अभिषेक का तात्पर्य है ‘सिंचन करना’ या अनवरत ज्ञान प्रदान करना। प्रकृति संसार में वर्षा के माध्यम से प्रत्येक प्राणी का अभिषेक करती है, इसी प्रकार अग्नि ताप द्वारा, आकाश शून्यता द्वारा, वायु स्पर्श द्वारा और पृथ्वी धारणता द्वारा अभिषेक करती है। जब इनका संयोजन उचित गति से चलता रहता है तभी प्रत्येक प्राणी, जीव या पौधा विकसित होता है। केवल एक तत्व के माध्यम से अभिषेक संभव नहीं है, प्रकृति तो अपना कार्य अनवरत रूप से करती ही रहती है, लेकिन मनुष्य परमात्मा की इस क्रिया में विघ्न डालकर संतुलन बिगाड़ देता है और जब एक बार संतुलन बिगड़ने लगता है तो पूरी प्रजाति को पीड़ा भोगनी पड़ती है।
अभिषेक का तात्पर्य है उस जड़ का सिंचन करना, जो उसे अर्थात पूरे वृक्ष को हरा-भरा रखता है, उसे पुष्प और फल प्रदान करता है। जीवन में अभिषेक का तात्पर्य है देह के भीतर स्थित भुवः स्वः इत्यादि को जाग्रत कर सकें। यह क्रिया देह से ऊपर उठने की क्रिया है, जिसमें मंत्र और शक्तिपात दोनों का संयोग होता हैं।
इस दीक्षा के माध्यम से मनुष्य अपने जीवन में उच्चता, श्रेष्ठता और पूर्ण पवित्रता का अनुभव कर सकता हैं। जिससे व्यक्ति सद्गुरूदेव के आत्म, मन, ज्ञान, चेतना और आर्शीवाद से युक्त होकर ही शीतलता और शांति प्राप्त कर सकते है जो मानव जीवन का वास्तविक सुख व आनन्द है। सद्गुरू की शिष्यता में ही व्यक्ति अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक पक्षों में मनोवांछित सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
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