवता कहते हैं-
महोक्षः खटवांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः कपालं चेती….
सारे देवता कहते है कि आपके पास कुछ ही नहीं। आप बहुत खुश हो जायेंगे तो श्मशान की मुट्ठी भर राख निकाल कर देंगे और आपके पास एक लंगोट पडी है, ज्यादा खुश होंगे तो वह दे देंगे और भी ज्यादा खुश होंगे तो दो चार सांप निकाल कर दे देंगे कि जा बच्चे खुश हो जा। अब मैं उन सापों और भस्मी को लेकर करूंगा क्या? और आपके पास इनके अलावा कुछ है नहीं। इनके अलावा कुछ नहीं है मगर फिर भी आप महादेव कहला रहे हैं। यह क्या चीज है, यह क्या रहस्य है। वह कौन सी शक्ति है, कौन सी विद्या है जिसके माध्यम से आपके जीवन में कोई अभाव है ही नहीं। आपके घर में पत्नी पूर्ण तेजस्विता युक्त है और आप पूर्ण निश्चिन्तता से बैठे है श्मशान में, न कोई चिंता है न फिक्र है, जो कुछ है सो है, कुछ आये तो आये, नहीं आये तो नहीं आये। फिर भी आप महादेव कहला रहे है यह रहस्य क्या मुझे समझा दीजिये। अद्वितीय व्यक्तित्व कैसे बन सकते हैं? तो महादेव ने कहा-
या श्रीं स्वयं सुकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी…
तीन चीज तंत्र के माध्यम से संभव हैं क्योंकि एक ही तंत्र में तीन विद्याये हैं। उसमें से एक विद्या है पूर्ण यौवनवान बनना, पूर्ण तेजस्वितावान बनना।
आप सौंदर्यवान है और यदि पास में अभाव है, समस्याये है, बाधायें हैं, अडचने हैं और शत्रु हैं तो वह सौंदर्य क्या काम का। वह सौंदर्य भी किसी काम का नहीं है क्योंकि आप चारों ओर से घिरे हैं, आपके मन में भय है, संकोच है। आपके जीवन में डर है, हर क्षण पलायन है, लक्ष्मी और धन का अभाव है सबसे बड़ा आपका शत्रु यह है। आज के युग में भी यह है और आज से पाँच हजार साल पहले भी यही डर था, भय था। लक्ष्मी समुद्र से पैदा हुई ही नहीं। आप कहते हैं कि समुद्र मंथन हुआ उसमें चौदह रत्न निकले तो उनमें लक्ष्मी का कहीं वर्णन नहीं है।
श्री रंभा विष वारूणी अमिय शंख गजराज—
श्री तो निकली। मगर लक्ष्मी कहां से निकली? लक्ष्मी की उत्पति कहाँ से हुई, आपको, पता नहीं और आप लक्ष्मी का मंत्र जप किये जा रहे हैं। लक्ष्मी का वास्तविक मंत्र कौन सा है फिर? रावण ने महादेव से कहा- यह लक्ष्मी मंत्र मैं जपता हूँ———- तो महादेव ने कहा- यह लक्ष्मी मंत्र नहीं है। भगवान शिव ने कहा- तुम गलत जप रहे हो। तो रावण ने कहा- फिर आप मुझे मंत्र वह दीजिये कि मैं अद्वितीय संपन्न बनूं। अद्वितीय सौंदर्यवान बनूं। ऐसी तेजस्विता मुझे दीजिये और अत्यंत सौंदर्यवती मेरी पत्नी हो और जिस नगर का मैं राजा हूँ तो मेरा पूरा नगर सौंदर्ययुक्त हो, महकता हुआ हो। इस शरीर से सुगंध प्रवाहित होती हो। स्त्री को पद्मिनी कहा है। पद्म कहते है कमल के उस फूल को जिसमें आधा किलोमीटर तक सुगंध आती है। यदि आप बद्रीनाथ के मंदिर की तरफ गये हो तो वहाँ पास में एक स्थान है 24 किलोमीटर दूरी पर। वहाँ पूरे एक किलो मीटर घेरे का कमल खिला होता है उसे ब्रह्म कमल कहते हैं। उसमें से सुगंध प्रवाहित होती है एक-एक किलोमीटर तक। इसीलिये नारी को पद्मिनी कहा गया है।
क्या आपसे बिना पर्फ्रयूम छिड़के सुगंध आती है? यह सौंदर्य नहीं है। रावण ने कहा- मैं वह विद्या लेकर करूंगा क्या आपसे, जिससे महापुरूष नहीं बन सकता, अद्वितीय नहीं बन सकता, पूर्ण विजय नहीं प्राप्त कर सकता, पूर्ण सौंदर्यवान नहीं बन सकता और अगर आप कहते हैं कि लक्ष्मी समुद्र मंथन से नहीं निकली और यह मंत्र गलत है तो मैं लक्ष्मीवान बनूंगा कैसे? और यह आज तक आपके भी समझ नहीं आया और कथाओं में भी वर्णन नहीं है कि लक्ष्मी का वास्तविक स्वरूप क्या है? यजुर्वेद में तो वर्णन है ही नहीं। उसमें तो क्षेपक आया है।
श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पतन्यां—
यह दिया तो जरूर है मंत्र मगर यह तो कई मंत्र ऐसे आ गये जो पहले यजुर्वेद में थे ही नहीं। ऋषियों ने वर्णन किये ही नहीं। ऐसे मंत्र बाद में आ गये। एक कथा लिखी तो उसमें और कथाये जुड़ती गई। सत्यनारायण कथा के तीन अध्याय थे, फिर उसमें चौथा अध्याय जुड़ गया, पांचवा जुड़ गया और अब सात अध्याय की सत्यनारायण कथा हो गई। अध्याय आप एक और जोड़ दीजिये तो आठ अध्याय की कथा हो जाएगी। ये सब क्षेपक हैं।
रावण ने महादेव से कहा- आप तंत्र के माध्यम से मुझे वह ज्ञान दीजिये, वह शक्ति दीजिये जिसके माध्यम से मैं तीनों चीज प्राप्त कर सकूं पूर्ण बलवान, रूपवान तथा धनवान बन सकूं, यौवन मेरे चेहरे से झलकना चाहिये, आभा झलकनी चाहिये, ऐसा लगे कि सूर्य जैसा दमकता मेरा चेहरा है, बुढापा तो दस हजार मील दूर हो और सौंदर्य ऐसा होना चाहिये कि कोई देखे और ठिठक कर खड़ा हो जाये।
ऐसा सौंदर्य अस्सी साल का व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है क्योंकि उम्र कहीं बाधक होती ही नहीं। यह तो तुम्हारे मन में हीन भावना है कि तुम बूढ़े हो, कि तुम कमजोर हो। यह भाव भी तुम्हारा नहीं है यह भाव घरवालों ने दे दिया, पड़ोसियों ने दे दिया कि तुम पचास साल के हो गये। तुम इतनी हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हो कि तुम सोचने लगते हो- अरे! बुढ़ापा आ गया। यह बुढ़ापा तुम्हें तुम्हारे आस पास के लोगों ने दे दिया कि तुम साठ साल के हो गये हो, मरने वाले हो, अब तुम क्या करोगे। अब गुरूजी के पास जाकर क्या होगा, मंत्र जप से क्या होगा? अब तू कमाकर करेगा भी क्या तू मरने वाला है। तुम सोचते हो कि वास्तव में तुम मृत्यु के पास आ ही गये। आप में हीन भावना नहीं थी, गुरू ने भी नहीं दी, यह तो औरों ने आपको दी और आप में कमी आई। भगवान शिव ने कहा- आदमी मर नहीं सकता। बलिष्ठ पुरूष, जो क्षमतावान है, ताकतवान है वह समाप्त हो नहीं सकता। क्योंकि उसमें एक संघर्ष करने की क्षमता होती है। उसमें ताकत होती है, जोश होता है और जिसमें ताकत और जोश होता है वह मरेगा कहां से? मृत्यु तो तब दबोचती है जब आप खाट पर पड़े होते हैं अस्पताल में, हिल डुल नहीं रहे हैं और इंजेक्शन पर इंजेक्शन लग रहे हैं, दवाओं पर दवाये खा रहें है, डाक्टर आ रहे हैं, देख रहे हैं और आप पड़े होते हैं मुर्दे की तरह। आप धीरे-धीरे गलते जाते हैं तो शरीर मरता है और अगर आप बलिष्ठ ताकतवान होंगे तो मरेगा कहाँ से?
महादेव ने बिल्कुल एक सही व्याख्या करके समझाई है कि पुरूष सौंदर्य वह हैं जिसमें ताकत, जवानी, क्षमता है। वह लात मारे और दीवार दस फुट दूर गिर जाये, आकाश में पत्थर फेंके तो आकाश में दस हजार छेद हो जाये, वह बलिष्ठ पुरूष सौंदर्य है। वह नारी सौंदर्य है जो अद्वितीय हो, जिसमें कमल गंध हो जिससे पद्मिनी कहला सके। क्यों भगवती का स्वरूप इतना सौंदर्यवान है और बगलामुखी इतनी क्षमतावान, ताकतवान क्यों है? किसी देवता को देख लीजिये उनके चहरे लाल सुर्ख हैं, चाहे विष्णु को देख लीजिये, ब्रह्मा को देख लीजिये। फिर हमारे चहरे ऐसे पिलपिले क्यों हैं? हम पूजा उनकी करें और हम मरे हुए पिलपिले बैठे हैं, कुंकुम उनके लगाये हम खुद मरे हुए हैं। कोई देवता तुमने देखा दुर्बल और तुम्हारी तरह रोता झींकता हुआ? महादेव, भगवान विष्णु, नारद या कोई ऋषि है ऐसा? वे पूर्वज आपके और आप खुद मरे हुये।
रावण ने कहा- मुझे वह ज्ञान दीजिये और अगर लक्ष्मी नहीं पैदा हुई समुद्र मंथन से तो लक्ष्मी कहां है, किस प्रकार से प्राप्त कर सकता हूँ? मैं लक्ष्मी को इसलिये प्राप्त करना चाहता हूँ, जिससे मेरे जीवन में अभाव रहे ही नहीं। अभाव नहीं रहेंगे तो पौरूष रहेगा, अभाव नहीं रहेंगे तो मेरे जीवन में बाधाये आयेगी ही नहीं। अभाव नहीं रहेंगे तो लड़ाई झगड़े होंगे ही नहीं। अभाव होंगे तो मन में शत्रुओं का भय होगा, मन में घबराहट पैदा होगी। अभाव नहीं होगा तो पूर्ण बलिष्ठता होगी। आप एक हुंकार भरे और दूसरा दुबक कर बैठ जाये, वह बलिष्ठता आपकी हो। इसीलिये नारी का सौंदर्य पति है और पुरूष का सौंदर्य धन है। जब धन नहीं होता तो व्यक्ति सबसे कमजोर अशक्त हो जाता है, पीडि़त होता है, पत्नी जो चीज मांगे वह ला नहीं सकता, बच्चों की फीस नहीं दे सकता। हर दम तकलीफ पाता है। सब करने के बाद भी जीवन निष्फल हो जाता है जब धन का अभाव होता है।
रावण ने कहा महादेव से- मैं अभाव नहीं चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता और मेरी पूरी नगरी नहीं चाहती। समुद्र के बीच में द्वीप जिसे लंका नगरी कहा गया। वहां एक भी वृद्ध नहीं हो, एक भी असुंदरी नहीं हो। एक भी व्यक्ति निर्धन नहीं हो इसीलिये लक्ष्मी की मैं साधना करना चाहता हूँ, उस पौरूषता की साधना करना चाहता हूँ। मुझे महादेव आप वह ज्ञान दीजिये और कौन सी लक्ष्मी की साधना के माध्यम से ये तीनों चीजें प्राप्त हो सकती है, एक ही बार में तीनों चीजें और जीवन में हमारे ये तीनों ही आवश्यक हैं। आज के युग में भी ये तीनों ही आवश्यक हैं। कौन सी साधना रावण ने की जो इतना धन संपन्न हो सका। ऐसी किसी ऋषि ने नहीं की, योगी ने नहीं की, यति या संन्यासी ने नहीं की। उससे पहले इतने योगी, यति संन्यासी पैदा हुए, यह साधना फिर थी कहां? कहां से मिला यह मंत्र?
तब भगवान शिव ने इस श्लोक के माध्यम से रावण को समझाया। उन्होंने समझाया कि जो तुम सीखना चाहते हो वह तंत्र के माध्यम से सीख सकते हो, तुरंत सीख सकते हो और घिसा पिटा सीखना चाहते हो, तो लंबा समय लगेगा और तंत्र का मतलब है पूर्ण क्षमता के साथ बोलने की शक्ति, एकदम से गुरू स्वयं दे दे आपको। तंत्र का मतलब है देने की क्रिया। दोनो में डिफरेंस है। जब मैं मंत्र बोलू इसका अर्थ है मैं आपको कुछ दे रहा हूँ, तंत्र का अर्थ है आप पूरी तरह से ग्रेस्प कर रहें हैं, ले रहें हैं। गुरू सब कुछ दे और तंत्र के माध्यम से आप सब ले लें। रावण ने कहा सुंकृतिनां-मेरे हाथ में बहुत अच्छे कार्य हों, अद्वितीय कार्य हों। हमने रावण को एक गलत तरीके से देखा क्योंकि तुलसीदास ने ऐसा ही लिखा। वाल्मीकी रामायण में रावण का एक भी जगह गलत विवरण नहीं है और वाल्मीकी उस समय थे जब रावण पैदा हुआ था। जब राम थे, सीता थी तब वाल्मीकी थे। उसने जो लिखा इतिहास के रूप में लिखा। उन्होंने राम को ईश्वर मान कर लिखा एक भक्त के रूप में लिखा। वाल्मीकी ने वास्तविकता लिखी। उसने कहा कि रावण अकेला पैदा हुआ आज से पच्चीस हजार पहले कोई ऋषि इस विद्या का सिद्ध नहीं कर सका और वाल्मीकी ने कहा कि आगे पच्चीस हजार साल तक यह विद्या रहेगी नहीं, रावण के साथ समाप्त हो जाएगी।
रावण पूर्ण ताकतवान, तेजस्विता युक्त, क्षमतावान, पुष्पक विमान बनाने वाला, संजीवनी विद्या सीखने वाला और उसकी सभी पत्नीयां सुन्दर तेजस्विता युक्त, कमल गंध युक्त। यह क्या था? यह इसलिये था कि रावण ने उस साधना को प्राप्त किया जो अपने आप में पूर्णता प्राप्त करने की साधना कही जाती है और वह भी महादेव से प्राप्त की। महादेव कहते है कि यह एक विधा है जो पूर्ण तंत्रमय है। उन्होंने जब पहली बार लास्य किया, तांडव नृत्य किया तो तंत्र पैदा हुआ। तंत्र की उत्पति वहीं से हुई। संगीत की उत्पति भगवान शिव के नृत्य से हुई। जिन वर्णों की उत्पत्ति तब हुई आप उनको जोडे़गें तो सा, रे, गा, मा, पा, ध, नी, सा, निकल जायेगा। यह सारा तंत्र, सारा संगीत, सारा नृत्य भगवान शिव के तांडव नृत्य के माध्यम से पैदा हुआ। हमने महादेव को भी सही ढंग से समझा ही नहीं, इसलिये तंत्र को भी नहीं समझा। किंतु रावण ने समझा, इसलिये रावण का सारा जोर इस बात पर था कि पौरूष मिल जायेगा मुझे, मेरी पत्नी को सौंदर्य भी मिल जायेगा। मगर मैं धनहीन होकर क्या करूँगा उस सौंदर्य का? निर्धन होकर क्या पाऊंगा? अगर मैं गुरू हूँ और मेरे शिष्य निर्धन रहेंगे तो उसका फायदा क्या हुआ। मैं यह नहीं कर सकता कि नवार्ण मंत्र दूं, ‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै’ जो ज्ञान दूँ वह प्रमाणिक हो। रावण ने कहा- मैं कुछ साधना सिखना चाहता ही नहीं हूँ, मैं कोई मंत्र आपसे लेना नहीं चाहता हूँ। आप सीधे मुझे क्षमता दीजिये, आप क्षमता दें कि मैं धनवान बन सकूं और मेरे पास धन नहीं, सोना ही सोना हो। पूरी नगरी स्वर्णमय बन जाये, कुछ ऐसी विद्या दीजिये। जो अपने आप में अद्वितीय हो।
इसलिए वाल्मीकि ने कहा- न भूतो न भविष्यति। यह विद्या जो रावण ने सीखी वही- न भूतो- इससे पहले कोई नहीं सीख पाया, न भविष्यति- न कोई इसके बाद सीख पायेगा। मगर मार्कण्डेय ने उसी विद्या को प्राप्त किया और भगवान शिव ने इस श्लोक की तुरंत रचना की जो कि हर पुराण में लिखा है। तभी वेदों में यही श्लोक लिखा है। इससे क्या विशेषता थी कि हरेक वेदों में, हर पुराण में यह लिखा गया? इसकी महत्ता क्या थी?
इसकी महत्ता यह थी कि इसमें बताया गया है कि यदि इस श्लोक का निचोंड़ लें तो व्यक्ति उस चीज को सीख सकता जिसके माध्यम से जीवन में धन का अभाव रहे ही नहीं। आप काम करें या नहीं करें, मैं कोई व्यापार करता नहीं, नौकरी करता नहीं, मैं कोई हल जोतता नहीं, मेरे कोई खेत, खलिहान नहीं फिर भी मैं आपसे अधिक संपन्न हूँ। आप सब मिलकर इतने संपन्न नहीं हैं जितना मैं हूँ, मेरी कोई समस्या है ही नहीं, मैं आपसे अधिक क्षमतावान हूँ, ताकतवान हूँ आपसे ज्यादा काम कर रहा हूँ यह मैं अपनी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ। वह तो मुझे वह ज्ञान हैं, चेतना है तो इतनी तेजस्विता से बोल सकता हूँ।
रावण ने महादेव से कहा- मैं पूर्ण पौरूषवान, क्षमतावान, सौंदर्यवान बनना चाहता हूँ और वह लक्ष्मी जो आप कह रहें हैं, सागर मंथन से पैदा नहीं हुई, वह जहाँ भी है मेरे घर में स्थापित हो। फिर मुझे परिश्रम नहीं करना पड़े फिर मुझे न्यूनता नहीं बरतनी पड़े और आप मुझे ऐसी विद्या देंगे। मुझे मंत्र नहीं देंगे। इस विद्या को ऐश्वर्यमय लक्ष्मी सिद्धि कहा गया या अमृत सिद्धि कहा गया या अमृत लक्ष्मी सिद्धि कहा गया। महादेव ने उस विद्या को रावण को समझाया और अमृत मंत्र को स्पष्ट किया जिसके माध्यम से पूर्ण सफलता प्राप्त हो सके, पूर्ण पौरूषवान हो सके, पूर्ण सौंदर्यवान और तेजस्वितायुक्त हो सके और अटूट संपत्ति का स्वामी हो सके और घर तो मामूली बात है, पूर्ण नगरी को सोने का बना सके।
यह रावण कृत तांत्रेक्त ऐश्वर्यमय लक्ष्मी सिद्धि जीवन का सौभाग्य है क्योंकि इसमें पौरूष है, सौंदर्य है, इसमें धन है, संपत्ति है, शत्रु परास्त है, जिसमें पूर्णता हैं, सफलता है, तेजस्विता है, दिव्यता है और सब कुछ प्राप्त करने की क्रिया हैं जो कुछ नारी चाहती है या पुरूष चाहता है। मैं आपको छूट देता हूँ कि कहीं से इस विद्या को लाकर दे दीजिये। पैसे मुझसे ले लीजिये और किसी भी गुरू से लाकर दिखाइये। संभव ही नहीं है। क्योंकि उस श्लोक में क्या बताया गया उसे समझा ही नहीं। जब समझा ही नहीं गया तो कहाँ से विद्या मिलेगी और मिलेगी तो वे गुरू आपको देंगे नहीं, अपने पास बांध कर रखेंगे। मैं ऐसे रखना ही नहीं चाहता हूँ। मैं अपने शिष्यों को बहुत सुंदर और अद्वितीय बनाना चाहता हूँ और कुछ ही क्षणों में। ऐसा नहीं कि छः महीने लगेंगे, उसका कोई फायदा नहीं है।
आप इस सिद्धि को प्राप्त करेंगे तो आप स्वयं कुछ ही दिनों में अनुभव करेंगे कि आप पहले से कितने ताकतवान हैं, क्षमतावान हैं, धनवान हैं, अद्वितीय हैं, तेजस्वी हैं और कितनी आप जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर पा रहे हैं। मुकदमें चौदह थे तो दो ही रहेंगे, अपने आप अनुकूलता मिलती जायेगी। जो आप में न्यूनता थी वह अपने आप ठीक होने लगेगी। वहाँ आप ट्रांसफर चाहते हैं वहां होगी, जहां व्यापार कमजोर था अपने आप सफलता मिलेगी, जहां शरीर में चेचक के दाग थे अपने आप ठीक होंगे और जहां शरीर से सुगंध निकलनी चाहिये वह निकलेगी।
आपमें और मेरे में हो तारतम्यता, एक जुड़ाव होना चाहिये। जो मैं कहूं वह आप करें, उस ढंग से आप गतिशील होते रहें। शिविर में अगर आप आये है और मैं कहू कि बरसात होगी तो होने दीजिये। हो जायेगी तो भीग जायेंगे। हो सकता है आप परेशान होते होंगे मगर आप इन बातों से परेशान होंगे तो जिंदगी कैसे चलेगी? परेशानियां, बाधाये, अड़चने और कठिनाइयां आपकी केवल एक पत्नी घर में नहीं है, आपकी ये चार पांच पत्नियां और हैं, एक का नाम परेशानी है, एक का नाम बाधा है, एक का नाम अड़चन है, एक का नाम कठिनाई है। अब आप इतनी पत्नियां रखते है तो मैं क्या करूं? मैं तो कहता हूँ कि एक ही रखो मगर आप अंदर से पैदा करते रहते हो।
एक बहुत अच्छा श्लोक है और उसमें बताया गया है कि समस्या तो जरूर आयेगी। आदमी की जिंदगी में ही समस्याये आयेगी, गाय भैंस के जीवन में नहीं आती है। समस्या आयेगी तब देख लेंगे। समस्याओं से, परेशानियों से घबराकर जिंदगी पार नहीं होती हैं। सुलझाना चाहिये, उन समस्याओं का निराकरण करना चाहिये। अब बरसात हो रही है तो हो रही है, न आप रोक सकते हैं, न मैं रोक सकता हूँ, वह इंद्र अपना काम कर रहा है, हम अपना काम करेंगे। मगर आप चिंता करते रहते हैं कि ऐसा होगा तो क्या होगा, वैसा होगा तो क्या होगा। आप चिंता करते रहिये, उस चिंता से कुछ होना नहीं है।
जीवन में एक संयम होना चाहिये, एक व्यवहारिकता होना चाहिये, जीवन में असभ्य नहीं कहलाये, कोई ऐसा काम नहीं करे जिससे दामन पर दाग लगे और जीवन में कोई ऐसी स्थिति न पकड़े जो अव्यवहारिक हों, सामाजिक दृष्टि से, कानूनी दृष्टि या किसी दृष्टि से समाज के लिये अहितकर हो। हम कोई ऐसा काम नहीं करें। जो करें निर्भिकता के साथ करें, क्षमता के साथ करें।
भगवान शिव ने एक अद्वितीय ज्ञान रावण को दिया और भगवान शिव अपने आप में पूर्ण ऋषि थे, भगवान शिव को ऋषि के रूप में ही देखा गया है, जिसके दाढीं, मूंछ हो वही ऋषि नहीं होता। ऐसा है तो इतने लोग जिनके दाढी, मूंछ है, काल भैरव की तरह दिखाई देते हैं, तो वे ऋषि तो नहीं हुये। दाढी, मूंछ से कोई ऋषि नहीं बनता। जिसमें ज्ञान हो वह ऋषि है। भगवान शिव ने अपने लास्य के माध्यम से तंत्र बनाया, ज्ञान बनाया और वे पूर्ण निश्चिंत है, जो होगा देखा जायेगा।
रावण भी ऋषि था। उसे ऋषि के रूप में पूजा गया, रावण के मंदिर हैं। एक व्यक्ति को कई रूपों में बांटा जा सकता है। आप अच्छे हैं और आप ही खराब भी हो सकते हैं। व्यक्ति आप ही हैं परन्तु कौन किस नजरिये से देखता है, कौन किस रूप में देखता है उस पर निर्भर है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
भगवान कृष्ण ने कहा है- जो मुझे जिस रूप में देखता है मैं उसी रूप में उसके सामने होता हूँ। राधा, मुझे प्रेमी के रूप में देखती है, मैं उसका प्रेमी हूँ। रूक्मणि मुझे पति के रूप में देखती है, मैं उसका पति हूँ। दुर्योधन मुझे शत्रु के रूप में देखता है, मैं उसका प्रबल शत्रु हूँ, भीष्म मुझे भगवान के रूप में देखता है, तो उसके लिये मैं भगवान हूँ। जो जिस रूप में मुझे देखता है मैं उसी रूप में उसके सामने हूँ।
जो जिस रूप में आपको देखेगा आप उसे परिवर्तित नहीं कर सकते। देखने दीजिये, जिस रूप में देखे, देखने दीजिये आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है। आप तो अपने रास्ते पर गतिशील होइये, निरन्तर गतिशील रहिये। रावण का हमने कैरेक्टर चेंज कर दिया तुलसी कृत रामायण में कि वह बहुत बुरा था, खराब था। मैं यह नहीं कह रहा कि बहुत अच्छा था। मगर मैं यह भी कह रहा हूँ कि वह बुरा भी नहीं था। यदि हम उसके गुण अवगुण देखें तो हम कहाँ उसे बुरा कह सकते हैं। यदि मैं ऐसा कहूं तो आप कहेंगे कि आप सनातन धर्म को नहीं मानते क्या? मैं यहीं कहूंगा कि मैं सनातन धर्म को ही मानता हूँ और अंतिम सांस तक मेरे जीवन में सनातन धर्म रहेगा और इस बात का गर्व है।
मगर रावण खराब किस दृष्टि से था? रावण ने सीता का हरण किया, यह बात गलत है उसकी मगर उससे पहले उसकी बहन के नाक, कान काट लिये थे और मेरी बहन के कोई नाक, कान काट ले तो मैं उसका खून चूस लूंगा। आप बताइये गलती कहां से शुरू हुई? किसने गलती की? हम रावण को किस जगह से दोष देंगे? किसने कहा उसके नाक, कान काट लीजिये? आपके पास कोई स्त्री आये और कोई बात कहे, आपकी प्रशंसा करे, कोई याचना करे तो क्या आप नाक, कान काट लेंगे उसके और ये छोटी-छोटी घटनाये मिलकर के उस रावण को बिलकुल नृशंस अत्याचारी कहा गया और मैं समझता हूँ कि उसने समाज के विरूद्ध कुछ किया होगा तो उसे कहाँ होगा अब कोई आपको किसी रूप में देखेगा, कोई किसी रूप में देखेगा। मैं रावण को कोई बहुत बड़ा आदर्श नहीं मान रहा हूँ, मगर मैं यह मान रहा हूँ कि वह तंत्र में अद्वितीय था, ज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय था, भगवान शिव की आराधना में वह अद्वितीय था। इस बात को मैं स्वीकार करता हूँ।
उसके सामाजिक कर्मो में कुछ प्लस, माइनस बिंदू हो सकते हैं, उसके मैं विस्तार से विवरण में नहीं जा रहा हूँ और कई इतिहासकारों ने कहा है कि उस समय पुष्पक विमान बना ही नहीं था, उसने बना कर दिखा दिया और राम को उस पर बिठा कर अयोध्या तक पहुँचा दिया। उसने भगवान शिव की आराधना की, उस ऋषि की आराधना की जो उससे ज्ञान में श्रेष्ठ था। आप भी उस गुरू के पास है जो आप से ज्यादा ज्ञानवान है। मेरी दाढी, मूंछ नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि मेरा ज्ञान खत्म हो जायेगा या दाढी मूंछ होने से ज्ञान हो जायेगा। अगर दाढी, मूंछ से ज्ञान होता तो जितने ये गीदड़, सियार है या रींछ हैं उनके तो बाल बड़े लंबे हैं, फिर तो उनके आगे बैठकर हमें उनके पांव पड़ना चाहिये।
ज्ञान बालों से नहीं होता ज्ञान चेहरे से भी नहीं होता। आप में कर्मठता, चेतना, हौसला, विद्वता क्या है और किस ढंग से आप जीवन यापन करते हैं, वह आपको जीवन में चैतन्यता है। इसलिये रावण ने कहा- कि मुझे ऐसा ज्ञान प्रदान कीजिये मैं लक्ष्मी की साधना करना चाहता हूँ पर ऐसी लक्ष्मी की साधना करना चाहता हूँ कि फिर मेरे जीवन में अभाव नहीं रहे, मैं बार-बार लक्ष्मी का मंत्र जप या जै लक्ष्मी माता नहीं करना चाहता। संभव नहीं है मेरे लिये। मेरा जीवन बहुत छोटा है मैं कहाँ तक साधना करता रहूंगा? इसलिये मुझे ज्ञान दें तो ऐसा दें, सौंदर्य दे ऐसा दें, पौरूष दे तो ऐसा दें कि फिर मेरा जैसा बस मैं ही हूँ, मैं बता सकूं कि पुरूष सौन्दर्य कैसा होता है। रावण ने कहा- मैं उस ज्ञान को प्राप्त करना चाहता हूँ कि स्वर्णमयी लंका बना सकूं एक घर या कुछ सिक्के नहीं, पूरा नगर स्वर्णमयी हो।
या श्री स्वयं सुकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी—
इसमें लक्ष्मी का वर्णन है, जगदम्बा का वर्णन होना चाहिये था। यह ज्ञान, वहां से रवाना हुआ, वह ज्ञान बढ़ते-बढ़ते आगे आया और लोप हो गया, सैकड़ों विद्याये हमारी लोप हो गई। इतना अत्याचार हम पर हुआ और इतने हम नपुंसक बने रहे कि उस अत्याचार को सहन करते रहे और आज तक कर रहे है।
आप शांत रहें मगर आपकी आँख में वह अंगारा हो कि सामने वाला ठिठक कर खड़ा हो जाये। आप जीवन में कमजोर नहीं रहें दरिद्र नहीं रहें, गरीब नहीं रहें, भिखारी नहीं रहें, रोज सुबह-सुबह जाकर उधार नहीं मांगे। कर्जा आपके ऊपर नहीं हो। आपकी दुकान हो तो ऊँची से ऊँची दुकान चले। आप नौकरी करें तो एक क्षण अफसर को देखें तो अफसर कहे कि बोलो क्या करना है। आपका प्रमोशन करना है, लो यह प्रमोशन रहा। वह आपकी आँख में तेज हो। वह क्षमता आप में होनी चाहिये। वैसा बनाना चाहता हूँ आपको, सामान्य नहीं बनाना चाहता।
ऐसे आप बने, पूर्ण पौरूषवान बनें, अद्वितीय धनवान बने यौवनवान बने ऐसा ही आशीर्वाद देता हूँ और आप ऐसी अद्वितीय सिद्धि प्राप्त कर सकें और उसके माध्यम से क्षमतावान और तेजस्विता युक्त बन सके, ऐसा मैं हृदय से आपको आशीर्वाद देता हूँ कल्याण कामना करता हूँ और रावण ने भगवान शिव की प्रार्थना करते हुए कहा-
दीर्घायुश्च सदैव पूर्ण भवतिं पूर्वा मदैव त्वया,
ज्ञानं च सविता सदैव भवता पूर्णोपि रूद्रोपमां।
लक्ष्मीर्वै भवतां श्रीयं च सवितां देवज्ञ देवामृतां।
पूर्णत्वं भव पूर्ण पूर्ण भवितां पूर्णत्व सिंधु प्रदै।
मुझे जीवन में कुछ ऐसा मंत्र भगवान शिव दें कि मैं पूर्ण कहला सकूं, मेरे जीवन में दरिद्रता नहीं रहे क्योंकि सबसे बड़ा दुःख जीवन का दरिद्रता है, गरीबी है, असहायपन है, निर्धनता है, हम सोचते हैं कि क्या करें, कैसे करें और कुछ सूझता नहीं है।
और यह ज्ञान भगवान शिव द्वारा उस जगदम्बा के सामने प्रकट किया, जो कि अपने आप में दस भुजाओं से युक्त है और सिंह वाहिनी है और इस ध्यान के माध्यम से रावण ने उस साधना को प्रारंभ किया और उसमें पूर्णता प्राप्त की। आप भी अपने जीवन में ऐसा कर पाये ऐसा मैं आशीर्वाद देता हूँ।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश श्रीमाली जी
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